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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से रमेश सैनी की कहानी— घोंसला


लता छत पर गीले कप‹ड़े सुखा रही थी, कि उसका ध्यान सेम की लता गुच्छ के समीप से आती सर्र सर्र की ध्वनि पर गयाŸ। उसने पलट कर देखा, एक चिड़िया फुर्र से उड़ गयी। वह फिर अपने काम में लग गयी। कुछ देर बाद फिर से सर्र सर्र की आवाज़ आयी। वह सेम की लताओं की ओर ब‹ढ़ गयी। पास जाकर देखा, एक चिड़िया ने लताओं और छत की रेलिंग के मध्य एक छोटा सा घोंसला बनाया है, जिसमें दो छोटे-छोटे सुन्दर सफेद अण्डे रखे हैंŸ। उसे पास देख चिड़िया चहचहाती हुई उसके आसपास उड़ने लगीŸ। शोभिता चिड़िया की घबराहट को समझ गयी और पलटकर नीचे उतर आयी।

उसे अपना अतीत याद आया जब वह पहली बार माँ बनी थीŸ। वह चौबीस घंटे अपने बेटे को निहारती रहतीŸ। बार-बार उसका कपाल चूमतीŸ। मुँह साफ कर देती, कि कहीं उसे धूल तो नहीं लगी? लोग उसे चि‹ढाते, बƒच्चा घर के तीसरे कमरे में है, भला उसे धूल कैसे लगेगी? तब वह तपाक् से कहती, “आप लोग कहना तो मानते नहीं, सीधे कमरे में जूते पहनकर घुस आते हो, और धूल कमरे में आ जाती हैŸ।” तब उसकी सास कहती,  “बहू, इसके बाप को मैं आटे भरे हाथों या गीले हाथों से उठाती रही हूँ और कभी कुछ न हुआ, और तुम...?” सब उसके प्रेम को देख मुस्कुरा देतेŸ।

उस घटना को याद कर वह मुस्कुरा दी और अचानक कहा
“अरुण का फोन आया था Šक्या?”
“अरे भाई, तुम घर पर रहती हो; आता तो पता नहीं चलता Šक्या” दिनकर ने कहाŸ।
“अरे, मैं ऊपर चली गयी थी, शायद तब आया हो? यह शुरू से ही ब‹डा दुष्ट लड़का हैŸ। हमेशा तंग करता हैŸ। अपनी जिम्मेदारी तो समझता ही नहींŸ। उसे मालूम होना चाहिए कि उसके फोन न आने से मम्मी-पापा...,
अरे तुम्हारी तो छोड़ो, तुम्हें तो दीन-दुनिया की खबर नहीं, मम्मी कितनी परेशान हो रही होगीŸ।
उसे यह अहसास होना चाहिएŸ।”
“इतनी परेशान क्यों हो रही हो? तुम्हीं फोन कर लोŸ।”
“मैं परेशान नहीं, बल्कि उनकी चिंता है मुझे, सोच रही हूँ कि वे लोग कैसे होंगे; शुभ्रा और किट्टू के Šक्या
हाल हैं? अरुण को फोन करना थाŸ।”

“तुम बिल्कुल चिंता मत करो, फोन आ जायेगाŸ। वे अभी गये हैंŸ। साथ में छोटा ƒबच्चा हैŸ। सेट होते ही
आज-कल में फोन कर देंगेŸ।” दिनकर ने शोभिता को समझायाŸ। वह बुझे मन से चुप हो गयी। फिर एकाएक हँसकर बोली, “सुनो! ऊपर चिड़िया ने सेम की बेल में घोंसला बनाकर अण्डे दिये हैं, तुम चलकर देखोगे? बहुत सुन्दर अण्डे हैंŸ।”
“चलो चलते हैंŸ।” दिनकर ने जवाब दिया और ऊपर की ओर जाने लगाŸ।
“रुको! मैं एक कटोरी पानी और कुछ चावल ले चलती हूँ, चिड़िया को दाने-पानी के लिए भटकना नहीं प‹डेगाŸ।”

वे लोग छत पर चले गयेŸ। उन्होंने दाना और पानी घोंसले के पास रख दियाŸ। चिड़िया अब घोंसले के आसपास ही रहती, क्योंकि दाना-पानी उसे सहज ही उपलब्ध हो जाताŸ।

शोभिता परेशान हैŸ। अरुण का दो दिन बाद फोन आया है, “मम्मी, सब ठीक है, शुभ्रा और किट्टू भी ठीक हैं, आप चिंता मत करना और पापा का ख्™याल रखनाŸ।” फोन सुनकर उसने दिनकर से कहा, “यह भी कोई बात हुई, जैसे टेलीग्राम का समाचारŸ। अरे! विस्तार से तो बताना था कि किट्टू और शुभ्रा कैसे हैं? छोटा बच्चा है, वह हीं‹डता ही होगा, सावधानी रखनी प‹ड़ती है, फिर शुभ्रा भी कमजोर हैŸ। क्या पता वहाँ खाने-पीने की Šक्या व्यवस्था है?” दिनकर ने उसे टोकते हुए कहा, “तुम लोगों को बातें करना पसंद है, मगर यह नहीं जानतीं कि फोन में बातों के पैसे लगते हैंŸ।” तब शोभिता ने कहा, “आदमी कमाता किसलिए है? अपने स्वास्थ्य के लिए नŸ।” यह कहकर वह चुप हो गयी, फिर शून्य में चली गयी।

छोटे में अरुण की एक बार तबियत खराब हो गयी थीŸ। उसने घर और अस्पताल में तहलका मचा दिया थाŸ। डॉक्टर उसे समझाते रहे कि दवा दे दी है, कुछ समय बाद आराम हो जायेगाŸ। मगर उसे धैर्य नहींŸ। उसका कहना था कि दवा देते ही आराम होना चाहिएŸ।

आज उसे अपनी नादानी पर हँसी आ गयी। उसे यह याद आया कि उसने घोंसले और अण्डों को दो-तीन दिन से नहीं देखा हैŸ। बस वह पानी और चावल लेकर ऊपर की ओर दौ‹ड़ गयी। उसने देखा, चिड़िया अण्डे पर बैठी हैŸ। चिड़िया ने उसकी ओर देखा, मगर वह उड़ी नहींŸ। वह उसकी उपस्थिति की अभ्यस्त हो चुकी हैŸ। कुछ देर रुककर वह नीचे उतर आयी और दिनकर के पास आकर बैठ गयी। कुछ देर बाद अपनी चुप्पी तोड़ते हुए बोली, “तुम्हें याद है, अरुण जब पहली बार स्कूल गया था?” दिनकर चुप रहा तो उसकी ओर देख खीझते हुए बोली, “तुम्हें कुछ याद नहीं, बस अपनी किताबों में खोये रहते होŸ। कोई तुम्हारी आँखों से चश्मा उतार ले तो भी तुम्हें पता न चलेŸ। यदि मैं न होती तो तुम्हारा Šक्या होता, भगवान ही जानता हैŸ। मैं स्वयं उसे छो‹ड़ने स्कूल गयी थीŸ। मैंने ही उसका नाम लिखाया थाŸ। उस दिन मैं बहुत खुश थीŸ। खुश इसलिए नहीं कि वह पहली बार स्कूल गया था, वरन् इसलिए कि वह रोया नहीं थाŸ। वरना स्कूल जाने में पहले-पहल बच्चे रोते ही हैंŸ। उन दिनों काम करना मुझे अच्छा लगता थाŸ। उस वक्त बच्चे को स्कूल भेजना, उसका और तुम्हारा टिफिन बनाना, कप‹ड़े धोना, सब कुछ अच्छा लगता थाŸ। इन कामों से मैं कभी नहीं थकती थीŸ। मगर अब तो अपना खाना बनाने में ही हाँफ जाती हूँŸ।”

दिनकर उसकी बात सुनता रहा फिर कहने लगा, “शुभ्रा तुम्हारी काफी प्रशंसा करती है कि मम्मी खाना बहुत अच्छा बनाती हैŸ।” यह सुनकर शोभिता मुस्कुरायी और फिर अतीत में चली गयी।

लोग कहते थे प‹ढी-लिखी बहू लाओगी तो वह लड़-झग‹ड़ कर अलग हो जायेगीŸ। न मान रखेगी न सम्मानŸ। प‹ढी-लिखी बहुएँ घर देती हैंŸ। वे खुद और उनका आदमी, यही उनका संसार हैŸ। उनके यहाँ सास-ससुर का कोई काम नहींŸ। पर मुझे लगा कि प‹ढ़ाई व्यक्ति और घर-परिवार को सक्षम और समर्थ बनाती हैŸ। रिश्तेदारों के विरोध के बावजूद कानवेंट पढ़ी लड़की, शुभ्रा को उसने अपनी बहू बनाया, और आज अपने इस निर्णय पर खुश हैŸ। अरुण अपने शहर में नौकरी करता थाŸ। शहर के हिसाब से उसका वेतन भी अच्छा थाŸ। दिनकर चाहता था अरुण अन्य बड़ी जगहों पर काम करे, उसे पद, पैसा और सम्मान मिलेŸ। पर मेरा मानना था कि घर की दो रोटी बाहर की साग-पूड़ी से अच्छी है, मगर मेरी कोई माने तब ना? दिनकर का कहना है, यदि आदमी को तरक्की करना है तो अपने शहर और घर-बार का मोह त्यागना होगाŸ। मोह से संतोष रहता है, और संतोष से महत्त्वाकांक्षा नहीं रहतीŸ। महत्त्वाकांक्षा के न रहने से आदमी कभी तरक्की नहीं कर सकताŸ। मेरी इच्छा है कि बहू-बेटे सामने रहें, बस! अरुण को नौकरी के कई अच्छे अवसर मिले, पर उसने मेरे कारण छो‹ड़ दिये और शिकायत नहीं कीŸ। शोभिता को फिर शुभ्रा और किट्टू की याद आने लगीŸ। उसकी आँखें भर आयींŸ। उसकी सजल आँखें देख दिनकर कहने लगा, “देखो, हमारा सुख बच्चों की तरक्की होते देखने में है, न कि उन्हें पास रखने मेंŸ?”

“अरे! तुम Šक्या जानो, ममता Šक्या होती हैŸ। मैंने किस तरह उसे ब‹ड़ा किया हैŸ। थो‹ड़े से बुखार से ही घबरा जाती थीŸ। थोड़ी सी चोट से ही मेरा मन दहल जाता थाŸ।” शोभिता ने विचलित होते हुए कहाŸ।

अरुण की नियुक्ति एक ब‹ड़े शहर में हो गयी। वह बहू-बेटे सहित वहाँ चला गयाŸ। उसका एक हफ्ते बाद फोन आया वह भी छोटा-साŸ। शोभिता के मन में एक अजाना सा भय व्याप्त हो गया, उनकी सुरक्षा को लेकरŸ।

अगले दिन शोभिता घोंसला देखने छत पर गयी। अण्डे फूट चुके हैं और बच्चे बाहर निकल आये हैं,
लाल सुर्ख रंग पर छोटे-छोटे रोंये निकल रहे हैं, मगर पंख अभी विकसित नहीं हुए हैंŸ। बच्चे अभी उड़ नहीं
सकते, केवल हलचल कर सकते हैं, वह भी घोंसले के अंदरŸ। शोभिता चिड़िया के बच्चों को पहली बार देख रही है और देखकर रोमांचित भी हैŸ। उसने छत पर से ही दिनकर को आवाज़ लगायी, “दिनकर, ऊपर आओ, देखो! कितने सुन्दर बच्चे हैं, चिड़िया केŸ।”
दिनकर ऊपर आ गयाŸ। उसने उन बच्चों को देखा और शोभिता की ओर मुखातिब होकर बोला, “देखो, इन्हें
छूना नहींŸ।”
“क्यों?” शोभिता ने पूछाŸ।
“बहुत नाजुक होते हैं, स्पर्श मात्र से चोट लग सकती हैŸ।” दिनकर बोलाŸ।
कुछ देर बाद दोनों नीचे उतर आयेŸ। उतरते समय दिनकर ने शोभिता को ध्यान से देखा, उसका चेहरा बुझा हुआ पीला-सा प‹ड़ गया हैŸ। वह थकी सी कमजोर लग रही है और धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतर रही हैŸ।
“शोभिता, Šक्या बात है? तुम चिंता मत किया करोŸ।

वे लोग बढ़िया हैंŸ। अब वे छोटे नहीं हैंŸ। उनका अपना एक परिवार हैŸ। वे अब एक दूसरे का ™खयाल रख सकते हैंŸ।” दिनकर ने उसे समझायाŸ। दिनकर की बात सुन वह चुप रही, फिर कहने लगी, “यह मैं भी जानती हूँ कि वे ब‹ड़े हो गये हैं, मगर अभी उनको इतनी अकल नहीं कि अपना ध्यान रख सकेंŸ। उन्हें घर-गृहस्थी के बारे में कोई जानकारी नहींŸ। शुभ्रा और किट्टू कैसे होंगे, चिंता लगी रहती हैŸ।”
“देखो, आवश्यकता और वक्त आदमी को सब सिखा देता हैŸ।” दिनकर की बात सुनकर वह चुप होगयी।
लगभग दस-बारह दिन हो गये, अरुण का फोन नहीं आयाŸ। वह बेचैन दिखी तो दिनकर ने कहा,
“शोभिता, तुम ही उसे फोन कर लोŸ।”
“कहाँ कर लूँ? घर तो फोन लगा नहीं होगाŸ। आफिस में फोन करना अच्छा नहीं लगता और उसे मोबाइल रखना पसंद नहींŸ। अरुण उसे बोझ समझता हैŸ। अब बताओ Šक्या कर लूँŸ।” शोभिता ने उख‹ड़ते हुए कहाŸ।
मुझे भी लगा इस तरह लापरवाह होना ठीक नहींŸ। मैं भी चिन्तातुर हो शोभिता के पास बैठ गयाŸ। दिनकर ने अनुभव किया कि वह उससे चिन्तामुक्त होने के लिए कहे, शायद काम में लग जाने से शोभिता का ध्यान बँट जायेŸ।
“खाना खाओगे Šक्या?” शोभिता ने पूछाŸ। फिर कहने लगी, “दिनकर, ऐसा कुछ हो कि बच्चे कभी ब‹ड़े ही न हों और बच्चे ही बने रहेंŸ। बच्चे बहुत अच्छे होते हैंŸ। मुझे किट्टू की बहुत याद आती हैŸ।”
“अगर बच्चे ब‹ड़े नहीं होंगे तो दुनिया चलेगी कैसे?”
“ठीक कहते होŸ।” कहकर वह चुप हो गयी।
दो दिन बाद अरुण का फोन आया, “पापा, हमलोग ठीक हैंŸ। सब व्यवस्थित हो गया हैŸ। मैं तीन दिन के लिए टूर पर चला गया था, इसलिए फोन नहीं कर सकाŸ। आज ही आया हूँŸ। शुभ्रा और किट्टू भी अच्छे हैंŸ। किट्टू यहाँ के वातावरण का अभ्यस्त होता जा रहा हैŸ।”

उसकी बात पूरी होते ही दिनकर ने कहा, “लो मम्मी से बात करोŸ।” कहकर दिनकर ने फोन शोभिता को पक‹ड़ा दियाŸ। उसकी शिकायतें और चिंता फोन पर व्यक्त होने लगींŸ। अरुण ने उसको समझाया, “मम्मी, आप चिंता मत किया करोŸ। आप जल्दी यहाँ आकर देख लो, तब आप चिन्ता नहीं करोगीŸ।” अरुण की बात सुनकर उसे लगा कि वह दिलासा दे रहा है, इसलिए उसने कहा, “देख! बड़ी बड़ी बातें न करŸ। मुझे मालूम है कि तू कितना निकम्मा और लापरवाह हैŸ।”
“ठीक हैŸ। मम्मी आप आकर बस देख लेनाŸ।” अरुण ने कहाŸ।
“अच्छा, एकाध हफ्ते बाद आऊँगीŸ।” कहकर उसने फोन रख दियाŸ।
वे दोनों काफी देर तक शुभ्रा, किट्टू और अरुण के बारे में बतियाते रहेŸ। जब वे ऊब गये तो दिनकर बोला, “चलो, ऊपर धूप में बैठते हैंŸ।” दोनों उठे और छत पर धूप सेंकने चल दिएŸ। बसंत का मौसम थाŸ। धूप अधिक खिली थी और ठंडी हवा चल रही थीŸ। वातावरण मन में खुशी भर रहा थाŸ। अरुण से बात कर दोनों का मन हल्का हो गया थाŸ। अचानक उनकी नज़र घोंसले पर गयी। चिड़िया के दोनों बच्चे, रेलिंग के ऊपर चहलकदमी कर रहे थे।

उनके शरीर पर पंख दिखने लगे थे और वे थो‹डा उड़ने का प्रयास भी कर रहे थेŸ। चिड़िया उड़-उड़कर मुँह में दाना लेकर वापिस आ जाती और बच्चों के मुँह में दाना डालकर पुनः दाना चुगने उड़ जातीŸ। चिड़िया के बच्चे दाना चुगकर उड़ने का प्रयास करने लगतेŸ। वे थोड़ी देर ऊपर उड़कर फिर नीचे आ घोंसले के पास बैठ जातेŸ। चिड़िया भी वापिस आ उन्हें देखती रहतीŸ। थोड़ी देर बाद फिर उड़ती और दाना लाकर उन्हें चुगातीŸ। चिड़िया और उसके बच्चों की यह उछल-कूद देर तक देखते हुए शोभिता ने दिनकर से कहा, “बच्चे उड़ना सीखने का प्रयास कर रहे हैंŸ।”
“हाँ, उनके पंख निकल आये हैं और अब उन्हें उड़ना ही हैŸ।”
“देखो! कितनी विचित्र बात है, बच्चे पहले थोड़ी देर तक माँ के पीछे उड़ते हैं, फिर वापिस आ जाते हैंŸ।”
“यही उनकी ट्रेनिंग हैŸ।” दिनकर ने कहा तो शोभिता मुस्कुराने लगी और फिर गुमसुम होकर कुछ सोचने लगीŸ। उसकी नज़र फिर से बच्चों पर पड़ी तो बोली, “देखो, कितने ऊपर चले गये; सामने वाली मुंडेर पर बैठ गये हैंŸ। शायद उनमें साहस आ गया है, ऊँचा उड़ने का, और साहस से शक्ति भी, देर तक उड़ने कीŸ।”
“हाँ! प्रकृति ही उन्हें शक्ति देती है, बस प्रयास उनका हैŸ।” दिनकर ने कहाŸ।

वे दोनों उन बच्चों को देखते रहेŸ। चिड़िया दूर मकान पर बैठी रही और बच्चे मुंडेर परŸ। अचानक दोनों बच्चों ने फिर एक उ‹डान भरी... पहला, नहीं दूसरा, तीसरा भी नहीं, चौथा..., नहीं पाँचवें मकान की छत पर, अरे! उस पर भी नहीं, वे तो और आगे उड़ गये... दूर उस पीले मकान की मुंडेर से आगे, आकाश में... आँखों से ओझल हो गयेŸ। शोभिता ने उधर नज़र भर देखा और दिनकर की ओर मुखातिब होकर कहा, “धूप कड़ी हो रही है, चलो नीचे चलते हैंŸ। अब शायद वे बच्चे घोंसले में लौटकर वापिस नहीं आयेंगेŸ।” दोनों जिज्ञासावश घोंसले के पास गएŸ। घोंसला खाली प‹ड़ा थाŸ। उसमें केवल अण्डों के टूटे हुए खोल प‹ड़े थेŸ। वे दोनों नीचे आ गयेŸ। शोभिता कुछ देर सोफे पर बैठी सोचती रही, फिर शान्त स्वर में कहने लगी, “दिनकर,
हमलोग अरुण के पास नहीं जायेंगेŸ। उन्हें अपना जीवन अपनी तरह जीने दोŸ।”
“क्यों?” दिनकर ने पूछाŸ।
“जैसे चिड़िया ने अपने बच्चों को छो‹ड़ दिया आकाश मापने के लिएŸ।” शोभिता ने कहा और चुप हो गयी।

१९ मई २०१४

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