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					 बच्ची 
					को माँ के गर्भ में रहते हुए बीस हफ्ते हो चुके थे! खुद बच्ची 
					को भी दो रोज पहले ही पता चला था कि वो एक बेटी के रूप में 
					जन्म लेगी। बाहरी दुनिया के लिए तो गर्भ एक अंधकारमय जीवन होता 
					है लेकिन बच्ची के लिए नहीं था। हर पल परमेश्वर उसके साथ रहते 
					थे। एक रंगीन, मोहक, कल्पनाओं में खोयी रहने वाली दुनिया में 
					दोनों मस्त रहते थे। 
 प्रभु अपने हाथों से उसका रूप गढ़ते और उसे देख कर मुग्ध हो 
					जाते। कहते हैं दूध में सिंदूर घोल कर प्रभु रचना करते हैं 
					कन्या की। प्रभु अपने दूतों से दूर दूर से कभी सुन्दरता को 
					मँगवाते, कभी कोमलता को और उस बच्ची के शरीर में भर देते। कभी 
					अपने किसी खास बन्दे से कहते कि कोयल की आवाज में जरा सा शहद 
					घोल कर दो। कभी हिरनी से चितवन माँगते, कभी जलते हुए दीपकों से 
					रौशनी लेते और कभी चंद्रमा से उसकी चाँदनी ही माँग लेते। अपने 
					हाथों से वो बच्ची को सजाते। वो बच्ची प्रभु की बड़ी लाडली थी। 
					प्रभु के हाथ जब उस बच्ची के लघु गात को स्पर्श करते तो दिन भर 
					के शांत पड़े समंदर में लहरें मचलने लगतीं, उस बच्ची के नाजुक, 
					मुट्ठी बंद हाथों और कोमल तन को प्रभु निहारते तो उन्हें भी 
					खुद पर गर्व होता।
 
 कभी कभी वो अजीब सी आवाजें सुनती थी और परमेश्वर उसे बताता था 
					कि ये आवाजें उसके होने वाले माता पिता और बाहरी दुनिया से आती 
					हैं बच्ची उत्सुकता से मुस्कराने लगती थी और उसके पीछे पीछे 
					प्रभु भी। प्रभु उसे हर चीज का वर्णन बताते और ये भी कि बाहर 
					जाने पर जब प्रभु उसे नहीं मिलेंगे तो उसके माता पिता मिलेंगे 
					जो उसे प्रभु के समान ही प्यार करेंगे। प्रभु के हाथों से खाना 
					खाने वाली वो बच्ची अपने माता पिता के सपनो में खोई रहने लगी। 
					कभी कभी ज्यादा परेशान हो जाती तो अपनी एक लात चला देती, तब 
					प्रभु समझाते कि इससे माँ को पता चल जाता है कि तुम जाग रही 
					हो। यहीं पर वो रोज सीखती थी सहज प्रवृति के गुण! प्रभु उसे 
					बताते थे कि जब वो पैदा होगी तो माँ उसे अपने सीने से लगा लेगी 
					और किस तरह अपने मुख से उसे अमृतपान करना है, वो अमृत जो उसे 
					इतना मजबूत बना देगा कि आने वाली पूरी जिन्दगी में वो संकटों 
					से लड़ लेगी। प्रभु बताते थे कि पिता का रूप कैसा होता है।
 
					
					प्रभु ने उसे एक लड़की की जिन्दगी की सारी कहानी सुनाई। वो अबोध 
					बाहरी दुनिया के बारे में सोच सोच कर मुग्ध होती रहती थी। सबसे 
					ज्यादा प्यार उत्पन्न हुआ उसके हृदय में अपने पिता के लिए। 
					उनकी गोदी में खेलूँगी मैं! मेरे पिता कैसे होंगे? मुझे कितना 
					प्यार करेंगे? उनकी छाया तले मेरा जीवन विकसित होगा। वो खुद से 
					प्रण करती कि वो अपने पिता का बहुत ख्याल रखेगी। अपने पिता की 
					हर इच्छा को पूरा करने का वचन दिया उसने। जब वो थक हार कर लेटे 
					होंगे तो वो कैसे अपने नन्हें-नन्हें हाथों से उनकी थकान 
					मिटाएगी, उन्हें प्यार से देखेगी। पिता की गोद की याद करते 
					करते उसका वजन बढ़ जाता। प्रभु ने उसे बताया जो काम मैं यहाँ कर 
					रहा हूँ, बाहर उसका पिता करेगा। बच्ची व्याकुल रहने लगी और 
					उसकी अपने माता पिता से मिलने कि उत्सुकता बढ़ने लगी। जो किसी 
					बेटी के पिता हैं वो आजमा के देख लें। एक बार अपनी बीमारी का 
					बहाना करके पता कर लें कि कौन उनके पास रुकता है, मैच खेलने के 
					लिए जाता हुआ बेटा या सहेलियों के घर जाती हुई बेटी? सपूतों की 
					हकीकत आँख के आगे आ कर गिरेगी। 
 आज का दिन उस बच्ची के लिए बहुत खास था, आज उसे पता चला कि 
					उसकी फोटो ली गयी है! प्रभु ने उसे बताया, आज बाहरी दुनिया ने 
					अपनी बनायी हुई मशीनो में उसे निहारा है। उसके माता पिता ने 
					उसकी झलक देखी है कि वो सही है या नहीं। सेहतमंद है कि नहीं। 
					उसे मानव सभ्यता और विज्ञान के विकास पर बहुत गर्व हुआ। उस दिन 
					उसने प्रभु की आँखों में खुद को देखा और अपने सौन्दर्य का 
					अनुभव करके शरमा गयी। यहीं से किसी लड़की में खुद को घंटों शीशे 
					में निहारने का बीज पड़ता है। यही छोटा सा पल आगे चल कर बदल 
					जाता है उस व्याकुलता में जो अपने प्रेमी के आने का इन्तजार 
					करती रहती है और यही पल बनता है वो अमर क्षण जब एक माँ की छाती 
					गीली हो जाती है पता चलते ही कि उसका बच्चा भूखा है। दया, 
					प्रेम,वात्सल्य सारे ईश्वरीय गुण प्रभु ने नारी जाति के लिए रख 
					छोड़े हैं।
 
 लेकिन उस दिन के बाद प्रभु बहुत चिंतित रहने लगे और बच्ची का 
					खास ध्यान रखने लगे। प्रभु ने अब रात को सोना बंद कर दिया और 
					दिन रात उस बच्ची का पहरा देने लगे। एक अजीब सी चिंता ने प्रभु 
					को घेर लिया। प्रभु इस चिंता के मारे सूखने लगे लेकिन कोई 
					समाधान न सूझा ! प्रभु ने कुछ नियम अपने लिए ऐसे बना लिए है कि 
					बाद में खुद ही उनमें फँस कर रह जाते हैं। ऐसा ही एक नियम है 
					मनुष्य को कर्म करने की छूट देने का, उसे ज्ञान का फल चखने की 
					छूट देने का। प्रभु साधारणतया मनुष्य के कर्मों में दखल नहीं 
					देते, हाँ, लेकिन फल पर अधिकार जरूर रखते हैं। पर सिर्फ इतने 
					से ही सारे अपराध नहीं रोके जा सकते। उस दिन के बाद प्रभु ने 
					कभी उसके माता पिता की कोई बात न की। वो बच्ची को बहादुर बनाने 
					का प्रयत्न करने लगे। वो उसे लक्ष्मी बाई और कल्पना चावला के 
					किस्से सुनाते। प्रभु ने उसे बताया कि अगर उसे अपने शरीर में 
					कोई तकलीफ हो तो वो तुरंत उन्हें बता दे। अब तक सपनो में जीने 
					वाली बच्ची बात का मतलब समझ नहीं पाई। प्रभु हिम्मत नहीं कर 
					सके कि अब तक उसके पिता का गुणगान करने वाले वो खुद कैसे उस 
					बच्ची को बताये कि उसके प्यारे पिता ने क्या फैसला लिया है। 
					नारी तो समंदर की गहराई जान लेती है, वो बच्ची भी तो एक नारी 
					ही थी, प्रभु कब तक बचे रहते उसकी नजरों से? उसने पूछ लिया 
					परमपिता से एक दिन उस चिंता का राज! कब तक टालते! प्रभु ने कहा 
					कि उसके पिता अच्छे नहीं हैं और उसे मारना चाहते हैं। उस दिन 
					उस बच्ची का चेहरा तमतमा गया और उसकी आँखे लाल हो गईं। वो अपने 
					पिता की प्रसंशा करती है तो प्रभु से सुना नहीं गया, इतनी जलन! 
					धिक्कार है! उसने प्रभु को धक्के मारकर अपने घर से बाहर निकल 
					दिया। बच्ची ने मन में सोचा कि अब वो कभी प्रभु को याद नहीं 
					करेगी। काश वो अंतर्यामी की बात समझ जाती तो क्या कुछ नहीं बदल 
					जाता, संसार बदल जाता, भाग्य बदल जाता और ये कहानी भी बदल 
					जाती। पिता के प्रेम के आगे उसने प्रभु को कुछ नहीं माना।
 
 कुछ दिन बीत गए, अब वो अकेली थी लेकिन उसने फिर कभी प्रभु को 
					याद नहीं किया। वो गर्भनाल से मिलने वाले खाने से अपना पेट 
					भरती थी। एक दिन उसे वो खाना अच्छा नहीं लगा, उसके आस पास कुछ 
					अजीब सी हलचल हो रही थी। आराम देने वाला गर्मी भरा वातावरण आज 
					कुछ ठंडा हो चला था। उसे लगा कुछ लोग उसे जबरदस्ती माँ से अलग 
					करना कहते थे। उसका घर छीनना कहते थे। उसने बड़े जोर से घर की 
					दीवारें पकड़ लीं। वातावरण में अजीब सा जहरीला द्रव भर गया, उसे 
					लगा ये द्रव उसके शरीर को गला रहा है। उसकी उँगलियाँ, उसके 
					केश, उसके नाखून उस द्रव में घुलते जा रहे हैं। उसने पिता को 
					आवाज देनी चाही, हा पिता! हा पिता! उस भाषा को कौन समझता! कोई 
					आदि काल का कवि होता तो यहाँ लिखता कि उस बच्ची के कहे उन दो 
					शब्दों ने वियोग और करुण रस को जन्म दिया था। प्रभु की सुनाई 
					साहस भरी कहानियों का परिणाम था कि उसने हिम्मत न हारी। अपने 
					बंद मुट्ठी वाले नन्हें हाथों से वो उस जहरीले द्रव को उलीचती 
					जाती थी और जितना उलीचती थी उतना ही वो द्रव एक अजगर कि भाँति 
					अपनी कुंडली को और सघन कर देता था। आज उस बच्ची के लिए वो 
					प्राण बचाने की लड़ाई थी, उसके लिए पिता के दर्शन की लड़ाई थी, 
					जिसके लिए इतने सपने देखे उसे बिना देखे कैसे चली जाये! जहर 
					कहता था कि उसे ले कर जाना है और बच्ची की हिम्मत कहती थी कि 
					उसे जन्म लेना है इस संसार में! जहर एक पल में अपना फन फैला कर 
					आक्रमण करता तो बच्ची के शरीर कि हलचल अगले ही पल उस फन से उलझ 
					जाती। मौत दो कदम आगे चलती तो जिन्दगी चार कदम उसे पीछे 
					धकेलती।
 
 मैं कहता हूँ, ओ अर्जुन, अभिमन्यु ,अरे दुनिया के बलशाली 
					महापुरुषों आओ और शर्म से पानी पानी हो जाओ! बताओ कभी लड़ी है 
					ऐसी लड़ाई, इतनी छोटी सी उम्र में, अकेले, बंद मुट्ठी से और 
					अपने ही लोगों के विरुद्ध! अगर नहीं, तो जाओ और फिर कभी युद्ध 
					न करना!
 
 बच्ची की लड़ाई निरंतर जारी थी। यहाँ तक कि उसका शरीर गलने लग 
					गया। ये उसकी आत्मा का जोर था, ये उसकी माता पिता से मिलने की 
					इच्छा का बल था और ये उस स्वाभाविक प्रवृति का बल था जिसे लोग 
					दुर्गा कह कर पूजते हैं कि उँगलियाँ गल गईं, पर अपनी माँ की 
					कोख से छूटी नहीं! लेकिन कहते हैं जिसका साथ प्रभु छोड़ गए 
					उसका साथ भाग्य कैसे दे? एक अजन्मी बच्ची कब तक लडती, कोई तो न 
					था जो उन पलों में उसका हाथ थाम कर उस भँवर से निकाल लेता! 
					बुरे वक्त में सबके साथ रहने वाला परमपिता नहीं था। जिसके 
					सपनों में खोयी रहती थी वो माता पिता नहीं थे। जहर हावी होने 
					लगा, बच्ची के मन में पल रही जीने की इच्छा इन रासायनिक 
					समीकरणों से कब तक लडती! दो मुट्ठी बंद हाथों से वो इस दुनिया 
					के पहाड़ जैसे प्रयत्नों को कब तक रोकती! उस हार से उत्पन्न 
					निराशा और बेबसी का बखान मैं नहीं कर सकता, फिर भी बच्ची ने 
					आखिरी कोशिश की और अहोभाग्य, मुख से इस बार पिता न निकला बल्कि 
					परम पिता निकला। इतनी करुण आवाज पर तो शुक्राचार्य से शिक्षा 
					पाए हुए दुष्ट राक्षस दौड़े आते तो प्रभु क्या चीज थे।
 
 प्रभु अपनी अजन्मी बच्ची के सम्मुख आ गए। उनसे उसकी हालत देखी 
					न गयी। बच्ची के अपने प्रभु को देख कर आँसू निकल पड़े। उसे वो 
					पल याद आ गया जब उसने धक्के मार मार कर प्रभु को अपने से दूर 
					कर दिया था। उसने कातर नजरों से प्रभु को देखा। दो-दो मोती छलक 
					पड़े दोनों ओर से। अरे दुनिया के सबसे महान कवियों तुम सब मिल 
					कर भी अपनी विद्या और भावों को घोल कर कोई एक ही कविता पूरी 
					एकजुटता से बनाओ तो भी काव्य की तराजू में वो उन चार मोतियों 
					से हलकी पड़ेगी! कठोर से कठोर हृदय भी आज उस बच्ची को अपने 
					प्रभु से नजरें मिलाते देख लेता तो इतना रोता कि थार मरुस्थल 
					पर आज लहलहाते खेत होते। हाँ, इस पूरी दुनिया में न रोते तो वो 
					चार नयन जिन्होंने कभी मस्ती के कुछ पलों में इस अबोध की नींव 
					रखी थी। एक अभागी इमारत की नींव जो शायद बन पाती तो सबसे 
					सुन्दर होती!
 
 बच्ची के होंठ तो न हिले पर एक प्रश्न जरूर निकला। ये क्यों 
					हुआ प्रभु? प्रभु क्या बोलते? कुछ प्रश्न इतने जटिल होते हैं 
					कि उनका उत्तर प्रभु को भी नहीं सूझता। सोचते रहे क्या जवाब 
					दें? हिम्मत कर के बोले, बेटी तुम्हें कहा था न कि तुम्हारे 
					पिता नहीं चाहते कि तुम जन्म लो! उन्होंने तुम्हे मारने के 
					प्रबंध किये हैं। ये वो झटका था कि दुनिया के बड़े से बड़े 
					दिलेर को लग जाये तो क्षण के सौंवें हिस्से में ही हृदयगति 
					रुकने से परलोक वासी हो जाये! आज पहली बार बच्ची ने जाना कि 
					क्षितिज को एकटक देखना क्या होता है। वही तो एक ऐसा किनारा है 
					जहाँ हमें कभी कभी सदियों के अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर 
					मिलते हैं। बच्ची के चेहरे पर छाया अब तक का असमंजस और रुदन एक 
					कटु मुस्कान में बदल गया। कभी कभी कोई इतना बड़ा घाव बन जाता 
					है जिसके आगे सब दुःख बौने पड़ जाते हैं। वो छोटी सी कली इस 
					दुःख को सह गयी और आँखें बंद कर लीं। प्रभु आगे बोले तू अभी भी 
					बच सकती है, उसका भी एक विधान मैंने बनाया है। बस एक बार कह दे 
					मेरी आँखों में आँखों में डाल कर कि तू जीना चाहती है। बच्ची 
					ने कहा, नहीं प्रभु, मैं अब जीना नहीं चाहती। पकड़ छूट गयी, 
					पिता से मिलने की इच्छा ने दम तोड़ दिया। जहर को अपनी जीत पर 
					मुस्काने का मौका मिल गया। जब उन टुकड़ों को बाँधने वाली इच्छा 
					ही नहीं रही तो कोई क्या करता! सबसे अंत में जहर ने नन्हें से 
					दिल को हिलाया तो एक हलकी सी दर्द भरी लेकिन ज़माने को झुकाने 
					वाली आह निकली जो पता नहीं अन्तरिक्ष में कहाँ तक गयी होगी 
					लेकिन उस आह ने जहर को इतना शर्मिंदा कर दिया कि फिर उसने माँ 
					को कोई नुकसान न पहुँचाया। स्वर्ण निर्मित उसके शरीर के टुकड़े 
					माँ के मिटटी के पुतले से बाहर आ गये। दूध और सिंदूर अलग अलग 
					हो गए और एक चमकती हुई रूह हवा मैं तैरती हुई प्रभु की ओर उड़ 
					चली। जब हवा में चली तो उसके सपने, उसकी कामनाएँ, उसकी इच्छाएँ 
					सब यहीं धरा पर गिरता चला गया और आत्मा पर उग आये बादलों जैसे 
					सफ़ेद पंख! जैसे जैसे वो आसमान में ऊपर उठने लगी वैसे वैसे धरती 
					के लोगों का कद घटने लगा।
 
 प्रभु ने एक नजर उसकी तरफ देखा और अपने आगोश में ले लिया। 
					बच्ची ने अपना चेहरा प्रभु के सीने में छुपा लिया। उनके संसार 
					में एक मौन छा गया। शास्वत मौन! इसलिए कहते हैं कि मौन शब्द से 
					बड़ा होता है! एक ऐसा मौन जिसे गूँगा कह सकता है, अँधा देख 
					सकता है, बहरा सुन सकता है और लँगड़ा चल सकता है। ऐसे ही मौन के 
					पलों में ये
  विधाता 
					संसार गढ़ता है और मिटाता भी है। काफी देर शांत रहकर प्रभु ने 
					फिर इस मौन को विदा किया। बेटी तुम अपनी एक हाँ से जी सकती थी 
					फिर मना क्यों कर दिया? बच्ची ने बिना ऊपर देखे हलके से कहा, 
					पिता की हर इच्छा को पूरी करने का वचन दे चुकी थी फिर उनका ये 
					प्रयास असफल कैसे होने देती! प्रभु ने उसे गोदी से उठा कर सिर 
					पर बिठा लिया! उस दिन प्रभु बहुत रोये। 
 कहते हैं पूरे सात दिन तक बिना रुके बरसात हुई। समझदार लोगों 
					ने कहा मानसून औसत से अच्छा है। इस बार फसल बढ़िया होगी।
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