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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से विपिन जैन की कहानी— 'पिंजरे में बंद तोते'


दिसंबर महीने के आख़िरी दिन बीत रहे थे। हर दिन की सुबह कंपकपी भरी ठंड और धुंध में लिपटी होती थी। दिन निकलने के बहुत देर बाद सूरज का चेहरा कमज़ोर मगर मीठी–सी धूप लिए दिखलाई देता था। उस धूप के गुनगुने स्पर्श के लिए बाहर आँगन में या बालकनी में निकल आते थे। खुली छत के मकान वाले छत की ओर लपकते और उस धूप में नहाते थे।

ऐसे ही दिनों की एक सुबह मैं बालकनी में बैठा अखबार सामने खोले बैठा था। अखबार की खबरों को पढ़ने से उचटकर मेरी निगाहें बार–बार अपने पड़ोसी मनचंदा के मकान के आगे खड़े एक ट्रक पर जा रही थी जिसमें उनके घर का समान दूसरी जगह शिफ्ट किए जाने के लिए भरा जा रहा था। ट्रक सामान लेकर दूसरी जगह के एक–दो चक्कर भी लगा चुका था। इस बार का चक्कर अंतिम ही जान पड़ रहा था। क्योंकि अब उसमें घर का फालतू–सा माना जाने वाला सामान ही अधिक रखा जा रहा था। मिसेज मनचंदा उसकी बहू व बेटी बच्चों के साथ छोटी–छोटी चीज़ों को अंदर से बाहर ला रहे थे। एक नौकर भी उनके साथ लगा हुआ था। मिसेज मनचंदा की चौकस और खोजती निगाहें घर के हर कोने में घूम रही थी। साथ–साथ आवाज भी घूमती सुनाई देती थी – "पुत्तर, सारी जगहाँ चंगी तरह देख लेना। किदरे कुछ छुट ना जावे!"
सामान के अलावा उस जगह वे लोग क्या छोड़ या साथ लिए जा रहे थे, इस अहसास की कोई छाया किसी के चेहरे पर नहीं थी।

छुट्टी का दिन होने के कारण अधिकांश घरों के लोग धूप की सेंक में कमरों से बाहर ही बैठे थे, पर मनचंदा परिवार के जाने के प्रति थोड़ी–सी भी गर्मी किसी के अंदर उस ठंडे, निर्जीव–से निजी वातावरण में नहीं उपजी थी। उनके घर का गेट पहली बार पूरी तरह खुला हुआ था। पालतू कुत्तों की गुर्राहट अपना डर दूसरी जगह ले गई थी। घर के सभी लोग एक साथ सामान चढ़वाने में जुटे थे।

कोई आँख उधर देखने को खिड़की पर नहीं थी। कोई कान उस तरफ़ नहीं लगा हुआ था। यों हमारी नई बनी इस कॉलोनी में कस्बाई या छोटे शहरों की मानसिकता में जीते लोग ही इस बात के लिए उत्सुक होते हैं कि आसपास कोई नया व्यक्ति आ रहा है या कोई परिचित कहीं और रहने जा रहा है, ऐसे मन को साथ लिए भी हम आस–पड़ोस वाले दूर खड़े भी बाहर नहीं देख रहे थे।

उनके जाने को देख–सोचकर मेरे मन में चलते समय मिल लेने की इच्छा जगी थी। अपने आपसे मैं कहने लगा था– 'उनके और हमारे बीच कैसा भी व्यवहार और साथ रहना रहा हो एक पड़ोसी का नाता तो रहा ही है। हम एक–दूसरे को देखकर मुस्कराए या बोले न हों, कभी दुख–सुख की बात न पूछी हो, देखते और पहचानते तो रहे हैं! दूसरे कोई झगड़ा और दुश्मनी भी हमारे बीच नहीं है!'
अपनी इस इच्छा की सुगबुगाहट के दबाव में मैंने मंजरी को आवाज देकर बुलाया–
"मंजरी, सुनो! ये लोग जाने वाले हैं फिर किस–किससे मिलना है? चलते समय एक बार मिल लेते हैं। कुछ काम दूसरों के संतोष के लिए दिखलावे को भी करने पड़ते हैं।"

मेरी बात सुनने के साथ ही वह बिगड़ उठी थी और आवेश में भरकर बोलने लगी, "किन घटिया और निकम्मे लोगों से मिल आने को कह रहे हो। अरे कोई झगड़ालू परिवार भी होता तो गिला–शिकवा दूर कर लेते। ये तो पत्थर न मिट्टी पास रहने भर से ही कोई पड़ोसी नहीं हो जाता। व्यवहार और समझ से होता है आदमी को आदमी की जरूरत अभी खत्म नहीं हुई है। सड़क पर चोट खाए व्यक्ति को देखकर पचासों लोग आगे बढ़ आते हैं। जब कोई मतलब रहा न वास्ता, फिर कैसा नाता! कैसा दिखावा? उन लोगों के चेहरे भी तो पढ़ो किसी को भी यहाँ रहने और जाने का थोड़ा–सा भी अहसास है! फिर औरों को क्यों हो? अच्छा है, कूड़ा साफ़ हो रहा है। कोई और आएगा यहाँ रहने! मकान तो खाली नहीं रहेगा। तुम्हें मिलना हो तो मिल लो! मेरे अंदर कोई तड़प नहीं है।"
उनसे मिल लेने की अधूरी–सी इच्छा को मंजरी ने मार दिया था।

मेरे सामने उन दिनों के चित्र घूमने लगे थे जब ये लोग यहाँ रहने दो साल पहले आए थे। आने के पहले दिन मंजरी हल्की–सी खुशी की लहर और उत्साह से भर आई थी। क्योंकि बरसों से अधबना और खाली मकान भय की चुभन पैदा करने लगा था। उसकी कल्पना में सुखद साथ तैर आया था और वह बोली थी, "सुनो, यह तो अच्छा हो गया। अपना पड़ोस भरा दिखलाई देगा। सुबह शाम छत पर या दरवाज़े पर खड़े बोलने–बतियाने को कोई मिल जाएगा। सारे दिन अंदर पड़े–पड़े ऐसी ऊब पैदा होती है कि मन शाम को कहीं दूर भाग जाने को हो जाता है। कैसा भी आदमी हो, अपने अच्छे बर्ताव से सब अच्छे हो जाते हैं।"
मंजरी के साथ–साथ बच्चे भी साथ खेलने को लेकर उमंगित–से थे।

एक बड़े ट्रक से उनका सामान उतरकर अंदर पहुँचने लगा था और समान के साथ सारे लोग अंदर बंद हो गए थे। उनकी ओर देखती कई जोड़ी आँखें उनके बेरुखे व्यवहार की धूल से मिचमिचाई विस्मय की किरकिरी से भर गई थी। कई बुझे दिलों से बोल फूटे–
"बड़े अजीब रूखे लोग हैं, ना किसी से दुआ ना सलाम। ऐसे अंदर जाकर घुस गए हैं जैसे जंगल में या दुश्मनों के बीच मजबूरी में रहने आए हों। ऐसा तो पहले किसी को देखा नहीं! नकचढ़े और बददिमाग़ लोग भी मुस्कान फैलाकर दो–चार पड़ोस वालों से पहली बार मिल लेते हैं, थोड़ा–बहुत जान–बूझ लेते हैं।"

बच्चों का उमंग–भरा मन मुरझा गया था। मंजरी के उत्साह और खुशी पर भी पानी फिर गया था। वक्र हँसी से वह बोली थी–
"सारे एक तबले की थाप पर नाचने–कूदने वाले दिखते हैं। घर में इतनी जल्दी घुस गए जैसे डर रहे हों कि पड़ोसी पूंछ पकड़ लेंगे। सबसे बड़ा आश्चर्य है कि किसी भी बंदे की निगाह अलग नहीं घूमी। औरतों को थोड़ी–बहुत पड़ोस की गरज होती है। अधिकतर घर में रहती है, इसलिए। आजकल यों भी बिना कारण और बिना मतलब मिलना–जुलना खत्म हो गया है। हमें ही किसी से क्या लेना–देना! खुद ठीक तरह बोलेंगे, तो बोल लेंगे, नहीं तो पड़े रहे अपनी–अपनी खोह में।"

मंजरी के अलावा भी कुछ मिलनसार और मुखर कहे जाने वाले दूसरे पड़ोसी लोग भी अपनी–अपनी प्रतिक्रिया को प्रकट करने से नहीं चूके थे। सामने रहने वाले गुप्ता जी उनके भेद–भरे ढंग का रहस्य सिर–हिलाकर कहने लगे थे।
"मामला गड़बड़ी का लग रहा है। लगता है, ये लोग कहीं से लाखों–करोड़ों रुपया मारकर लाए हैं। आजकल यह काम भी खूब हो रहा है कि लोगों को तरह–तरह के लोभ–लालच में फँसाओ फिर पैसा इकठ्ठा करके चंपत हो जाओ! भला ऐसा कहीं होता है कि जिन लोगों के बीच कोई चौबीसों घंटे रहने को आए और उनकी तरफ़ नजर उठाकर भी न देखे। होटलों में भी पास रहने वाले पर निगाह चली ही जाती है। ये जरूर अपने आपको छिपाकर रखना चाहते हैं। उनके अपेक्षित व अपूर्व व्यवहार की बातें दूसरे लोगों के बीच चली कुछ खुली तो कुछ कानाफूसियों की तरह। फिर सब उनकी ओर ध्यान से बेध्यान–से रहने लगे थे।

मनचंदा परिवार सबके देखने–सोचने से दूर अपने मकान में रहने लगा था। रह के साथ ही उन्होंने अधबने–से मकान को ठीक कराकर चमकाना, दमकाना शुरू कर दिया था। मकान कुछ दिनों में कोठी की शक्ल में आ गया था। बाहर लगा रेलिंग का गेट चौड़ा और ऊँचा हो गया था। जिस पर एक बोर्ड टंग गया था। उस पर लिखा था – 'कुत्तों से सावधान' रेलिंग का यह गेट अधिकतर बंद ही रहता था। उसके पीछे विदेशी नस्ल के दो खूँखार, भयावह–से दिखने वाले कुत्ते घूमते रहते थे। गेट के पीछे परिवार का कोई छोटा–बड़ा व्यक्ति चाहे नजर न आए, कुत्तों की गुर्राहट व भौंकने की आवाज़ें आसपास डर की लहरें पैदा करती रहती थी। पड़ोस के घरों के बच्चे जब कभी गेट के पास इकठ्ठा होते तो आपस में होड़ करते कि किसे दोनो कुत्ते पहचानने लगे हैं और उसे देख भौंकते नहीं है। घर में से किसी के भी न बाहर से आने का पता चलता था न जाने का। दूसरे मिलने आने वालों की संख्या नगण्य ही थी, सारा मकान रहस्यमय–सी खामोशी में डूबा दिखलाई देता था। किसी के भी पुकारने या कोई नाम लेकर बुलाने के शब्द चारदीवारी के पार नहीं होते थे। ऊँची आवाज तो शायद कमरों ने भी कभी न सुनी हों। अबूझ–सी इस जीवन शैली ने पास–पड़ोस के लोगों की उनके प्रति दिलचस्पी खत्म–सी कर दी थी। धीरे–धीरे लोग इस मूड में आ गए थे कि जब उन्हें ही कोई गरज नहीं तो हमें ही क्यों हो। न अदावत न मोहब्बत। रुखाई ने उनके प्रति उत्सुकता के सारे दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद कर दी थी। बुरा कहने के साथ लोग यह भी मलाल करने लगे कि वे लोग बाहर निकलकर यह देखना भी गवारा नहीं करते कि कुत्ते बराबर क्यों भौंक रहे हैं!

मनचंदा और उसकी घरवाली यों तो अलग स्वभाव और आदतों से बँधे दिखते थे पर घर के मामलों में एक ही लय और ताल में निबद्ध लगते थे। मनचंदानी दिनभर जितनी बड़बड़ और तनाव को चेहरे पर चिपकाए रहती थी। मनचंदा उतना ही शांत, सपाट और भावशून्य चेहरे का आदमी लगता था। मनचंदानी के विरुद्ध उसके चेहरे पर गुस्से या मोह का भाव भी शायद किसी कोने ने देखा हो। जैसे कोई चीज अधिक छिपी–दबी रहे तो उसे देखने की इच्छा बलवती हो जाती है। मंजरी भी उनके व्यवहार की असहजता के कारण हर रोज उनके कमीनेपन वाली कोई बुरी बात पकड़ने लगी थीं। उनके बारे में बतलाते हुए वह ऐसे बोलती थी जैसे कि तिलिस्म या भेद–भरे रहस्य पर से परदा उठा रही हो। कभी शांत स्वर में बतलाती तो कभी गुस्से और रोष से भरी होती थी। मैं ऐसे ढंग से सुनता था कि जैसे कहता हूं कि अरे जब ये लोग है ही ऐसे तो इनके बारे में क्या कहना–सुनना! हमें क्या लेना–देना! मंजरी फिर भी कुछ न कुछ एकत्र कर ही लेती थी।
एक दिन ऑफिस से लौटने पर उसका गुस्सा उफ़ान पर पाया था –बिना भूमिका वह कहने लगी थी–
"ये मनचंदानी, कमीनी है क्या? अपने को जाने क्या समझती है? ये तो इधर देखती भी है तो आँखें चढ़ाकर। पर झगड़ा करने में आगे है। मैंने चुप लगा ली, नहीं तो बात बढ़ जाती। औरतों ने उसकी ओर देखना भी छोड़ दिया है फिर भी अपने किए से बाज न आई। और किसी पर पार न पाया तो बच्चों की क्रिकेट की गेंद पर खुन्नस उतार दी। गली में खेलते बच्चों की रबर की गेंद उसके घर में क्या गिर गई? गेंद माँगी तो चुड़ैल ने चाकू से गोदकर कूड़ेदान में डाल दी। क्या इनके बच्चे बाहर नहीं खेलेंगे? तब देखूँगी गेंद कहाँ जाकर गिरती है? जाने कैसे–कैसे लोग इस धरती पर बसते हैं!"

मनचंदा परिवार के बारे में आए दिन कोई न कोई नई बात सुनकर मेरा ध्यान सहज ही उधर जाने लगा था। घर के अंदर सारे लोग भले ही आपस में कटे–कटे या बिखरे रहते हों, पर बाहरी तौर पर जुड़ाव उनके बीच रहता था। एक हँसे तो दूसरा हँसता था। एक चले तो दूसरा हिलता। एक नजर उठाए तो दूसरा देखता था। सारे परिवार का सोने और जागने का समय एक था। मशीन की तरह अपने काम से जुड़ने का समय एक जैसा ही था। सब जैसे बटन दबते ही अपने–अपने चक्र में घूमने लगते हों। बड़ा लड़का सवेरे–सवेरे दुकान खोलने के लिए घर से चल देता था। थोड़ी देर बाद मनचंदानी बच्चों के साथ उस स्कूल के लिए चल देती थी, जहाँ वह मास्टरनी थी। आठ बजे के आसपास मनचंदा भी अपने स्कूटर पर एक बड़े टिफिन के साथ घर से निकल पड़ता था। उसके बाद बहू और बेटी मिलकर सारे घर की सफ़ाई में जुट जाती थीं। फिर ढेर सारे कपड़े धोकर छत पर सूखने को फैला आती थी। कामों से निबटकर दोपहर तक के लिए टी .वी .के साथ अपने–अपने कमरों में बंद हो जाती थी। दोनों के बीच बराबर एक तरह का अबोलापन बना रहता था। दोनों न हँसती न बोलती थीं। बस काम में जुटी अपने–अपने हिस्से का काम पूरा कर सांस लेती थीं। दोनों के बीच झगड़ा भी नहीं होता था। पर सहयोग पूरा था।

दोपहर को मनचंदानी आती तो घर में थोड़ी हरकत होती, फिर शाम तक लिए सन्नाटे की चादर बिछ जाती थी। और एक लंबी ऊँघ पूरे मकान पर खिंचकर फैली जाती थी। बहू और बेटी के बंदिनी–से जीवन ने मेरे अंदर कुछ सवाल उगा दिए थे, जिनका जवाब मैंने मंजरी से ही पाया था। मेरे सवाल पर वह हँसी थी और बोली थी– "क्या बात है? तुम्हें क्यों उनका दर्द परेशान कर रहा है? यह घर तो मनचंदानी के हाथ में पकड़ा हुआ पिंजरा है। घर के लोग उस पिंजरे में बंद गूँगे तोते हैं। जिनके गले में मनचंदानी के जले हुए ही कुछ शब्द पड़े रहते हैं किसी के भी पास न अपनी कोई आवाज है न चेहरा है और न मन। हर कोई अपने–अपने दाने–पानी पर दम साधे सहमा सिमटा बैठा हुआ है। बेटी, जिसका पति उसे छोड़कर अज्ञात जगह चला गया, अपने दो छोटे बच्चों के साथ माँ के आँचल की छाया में आ बैठी है। उसने अपने पैरों से चलकर आत्मनिर्भरता की किसी और मंज़िल को नहीं तलाशा। उनके मन की रेत की आँधियाँ उसे असामान्य बनाती है। बहू विवशता, खामोशी की उदास तस्वीर नजर आती है। उसके चेहरे पर पत्नी जैसा न गौरव है न दुख–सुख है न संतुष्टी। उसकी उमंगों और इच्छाओं ने घर की चौखट पारकर बाहर निकलना ही नहीं जाना है। पति के साथ खड़े होकर अपने सपनों और चाहतों के आसमान को शायद ही कभी निहारा हो। उसके पति की दुनिया तो दुकान का हिसाब–किताब ही है। बाप और बेटे दोनों घर से दुकान के बीच का ही रास्ता जानते हैं। पास पड़ोस की धड़कन इनके दिल में नहीं उतरती। किसी भी रिश्तेदार से संपर्क संवाद का कोई सूत्र नहीं दिखलाई देता। होली का रंग और दिवाली का प्रकाश इनके घर की चारदीवारी में ही बिखरता है। ये तो ऐसे ही है जैसे इनके 'पिंजरे के तोते!'

'पिंजरे के तोते!' पिंजरे और तोतों की नई बात सुन मेरे माथे पर हल्के से विस्मय भरी रेखा खिंच आई थी। मेरे विस्मय को भाँप वह हँसने लगी थी। और फिर बोलने लगी–
"मनचंदानी ने घर के पिछवाड़े की तरफ़ एक पिंजरा भी टाँग रखा है, जिसमें दोनों तोते बंद रहते हैं। तोते यों तो सारा दिन निश्चिंत भाव से चुप बैठे रहते हैं पर कभी भूखे रह जाए तो रात को चीं–चीं कर चीखते हैं तोते तो खूब रट्टू होते हैं पर कुछ नहीं बोलते। न राम–राम, न श्याम–श्याम! दुआ न सलाम, बस नींद और आराम। ये मनचंदानी के पाले तोते। उन्हें उसने बोलना ही नहीं सिखलाया।"

उसके बाद से अंदर आते या बाहर निकलते हुए अनायास ही मेरी निगाहें बीच की साझी दीवार के उस तरफ़ जाने लगी थीं, जहाँ एक पिंजरे में दो तोते उदासीन और आँखें बंद किए बैठे रहते थे। कभी–कभी मेरा मन थोड़ा रुककर तोतों को छेड़ने को भी होता था। जी में आता कि 'मिठ्ठू' बुलाकर या सीटी बजाकर उनकी तंद्रा भंग करूं। मैं दबी–सी कोशिश भी करता था पर तोते मेरी मौजूदगी और आवाज से बेखबर निर्लिप्त बैठे रहते थे। किसी भी तरह की फड़फड़ाहट उनमें पैदा हुई नहीं दिखती थी। मैं चाहता था, हाथ बढ़ाकर पिंजरे का गेट खोल दूं और तोतों को उड़ता या जमीन पर चलते–फुदकते देखूँ पर तोते तो गर्दन ही नहीं घुमाते थे। खूँखार कुत्तों के साथ तोतों का पालने का उनका शौक अजीब–सा ही मुझे लगा था। मनचंदानी तोतों का खूब ख्याल रखती थी। सुबह पिंजरा धोना, दाना, पानी, खाना, फिर तोतों को बच्चों की तरह डाँटना, डपटना, बोलना, समझना वह बिना नागा खुद ही करती थी।

मनचंदानी और उनके परिवार के बारे में धीरे–धीरे हमारी उत्सुकता और बातें मन के सूने कोनों में पड़ी सुप्त होती जा रही थीं। उनकी आदतों, रहन–सहन, सोचने–समझने से हमारा सरोकार उन तक ही छोड़ देने तक ही रह गया था। एक शाम मंजरी ने नया रहस्योदघाटन किया–
"सुनो, ये लोग तो अब यहाँ से मकान बेचकर कहीं और जाने वाले हैं। आए दिन प्रापर्टी डीलर उनके यहाँ खरीददार लेकर आने लगे हैं। मनचंदानी यों तो हम लोगों को देखना तो दूर, हमारा ख्.याल भी दिल–दिमाग़ में नहीं आने देती पर जब कोई मकान देखने आता है तो कोई देखे या न देखे, हर तरफ़ ऐसे देखती है जैसे उसकी मुस्कराहट हमेशा ही हमारी ओर बहती रहती हो। मैंने तो सुना है, ये लोग हर दूसरे–तीसरे साल कोई अधबना या टूटा–फूटा मकान सस्ते दाम खरीदते हैं, उसमें पैसा लगाकर रहने लायक कर लेते हैं फिर दो–तीन साल रहकर अच्छे दाम बेच देते हैं। इस तरह दस–बारह जगह अब तक बदल चुके हैं। पास–पड़ोस से जान–बूझकर झगड़ा–टंटा बनाए रखते हैं ताकि उनकी बेवजह की पूछताछ और जगह छोड़ने की वजह के जवाब से बचे रहें। इसलिए आज तक कोई पड़ोसी इनका घनिष्ठ हुआ ही नहीं। यहाँ भी तो हमने भी किसी को आते नहीं देखा।"

मंजरी के यह बात बतलाने के बाद मैंने महसूस किया था कि उनके यहाँ महीनों किसी के आने की आहट न होने के बावजूद पिछले कई विवाद से कोई न कोई परिवार आने लगा था। मनचंदा उस दिन दुकान पर न जाकर घर ही थोड़े समय के लिए रहता था। दोनों दंपत्ति सम–साझी मुस्कान और कदम बढ़ाकर आने वालों का गेट तक आकर स्वागत करते थे। फिर संबंधियों की तरह विदा करते थे। अक्सर प्रापर्टी डीलर अपनी अलग कार में साथ होता था। खरीदारों के सामने दोनों पास–पड़ोस अच्छा और मिलनसार होने के इशारे और बातें हवा में फेंकते थे पर मनचंदानी की बड़बड़ाहट कहती थी – "यहाँ से अब जाना ही होगा। पास–पड़ोस चंगा न हो तो रहना मुश्किल होता है।"

मकान के बेचे जाने की खबर पाकर कॉलोनी के कुछ लोग भी खरीदने को उत्सुक हो गए थे क्योंकि वे पुरानी खरीद की कीमत से आगे बढ़ रहे थे। पर अब मनचंदा या उसकी घरवाली एक दूसरे के मुंह से अच्छी बढ़ी कीमत निकलवाकर उन्हें पीछे कर रहे थे। बातें चलते एक दिन एक कान से दूसरे कान यह खबर फैल गई थी कि उनके मकान का सौदा अच्छी कीमत पर हो गया है। किसी बाहर की पार्टी को उसने पटा लिया है और दो लाख से ऊपर रुपया उसने कमा लिया है। उसके उस धंधे पर कुछ लोगों के दिलों में ईष्र्या और जलन ने भी अपने पैर फैलाए। मुंह से निकला– 'साला है बड़ा काइयाँ चालू और खुश्क आदमी! लिहाज को तो पास भी नहीं फटकने देता!'

इसके बाद उनके किस्सों और बातों पर भी विराम लग गया। कुछ लोग अपने व्यवहार से दूसरे के लिए अनसमझे–से ही रह जाते हैं। उनके व्यवहार की बातें दूर होने पर उन्हीं के साथ चली जाती है। दूसरे क्या, वे खुद भी इन बातों को जान–समझ नहीं पाते। मनचंदा परिवार भी अपने लिए कुछ समझा और कुछ अनसमझा–सा होकर रह गया था।

बालकनी में बैठे–बैठे उनके दो साल के पड़ोस प्रवास के दिनों के अनेकों चित्र मेरी आँखों के आगे से घूम गए थे। सारी बातों और प्रकरणों से अलग बार–बार मेरे मन में यही भाव उभरता रहा कि कोई भी व्यक्ति ऐसे निरपेक्ष भाव से कैसे रह लेता है?

ट्रक की तेज होती घुर्र–घुर्र की आवाज बता रही थी कि ट्रक चलने वाला है। ट्रक को सरकते देखकर गर्दन उठाकर मैंने उधर नजर घुमाई तो समान से फिसलकर मेरी निगाह किनारे की ओर गई। मुझे देखता पाकर बच्चों ने हाथ हिलाकर 'बाय अंकल' कहा। उनकी भीगी मुस्कान से मेरा हाथ भी ऊपर उठ गया था। बच्चों के पास ही एक बड़ा–सा संदूक रखा था जिस पर मनचंदा की बेटी और बहू चुप्पी साधे, विमूढ़ भावहीन मुख लिए बैठी थी। उनके पास ही पड़े पिंजरे में दोनों तोते हमेशा की तरह बिना किसी फड़फड़ाहट के बैठे थे।

ट्रक के आँखों से ओझल होने तक मेरी नजरें पिंजरे में बंद तोते और उसके पास बैठे प्राणियों पर ही उलट–पलटकर घूमती रही थी।

२४ दिसंबर २००६

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