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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से अन्विता अब्बी की कहानी— रबरबैंड


उसका बिस्तर से उठने का मन नहीं कर रहा था। करवट लेने पर उसे लगा कि बिस्तर बेहद ठंडा है। उसने आँखों पर हाथ रखा, उसे वे भी ठंडी लगीं प़लकें उसे भीगी लग रही थीं। तो क्या वह रो रही थी?

नहीं, वह क्यों रोएगी? और उसने फिर अपनी पलकों को छुआ। उसने पलकें झपकाईं। उसे बहुत खिंचाव का अनुभव हो रहा था। वह चाहकर भी पूरी तरह आँख नहीं खोल पा रही थी मानो किसी ने जबरदस्ती उसकी पलकें पकड़ लीं हों। उसे लगा उसे बाथरूम में जाकर 'वॉश' कर लेना चाहिए। पर वह नहीं चाह रही थी कि दिन इतनी जल्दी शुरू हो जाय। रात कैसे इतनी जल्दी खत्म हो गई? उसे लग रहा था कि यह पहाड़-सा दिन उससे काटे नहीं कटेगा।

उसकी पीठ के नीचे कुछ चुभ रहा था। हाथ डालकर देखा उसकी चोटी का 'रबर बैण्ड' था। उसने अपनी चोटी आगे की ओर कर ली और तभी उसे खयाल आया कि वह सारी रात अजीबो-गरीब सपने देखती रही है। किसी ने उसके बाल काट दिए हैं उसको सपने वाली अपनी शक्ल याद आ रही थी उफ कितनी घृणित लग रही थी वह। उसने याद करने की कोशिश की, वह बाल काटने वाला कौन था? उसकी शक्ल बहुत-कुछ भाई से मिलती-जुलती थी। उस भाई जैसी शक्ल वाले ने उसके बाल काटकर उसे खम्भे से बांध दिया था। और उसे सैमसन याद आ रहा था।

उसकी हालत ठीक सैमसन की तरह हो रही थी वह चीखती जा रही थी और जोर-जोर से खम्भे को हिलाने की कोशिश कर रही थी। उसने आँखें बन्द कर लीं। उसके सामने सपने वाला दृश्य ज्यों-का-त्यों आ गया था। उसे लग रहा था कि उसमें सैमसन वाली शक्ति क्यों नहीं आ गई थी काश वह खम्भे को गिरा सकती। और तभी उसे लगा कि वह बेकार की बातें सोच रही हैं। सपना केवल सपना होता है किसी सपने का कोई अर्थ नहीं होता और यदि होता भी है तो कम-से-कम आज के दिन उसे कुछ नहीं समझना हैं।

उसने जीभ अपने गालों पर फिराई। उसे महसूस हो रहा था कि उसने मुँह से दुर्गन्ध आ रही है। उसे लगा कि उसे ब्रश कर ही लेना चाहिए। वह झटके से उठकर बिस्तर पर बैठ गई और अपने पैर नीचे लटका दिए। ठंडी-ठंडी जमीम का स्पर्श पा उसके सारे शरीर में झुनझुनी-सी पैदा हो गई। पर उसको वह ताजा ठंडा-ठंडा स्पर्श भला लग रहा था। वह कल रात की बात सोच रही थी औ़र उसे भाई की बात याद हो आई। माँ की चिन्तित मुख-मुद्र पfता का बूढ़ा खाँसता चेहरा उ़से लगा कि अब घर की हरेक चीज ठण्डी हो गई है और जो नहीं भी हुई है वह भी जल्दी ही हो जाएगी।

उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की। रसोईघर से बरतनों को रखने की आवाज़ आ रही थी। माँ जरूर गुस्सा होंगी। माँ सारी रात-भर कैसे सो पाई होंगी उसे समझ नहीं आ रहा था। वह रात को पानी पीने उठी थी तो साथ वाले कमरे से पिता की खाँसी की आवाज़ आ रहा थी और बीच-बीच में पता नहीं माँ क्या बोल रही थीं जो वह नहीं सुन पाई थी और न सुनने की कोशिश ही की थी। उसे बेहद प्यास लग रही थी और वह मटके में से दो गिलास पानी निकालकर गटागट पी गई थी। उसने सोने से पहले मीनू की तरफ देखा था जो बेखबर उसकी साथ वाली चारपाई पर सो रही थी। फिर उसे भाई का खयाल हो आया था और इससे पहले कि वह भाई के निश्चय की बात याद करती उसने आँखें बन्द कर ली थीं। वह केवल सो जाना चाहती थी वह भूल जाना चाहती थी कि भाई कल रात के प्लेन से कनाडा जा रहे हैं और उन्होंने माँ से स्पष्ट कह दिया है कि वे आर्थिक तौर पर अब कुछ भी सहायता नहीं कर पाएँगे। भाई ने ऐसा निश्चय क्यों कर लिया, उसे समझ नहीं आ रहा था। उसने सोचा था कि वह भाई से इसका कारण पूछेगी, पर भाभी की मुद्रा देखकर उसकी हिम्मत जवाब दे गई थी और वह बिना कुछ कहे सो गई थी।

अब साथ वाले कमरे से खाँसी की आवाज तेज हो गई थी। वह बिस्तर पर से उठी और बाथरूम में घुस गई। आँखों पर उसने ढेर सारी ठंडे पानी की छीटें मारीं। उसे लग रहा था कि अब आँखों का खिंचाव कुछ कम हो गया है। बाहर बरामदे में भाई की जोर-जोर से ब्रश करने की आवाज़ आ रही थी। 'यह आवाज कल नहीं आएगी।' उसने सोचने की कोशिश की। बिना भाई, भाभी और बेटू के घर कैसा लगेगा? केवल माँ, वह, मीनू और रिटायर्ड पिता की खाँसी रह जाएगी। उसने अब ब्रश करना शुरू कर दिया था।
"नीतू!!" माँ रसोईघर से पुकार रही थीं।
"हूँ!!" उसका मुँह पेस्ट के झाग से भरा हुआ था।
"नीतू!!" और उसे गुस्सा आ रहा था। माँ इतनी जल्दी बेताब क्यों हो जाती हैं?
उसने जल्दी-जल्दी दाँतों पर ब्रश घिसा और कुल्ला कर रसोईघर में पहुँच गई।
"क्या है?" उसकी आवाज कठोर हो गई थी और उसने दूसरे ही क्षण सोचा कि इस तरह से बोलने के कारण उसे अब डाँट पड़ेगी। पर माँ उसी तरह आलू छीलती रहीं।
"चाय बना दे।"

उसने स्टोव में पम्प भरना शुरू कर दिया। उसने माँ के चेहरे की तरफ देखा। माँ किसी गहरे सोच में थीं। उसे लगा कि कल रात से माँ अब अधिक बुढ्ढी लगने लगी हैं। उसने ध्यान से देखा, उसे लगा ठोड़ी के पास माँ की झुर्रियाँ बढ़ गई हैं। माँ का पल्ला कन्धे पर गिर गया था और उनके अध-खिचड़ी बाल इस तरह से बिखर आए थे कि वह अपनी उम्र से करीब दस-पन्द्रह वर्ष बड़ी लग रही थीं। वह पम्प भरती चली जा रही थी और माँ के काँपते हुए हाथों से आलू छीलना देखती जा रही थी।
"मरेगी क्या?" माँ लगभग चीख पड़ी थीं।

और उसे ध्यान आया कि वह माँ की मुद्रा देखने में इतनी व्यस्त थी कि बेतहाशा पम्प भरे जा रही थी। क्या अच्छा होता यदि यह स्टोव फट पड़ता। खत्म हो जाय यह झंझट, यह उदासी, आतंक और अनिश्चय की स्थिति। उसे ध्यान आया कि यदि स्टोव फट पड़ता तो वही नहीं माँ भी आग की लपेट में आ जातीं। "अच्छा ही होता।" उससे माँ का दुख देखा नहीं जाता। उसने स्टोव पर पानी चढ़ा दिया था। वह अब प्याले लगा रही थी।

"माँ, तुम कुछ सोच रही हो।"
"नहीं तो।"
"तुम कहो तो मैं।" और वह आगे नहीं बोल सकी, यह सोचकर कि माँ को धक्का लगेगा।
"तू क्या?"
जवाब में वह चुप रही।
"बोल, तू क्या?" माँ अधीर हो रही थीं। उसे लगा कि यदि वह जवाब नहीं देगी तो शायद माँ रो पड़ें।
"मैं सोच रही थी कि बलजीत कौर से कहकर देखूँ, मुझे अपने स्कूल में जगह दे सकती है।" वह डरते-डरते बोल ही पड़ी।
"क्या?" माँ को जैसे विश्वास नहीं हो रहा था।
"इसमें हर्ज ही क्या है?"
"मैं तेरी रोटियाँ खाऊँगी?"
"माँ, तुम समझने की कोशिश करो।" उसे लग रहा था कि वह माँ से सात-आठ साल बड़ी हो गई है। माँ की आँखें गीली हो गई थीं। उसे बुरा लग रहा था कि उसने ऐसा क्यों कहा। कल से उसे माँ पर बहुत दया आ रही थी।
"मैं मर जाऊँ तब जो जी में आए करना।" उसका मन हुआ कि वह माँ को झकझोर कर रख दे। पर वह स्टोव की नीली-हरी लौ की ओर एकटक देखती रही। उसने फिर माँ की ओर देखा। उनके चेहरे पर आतंक और पीड़ा नाच रही थी। उसका मन कर रहा था कि दूसरे कमरे में जाकर भाई से खूब जोर-जोर से लड़े ठीक वैसे ही जैसे सात साल पहले वह अपनी मिठाई के हिस्से के लिए लड़ती थी।
"चाय बन गई?" भाई तौलिए से रगड़-रगड़कर मुँह पोंछ रहे थे।
दोनों में से किसी ने जवाब नहीं दिया। वह सोच रही थी कि माँ जवाब दे देंगी, पर माँ केवल आटा गूँधती रहीं।
"कितनी देर है?"
उसे लगा अब उसे बोलना ही पड़ेगा। "बस अभी लाई।"
"जरा जल्दी कर।" और भाई बैठक में चले गए थे।
उसने केतली में पत्ती डाली और चाय बनाई।
"आलू के पराठे बना रही हो?" माँ आलू मीस रही थीं।
"हाँ, ला थोड़ी-सी कुरैरी भी भून दूँ।" उसे मालूम था कि भाई को नाश्ते में आलू के पराठे बेहद पसन्द हैं। उसने चाय की ट्रे ले जाकर सेंटर-टेबल पर रख दी।
"नीतू, जरा बिस्कुट का डिब्बा ले आ मेरी अलमारी से; चाय मैं बना देती हूँ।" भाभी सोफे पर से उठती हुई बोलीं। वह भाभी के कमरे में चली गई। उसने चारों ओर नज़र घुमाई। कमरा कितना खाली-खाली लग रहा था। भाई का सारा सामान पैक हो गया था। उसने अलमारी खोली। पूरी अलमारी में केवल एक बिस्कुट के डिब्बे और सिलाई की मशीन के सिवाय कुछ न था।
"यह लो।" वह डिब्बा थमाते हुए बोली। भाभी ने चाय बना दी थी।
उसने एक सिप लिया।
"चाय बहुत स्ट्रांग है।" भाभी के माथे पर दो-तीन रेखाएँ खिंच गई थीं। सुबह-सुबह अपनी बुराई सुनना उसे भला नहीं लगा और बिना कुछ कहे वह अन्दर चली गई।
रसोईघर से घी की महक आ रही थी। माँ ने चार-पाँच पराठे सेंक लिए थे।
"मुझे बुलाया क्यों नहीं?" उसे समझ नहीं आ रहा था कि इतने सारे पराठे सेंकने के बावजूद भी न माँ ने उसे आवाज ही दी थी और न खुद ही लेकर आई। उसकी नजर फिर माँ के चेहरे पर टिक गई।
"पिताजी को चाय पहुँचा दी है?" माँ अनसुना करती हुई बोलीं।
"ओह, मैं भूल ही गई।" और वह बिना पराठे लिये ही बैठक की ओर भाग गई।
कमरे में उसकी उपस्थिति का भान होने के बावजूद भी पिता ने सिर ऊपर नहीं उठाया था।
"चाय पी लो।" उसने प्याला तिपाई पर रखते हुए कहा।
"ऊँ?" पिता कुछ इस तरह से चौंके मानो लम्बी नींद से जागे हों।
"अभी पी लो, नहीं तो ठंडी हो जाएगी।" और उसने गौर किया कि पिता ने अखबार को तह करके इस तरह से रख दिया था मानो सारीं खबरें पढ़ चुके हों। उसे विश्वास हो गया था कि जब वह कमरे में घुसी थीं तो उनकी झुकी हुई आँखें अखबार नहीं पढ़ रही थीं बल्कि कुछ सोच रही थीं। उसका मन कह रहा था कि जो बात उसने माँ से कही हैं वही बात पिता से भी कहकर देखे, पर उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी।

"प्लेन कितने बजे है?" वे प्याला प्लेट पर रखते हुए बोले।
"शाम के सात बजे।" उसे समझ नहीं आ रहा था कि ये पहाड़-से दस घंटे कैसे कटेंगे।
"तू भी हवाई अड्डे जा रही है?" पिता कुछ इस ढँग से पूछ रहे थे मानो कह रहे हों तू भी कनाडा जा रही है।
"पता नहीं, भाई से पूछूँगी।" उसने देखा कि चाय का बाकी आधा प्याला पिता ने एक घूँट में खाली कर दिया है।
"और लाऊँ?" उसे लगा उसने यह सवाल बेकार किया है क्योंकि वे हमेशा दो कप चाय पीते हैं।
"नहीं, इच्छा नहीं है।"
"क्यों?"
और जवाब में पिता की खाँसी का सिलसिला फिर शुरू हो गया। उसने प्याला उठाया और चौके के नल के नीचे रख दिया।
"बुआजी, ममी कह रही हैं इसमें बटन टाँक दो।" बेटू अपनी बुश्शर्ट लेकर खड़ा हुआ था। उसने बेटू के हाथ से बुश्शर्ट ले ली। बटन टाँकते हुए उसने गौर किया बेटू ध्यान से उसकी सुई का चलाना देख रहा था। न जाने क्यों सहसा उसने बेटू को पास खींचकर प्यार कर लिया।
"बेटू, तू कब आएगा?"
"चार साल बाद।" उसने अपनी पाँचों उँगलियाँ हवा में नचा दीं। और उसे खयाल आया कि भाई ने कहा था, "बेटू बड़ा हो रहा है म़ुझे उसका भी तो हिसाब देखना है। मैं पैसे भेजने के बारे में कुछ नहीं कह सकता।"
"पर " और पिता न जाने क्या सोचकर चुप हो गए थे।

उसने एक बार फिर बेटू की तरफ देखा। उसे लगा कि सारे झगड़े की जड़ वही है। पर फिर भी वह उसे दोषी नहीं कर पा रही थी।

उसने बाहर बरामदे में देखा। मनीप्लांट की बेल के ऊपरी भाग पर धूप पड़ रही थी। तो क्या अभी दस ही बजे हैं? मनीप्लांट की वह बेल उसकी घड़ी का काम देती थी। बरामदे में बैठकर पढ़ने से उसे अन्दाजा हो गया था कि जब धूप ऊपर वाले हिस्से पर पड़ती है तब दस बजता है और जब बीच में पड़ती है तब एक और जब नीचे होती है तब तीन या चार का समय होता है। उसे लग रहा था कि धूप बहुत धीरे-धीरे खिसक रही हैं। उसका मन कर रहा था कि किसी तरह से सूरज के गोले को पश्चिम की ओर घुमा दे ताकि यह दिन जल्दी खत्म हो। वह माँ को नार्मल देखना चाहती थी और खुद नार्मल हो जाना चाहती थी। 'भाई के जाने के बाद क्या होगा' वाली स्थिति जितनी जल्दी आ जाए उतना ही अच्छा है। कम-से-कम इस अनिश्चय की स्थिति से तो छुटकारा मिलेगा।

वह बरामदे में चली आई। उसकी नज़र एक बार फिर मनीप्लांट के पत्तों पर गई। पत्तों पर धूल जम रही थी। उसने हाथ से एक बड़े पत्ते पर लकीर बनाई। छि: कितने गन्दे हो रहे हैं। और वह पानी लेने चली गई। उसने ढेर सारा पानी गमले में डाल दिया। वह अब ऊपर के पत्तों को धो रही थी। वह पत्तों पर इस तेजी से पानी डाल रही थी माने पत्तों को धो नहीं रही हो बल्कि उस धूप को नीचे खिसकाने की कोशिश कर रही हो जो ऊपर वाले पत्तों पर नाच रही थी।

"स्नेह हैं?"
उसने पीछे मुड़कर देखा। भाभी की कोई सहेली पूछ रही थी। उसने अपने हाथ का लोटा नीचे रख दिया। पानी डालते-डालते उसकी सलवार के पायंचे गीले हो गए थे। उसे बड़ी शर्म आ रही थी 'क्या सोच रहा होगा वह आदमी जो उसके संग खड़ा है?"
"हाँ, अंदर आइए।" उसने पर्दा एक तरफ हटाते हुए कहा, और खुद सरककर एक कोने में खड़ी हो गई।
"बैठिए।" उसने पंखा चला दिया था।
"मैं अभी बुलाकर लाती हूँ।" और वह फर्श पर अपने गीले पैरों के निशान छोड़ती अन्दर चली गई।
"भाभी, तुमसे मिलने कोई आया है।" भाभी नहाने की तैयारी कर रही थीं।
"कोन है?"
"मालूम नहीं, शायद कोई सहेली है।"
"और भी कोई है साथ में?"
"हाँ, शायद उसका हस्बैंड है।" वह मन-ही-मन सोच रही थी कि वह लम्बा-तगड़ा व्यक्ति उसका भाई तो हो नहीं सकता ज़रूर उसका पति ही होगा।
भाभी ने शीशे में एक बार चेहरा देखा और बालों पर हाथ फेरती हुई अन्दर चली गई। उसे याद आया कि लोटा और बाल्टी तो वह बाहर बरामदे में ही छोड़ आई हैं।
उसे अपने गीले कपडों की हालत में फिर से बैठक में जाना अच्छा नहीं लग रहा था, पर यह सोचकर कि बाहर चीजें नहीं छोड़नी चाहिए, वह बैठक की ओर मुड़ी।

"तू सच बहुत लकी है।" वह स्त्री शायद भाभी से कह रही थी। उसने देखा उसके पति को शायद यह वाक्य पसन्द नहीं आया था, क्योंकि उसकी मुद्रा कठोर हो गई थी और बजाय अपनी पत्नी की बात में हाँ-में-हाँ मिलाने के सामने रैक पर रखी किताबों के नाम पढ़ने की कोशिश कर रहा था।

'बेचारा' उसके होंठ बुदबुदाए और दूसरे ही क्षण उसको हँसी आ गई। उसने गौर किया वह उसी की ओर देख रहा था और शायद उसने उसकी हँसी भी देख ली थी। वह एकदम झेंप गई और जल्दी से बाल्टी लेकर अन्दर चली गई।

माँ फिर से चाय बना रही थीं। उसे खयाल आया था कि आज तो सारे दिन मेहमान आते रहेंगे। और फिर से उसके कानों में गूँज गया, "तू बहुत लकी है।"
"हुंह, लकी है।" वह धीरे से बुदबुदायी।
"क्या?" माँ को लगा कि उसने कुछ कहा।
"कुछ नहीं।" उसका मन कर रहा था कि कोई माँ से आकर कहे कि सच तू बड़ी लकी है।
"मीनू के इम्तहान की फीस कब जाएगी?" माँ के दिमाग में अभी भी भाई का वाक्य घूम रहा था।
"अगले महीने के अन्तिम सप्ताह में।" उसे लगा माँ ने एक लम्बी साँस ली, क्योंकि अभी डेढ़ महीना था। वह साफ देख पा रही थी कि माँ के चेहरे का तनाव कुछ कम हो गया था।

"माँ, तुम फिक्र क्यों कर रही हो?" उसे इस तरह से बोलना बड़ा अजीब लग रहा था। शायद माँ को भी, क्योंकि उनकी नज़रें केतली से उठकर उसके चेहरे पर टिक गई थीं।
"नहीं, मैं क्यों फिक्र करूंगी?" माँ व्यर्थ ही सफाई दे रहीं थीं। और उसका एक बार फिर मन किया कि भाई को झकझोर कर रख दे।

बाहर टैक्सी आ गई थी। सारा सामान रखा जा चुका था। पिता की खाँसी बढ़ गई थी शायद उत्तेजना के कारण। भाभी और बेटू पहले से ही टैक्सी में बैठ चुके थे। भाई ने अपने हाथ का ब्रीफकेस रखकर माँ के पैर छुए। भाई का इस तरह से नीचे झुककर माँ के पैर छूना उसे बड़ा अटपटा और अजीब लग रहा था, क्योंकि उसने आज तक भाई को माँ के पैर छूते नहीं देखा था। उसको लगता था जैसे यह काम केवल घर की बहुओं का ही हो।

"किसी भी चीज़ की जरूरत हो तो लिखना।" भाई ने ब्रीफकेस हाथ में ले लिया था। उसका मन कर रहा था कि जोर से बोले, "किसी भी चीज की जरूरत नहीं होगी।" पर इससे पहले कि वह अपने होंठ खोलती, भाई उसके गाल थपथपा रहे थे "नीतू, चिठ्ठी लिखेगी न।" उसने भाई की तरफ देखा तो उसे लगा कि भाई ने वह बात मुँह से नहीं दिल से कही हैं। उसका धैर्य जवाब दे रहा था। उसे लगा यह घड़ी इतनी जल्दी कैसे आ गई। वह यह भूल चुकी थी कि सुबह से वह चाह रही थी कि वक्त जल्दी-जल्दी कटे।

ड्राइवर ने ऐक्सिलरेटर दबा दिया था और एक झटके से टैक्सी ने स्पीड पकड़ ली थी। भाई सड़क के नुक्कड़ तक हाथ हिलाते रहे थे। टैक्सी के ओझल हो जाने के बाद न जाने क्यों उसे लगा कि वह बहुत हल्की हो आई है। उसने पीछे मुड़कर देखा माँ रो रही थीं और उनके आँसू थम नहीं रहे थे। वह माँ को सहारा देकर अन्दर ले गई। उसे समझ नहीं आ रहा था कि माँ किसलिए रो रही हैं इ़सलिए कि भाई चले गए हैं या फिर इसलिए कि औ़र एक बार फिर उसके कान में भाई का वाक्य गूँज गया।

एक रात में माँ कितनी बदल गई हैं। रात खाना भी नहीं खाया। उसे तो बड़ी तेज भूख लग रही थी, पर घर में किसी ने नहीं खाया। वह पलंग पर अधलेटी ऊपर पंखे को एकटक देख रही थी। घूँ घूँ घूँ प़ंखा पूरी रफ्तार से चल रहा था, पर फिर भी उसका पसीना नहीं सूख रहा था। 'घूँ घूँ घूँ भाई अब भी प्लेन में ही होंगे।' उसने गौर किया था कि माँ आज जल्दी ही उठ गई थीं और धीरे-धीरे सारे काम निपटा रहीं थीं ए़क मशीन की तरह जिसके सारे सारे पुर्जे घिस चुके हों। पिताजी कल रात बहुत देर तक खाँसते रहे थे और भाई के खाली कमरे में सोते हुए उसे खाँसी में 'अकेलापन' की आवाज सुनाई पड़ रही थी। उसे कमरा बहुत ज्यादा बड़ा और खाली नज़र आ रहा था, पर उसे अभी तक माँ और पिताजी की तरह 'अकेलापन' नहीं लग रहा था। पहले सोचती थी तो उसे लगता था कि भाई के चले जाने पर वह अकेली पड़ जाएगी, उसे भाई की अनुपस्थिति खलेगी। पर अब ऐसा कुछ नहीं हो रहा था। उसका इस तरह इतनी दूर चले जाना और महज आठ घंटों के लिए आफिस जाने में, उसे न जाने क्यों, कोई भेद नज़र नहीं आ रहा था। उसे खुशी हो रही थी कि मीनू भी रोज की तरह स्कूल चली गई थी।

माँ अलमारी से कुछ निकालने आई थीं। उसने देखा माँ के चेहरे के भाव वे नहीं थे जो कल तक थे। वे कुछ सन्तुष्ट नज़र आ रही थीं। उसका मन हुआ कि पूछे- ' किससे सन्तुष्ट हो, इस स्थिति से या मुझसे?' उसकी नज़र फिर माँ के चेहरे से हटकर ऊपर चलते पंखे के बीच बने स्टील के तवे पर पड़ती अपनी परछाई पर चली गई। वह उसमें कितनी छोटी लग रही थी। उसने दायाँ हाथ जोर से हिलाया, ऊपर की परछाई ने भी ठीक ऐसा ही किया। माँ शायद उसकी यह हरकत
गौर कर रही थीं, बोली - "क्या सुबह से अलसा रही है? ग्यारह बज रहा है। अभी तक नहाई-धोई भी नहीं।"
"जल्दी क्या है, अभी?"

"न सही जल्दी, पर तू कह रही थी कि बलजीत कौर से बात करेगी, तो फिर वहाँ कब जा रही है?"
उसे लगा पूरी रफ्तार से चलता पंखा उसके ऊपर गिर पड़ा है। घूँ घूँ घूँ उसके कानों में घुसी जा रही थी। वह कभी नहीं सोच पाई थी कि माँ खुद उससे ऐसी बात कर सकती हैं। इतना बड़ा निर्णय माँ ने कब और कैसे ले लिया।

१९ जनवरी २०१५

 
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