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इतिहास


 
महालया के अमर गायक
बीरेन्द्र कृष्ण भद्र
- श्रीराम पुकार शर्मा


‘या देवी सर्वभूतेषू जाति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥’
यह पावन आध्यात्मिक देव सदृश ‘श्रीचंडी’ या ‘दुर्गा-सप्तशती’ के श्लोक संबंधित ओजपूर्ण असरदार और भावप्रवण गंभीर वाणी आश्विन माह के कृष्ण पक्ष के अमावस्या तिथि अर्थात ‘महालया’ को ब्रह्म मुहूर्त के भोर बेला से ही चतुर्दिक सम्पूर्ण वातावरण में शीतल समीर के साथ लहराते हुए हमारे कानों में आध्यात्मिक अमृत भावरस को प्रवाहित करने लगती है। वस्तुतः यह रेडियो पर प्रसारित होने वाला एक विशेष ध्वनित (औडियो) श्रव्य कार्यक्रम ‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ है। पूर्णतः विशुद्ध आध्यात्मिक और वैदिक संस्कृति के राग-रंगों तथा सरगम के आरोह-अवरोह स्वर-सुर से सजा-धजा एक प्रसिद्ध रेडियो-विशेष आध्यात्मिक कार्यक्रम है, जो प्रतिवर्ष शरद-उत्सव के महालया के दिन माँ दुर्गा देवी के धरती पर आगमन का स्वागत करते हुए प्रसारित होता आया है। रेडियो पर शंख-नाद के साथ ‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ का गायन प्रारंभ होते ही भोर बेला की शांत शीतल पवन उस पवित्र शंख ध्वनि को संग लिये सम्पूर्ण वातावरण को आश्वासन, सम्मान, धार्मिक, सार्वभौमिक, प्रेम तथा शांति से भर देता है। यह देवीपक्ष चंद्र पखवाड़े और दुर्गा-पूजा की शुरुआत का सूचक है। अब तो रेडियो का यह ‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ कार्यक्रम ‘महालया’ का ही पर्याय बन गया है।

‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ के इस कार्यक्रम का  प्रसारण प्रथम बार सन् १९३१ में आकाशवाणी, कलकता से किया गया था, जिसकी मूल पटकथा को बानी कुमार ने लिखा था। उस कार्यक्रम का आयोजन पंकज कुमार मल्लिक, प्रेमंकुर अटोर्थी, बीरेंद्र कृष्ण भद्र, नृपेंद्र कृष्ण मुखोपाध्याय और रायचंद बोराल आदि ने किया था। बाद के वर्षों में मूल पाठ कर्ता बीरेंद्र कृष्ण भद्र ही रहे थे। तब से लेकर आज तक यह ‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ निर्वाध रूप से प्रतिवर्ष ‘आकाशवाणी कोलकाता’ और ‘आल इंडिया रेडियो’ से प्रसारित होते रहा है। १९३१ के पूर्व ‘महिषासुरमर्दिनी’ को कलकता शहर के बड़े-बड़े नाट्य-शालाओं के बड़े-बड़े रंग-मंचों पर अभिनीत किया जाता था। अब तो रेडियो के अतिरिक्त दूरदर्शन के सभी चैनलों पर ‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ का दृश्य-श्रव्य कार्यक्रम के रूप में प्रसारण किया जाता है। इसकी लोकप्रियता आज ९० वर्षों के बाद भी ज्यों कि त्यों ही बनी हुई है। बच्चे से लेकर बूढ़े तक और साधारण जन से लेकर प्रबुद्ध बंगालीजन तक इसका बेसब्री से इंतजार करते हैं और महालया के दिन ब्रह्म-मुहूर्त में उठकर बहुत ही श्रद्धा-भक्ति भाव से इस ‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ को ध्यान लगाकर सुनते हैं। तत्पश्चात पावन गंगा या कोई पवित्र नदी-तालाब-पोखरों में स्नानादि कर गरीबों को अन्न-वस्त्र दान कर पवित्र मन से दुर्गापूजा के लिए प्रस्तुत होने लगते हैं।

‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ की ओजपूर्ण असरदार और भावप्रवण ध्वनि, जो सब के कानों में माँ दुर्गा देवी स्तवन के रूप में गूँजती है, वह प्रवाहमय ध्वनि स्वर्गीय बीरेंद्र कृष्ण भद्र की ही हैं, जिन्हें ‘महालया’ को सभी के लिए यादगार बनाने के लिए हमेशा याद किया जाएगा। वे संस्कृत भाषा के पवित्र आध्यात्मिक श्लोकों का प्रसंगानुकूल ऐसे पाठ करते, मानों कि श्रोता अपने सम्मुख माँ दुर्गा देवी और महिषासुर के बीच हो रहे महासंग्राम को अपने श्रवण-चक्षु के सहारे अपने हृदय में आत्मसात् कर रहा हो। ‘महिषासुर मर्दिनी चंडीपाठ’ के साथ ही साथ पृथ्वी पर माँ दुर्गा देवी के अवतरण की कहानी को भी सुनाते हैं, जो ‘देवीपक्ष’ की शुरुआत की कथा है। जब माँ दुर्गा देवी अपनी पूजा के लिए स्वयं को तैयार करने के लिए जाग जाती है।

‘महिषासुर मर्दिनी चंडीपाठ’ का बीरेंद्र कृष्ण भद्र का संस्करण अत्यधिक लोकप्रिय हुआ, जिसके सामने बंगालीजन अन्य किसी भी व्यक्तित्व के ‘चंडी पाठ’ को स्वीकार नहीं किए। एक बार जब १९७६ में प्रसिद्ध बंगाली अभिनेता, उत्तम कुमार की आवाज़ को इस ‘चंडी पाठ’ कार्यक्रम के लिए चयन किया गया और इसका कार्यक्रम का नाम बदलकर ‘दुर्गा दुर्गतिहरिणी’ किया गया, तो बंगाली श्रोताओं से अपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं मिली। कुछ बुद्धिजीवियों ने तो उस कार्यक्रम की तीव्र आलोचना भी की थी। बंगाली जनमानस अपनी संस्कृति के मूल स्वरूप में किसी भी बदलाव को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करते हैं। नतिजन उसे ‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ का बीरेंद्र कृष्ण भद्र के मूल संस्करण को ही वापस स्थानांतरित कर देना पड़ा, जो आज तक अनवरत चल रहा है।

‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ के पाठ-कर्ता बीरेंद्र कृष्ण भद्र एक विख्यात रेडियो प्रसारक, नाटककार, अभिनेता, कथा-वाचक और थिएटर निर्देशक थे। उनके बेदाग संस्कृत शब्द उच्चारण ‘चंडी पाठ’ को यथार्थता को प्रस्तुत करता है। फलतः उनकी ‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ की प्रस्तुति, जो १९३१ से लगभग ९ दशकों के बाद आज तक ‘महालया’ की सुबह प्रसारित होती ही रही है। यह उनकी कार्य प्रतिभा का सच्चा प्रमाण ही तो है। आज दुनिया भर में, बीरेंद्र कृष्ण भद्र ‘महालया’ का पर्याय बन गए हैं, क्योंकि उनके प्रशंसित संस्करण के बिना ‘महालया’ के ‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

यद्यपि ‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ का विषय पौराणिक है और मंत्र वैदिक संस्कृत का हैं। इस प्रकार यह कार्यक्रम एक ऐतिहासिक रचना के समकक्ष है। इसकी पटकथा को बानी कुमार ने लिखी है। इसे बीरेंद्र कृष्ण भद्र ने सुनाया है। जबकि इसमें प्रयुक्त गीतों को प्रतिमा बंदोपाध्याय, द्विजेन मुखोपाध्याय, तरूण बंदोपाध्याय, मनबेंद्र मुखोपाध्याय, बिमल भूषण, कृष्णा दासगुप्ता, संध्या मुखोपाध्याय, आरती मुखोपाध्याय, सुमित्रा सेन, उत्पल सेन, श्यामल मित्रा, शिप्रा बोस, और सुप्रीति घोष आदि ने अपनी मधुर आवाज में गाया है। इसका मनमोहक संगीत पंकज मलिक द्वारा रचित है।

हलाकी महालया के अवसर पर रेडियो पर प्रसारित होने वाला प्रसिद्ध ध्वनित कार्यक्रम ‘महिषासुर मर्दिनी चंडीपाठ’ को हम आप आज जो सुनते हैं, वह बीरेंद्र कृष्ण भद्र महाशय का ही रिकॉर्ड किया गया ‘महालया’ कार्यक्रम है। उनके द्वारा संस्कृत उच्चारित शब्दों की दिव्य श्रवणीय आभा में हर घर-आँगन को मंत्रमुग्ध कर देने की अद्भुत शक्ति है। श्रोता को प्रतीत होता है, मानों कि उन्होंने माँ दुर्गा देवी के स्मरण में अपनी आत्मा को ही ‘महिषासुर मर्दिनी चंडीपाठ’ में डुबो दिया हो। उससे उत्पन्न प्रफुल्लित भक्ति-लहरों में साधारणजन कुछ घंटों ही नहीं, बल्कि महालया से लेकर विजया दशमी तक मधुर-मधुर लहराते-फिरते रहते हैं।

‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ के पाठ-कर्ता बीरेंद्र कृष्ण भद्र का जन्म कोलकाता के अहीरीटोला के ही निवासी एक संभ्रांत बंगाली सज्जन रॉय बहादुर कालीकृष्ण और सरला बाला देवी के सुसंस्कृत आँगन में ४ अगस्त, १९०५ को उनके पुत्र के रूप में हुआ था। बाद में उनका पूरा परिवार रामधन मित्रा लेन, कलकत्ता में स्थानांतरित हो गया। बीरेंद्र कृष्ण भद्र के पिता रॉय बहादुर कालीकृष्ण एक विख्यात भाषाविद् थे। वे १४ विविध भाषाओं में पारंगत थे। तत्कालीन कलकता के निचली अदालत में वे दुभाषिया के रूप में कार्यरत थे। साहित्य-प्रेमी और लेखक होने के कारण बंगाली साहित्यिक हलकों में भी उनको विशेष स्थान प्राप्त था। १९२७ में उन्हें ‘रॉय बहादुर’ की उपाधि से सम्मानित किया गया था। बीरेंद्र कृष्ण भद्र की दादी योगो माया देवी बहुत ही उद्यमशील कर्मठ और साहसी महिला थी। वह स्व-शिक्षित और अंग्रेजी तथा संस्कृत में पारंगत थीं। वह पंजाब के किसी राज्य की महारानी के निजी शिक्षका के रूप में नौकरी की थी। उनके संरक्षण में ही बीरेंद्र कृष्ण भद्र ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा को प्राप्त की थी।

बीरेंद्र कृष्ण भद्र बचपन से ही एक मेधावी छात्र थे। बहुत कम उम्र से ही उन्होंने शिक्षा के साथ ही गायन और अभिनय में अपनी गहरी रुचि दिखाने लगे थे। फिर १९२८ में कलकाता के ‘स्कॉटिश चर्च कॉलेज’ से स्नातक की उपाधि भी प्राप्त की थी। कालांतर में उन्होंने ‘ऑल इंडिया रेडियो’ के लिए कई नाटकों का निर्माण और रूपांतरण भी किया था। उन्होंने बंगाली फिल्म निशिद्ध फल (१९५५) के लिए पटकथा भी लिखी है। उनके प्रसिद्ध कृतियाँ - हितोपदेश, विश्वरूप-दर्शन, राणा-बेराना, ब्रतकथा समग्र, श्रीमद्भागवत: (संपूर्ण द्वादश स्कंध) आदि हैं। जबकि बंगाली थिएटर हेतु मेस नंबर ४९, ब्लैकआउट, सत् तुलसी और साहिब बीबी गुलाम जैसे प्रसिद्ध नाटकों की रचना की है।

बहुत कम उम्र में ही बीरेंद्र कृष्ण भद्र एक जानलेवा बीमारी ‘डिप्थीरिया’ से संक्रमित हो गए थे। डॉक्टरों ने उनकी जाँच करने के बाद बताया था कि उनकी जान तो बचाई जा सकती है, लेकिन उनकी स्वर रज्जु क्षतिग्रस्त हो जाएगी। हुआ भी वही। उनकी जान तो बच गयी, लेकिन उसके बाद से उनकी आवाज़ अन्य सामान्य लोगों से बहुत अलग ही हो गयी। कहा जाता है कि एक बार बानी कुमार के कहने पर, जब बीरेंद्र कृष्ण गार्स्टिन प्लेस, कोलकाता में ‘इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी’ में वॉयस ऑडिशन के लिए उपस्थित हुए थे, तो उन्हें तत्कालीन कार्यक्रम निदेशक नृपेन मजूमदार ने अस्वीकार कर दिया था। पर मजे की बात यह है कि कुछ ही दिनों के उपरांत ही रेडियो नाटक के लिए एक राक्षस की भूमिका के लिए उन्हें उसके उपयुक्त आवाज वाले किसी व्यक्ति की आवश्यकता हुई। तब उनको अचानक ही बीरेंद्र कृष्ण भद्र की फटी हुई आवाज की याद आ गई। बीरेंद्र कृष्ण भद्र को बुलाया गया और उनकी आवाज को सुनकर नाटक निर्माता ने अपनी सहमति प्रकट की। नाटक के प्रसारण में, यह पाया गया कि बीरेंद्र कृष्ण भद्र की आवाज़ ही पत्रानुकूल सबसे उत्कृष्ट रही थी।

सन् १९२८ में बीरेंद्र कृष्ण भद्र का हावड़ा के प्रसिद्ध फणींद्र नाथ बसु की बेटी रमा रानी के साथ विवाह हुआ। उसी वर्ष वह कोलकाता के फेयरली प्लेस में ‘ईस्ट इंडिया रेलवे हेड ऑफिस’ में एक क्लर्क के रूप में नौकरी कर ली। उसी वर्ष के अंत में वह निजी तौर पर संचालित ‘इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी’ में शामिल हो गए। तभी से रेडियो उनके जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया। वह रेडियो प्रसारण की लगभग सभी विधाओं में माहिर थे। वह एक समय खेल टिप्पणीकार, गायक, पटकथा लेखक, नाटक निर्माता, अभिनेता, कलाकार, उद्घोषक और विशेष कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता भी रहे थे।

‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ के माध्यम से अमरत्व को प्राप्तकर्ता महान व्यक्तित्व बीरेंद्र कृष्ण भद्र १९७० में ६५ वर्ष की अवस्था में ‘ऑल इंडिया रेडियो कलकत्ता’ से सेवानिवृत्त हुए। परंतु सांस्कृतिक कार्यक्रमों से वे कभी मुक्त न हो पाए थे। वे रंग-मंचों से गंभीर रूप से जुड़े ही रहे। उनकी विविध सांस्कृतिक उपलब्धियों पर गौर करते हुए १९८० में पश्चिम बंगाल सरकार के ‘नृत्य नाटक संगीत एवं दृश्य कला अकादमी’ ने उन्हें ‘कला अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया था। जीवन के अंतिम वर्षों में उनकी ‘स्मृति हानि’ हो गई थी और उसी अवस्था में ३ नवंबर १९९१ को ८६ वर्ष की अवस्था में कलकता में ही उस ‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ के मूल स्वामी बीरेंद्र कृष्ण भद्र का निधन हो गया।

बीरेंद्र कृष्ण भद्र भारत में रेडियो प्रसारण संबंधित इतिहास के 'स्वर्ण युग' के प्रमुख वास्तुकार थे। उनके दिल की सांस्कृतिक धड़कनों से आज भी ‘कोलकाता आकाशवाणी' के प्रसारित विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उनके पदचाप अनुगूँजित हो रहे हैं। कोलकाता आकाशवाणी भवन की गलियारा आज भी ‘महिषासुरमर्दिनी चंडी पाठ’ के अपने गायक बीरेंद्र कृष्ण भद्र के पदचापों को सुनने का प्रयास करता प्रतीत होता है, जिनकी गंभीर आवाज को चाहने लाखों श्रोता, न केवल पश्चिम बंगाल या भारत ही, बल्कि दूर देशांतरों तक फैले हुए हैं। यही बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी बीरेंद्र कृष्ण भद्र की लोकप्रियता का पैमाना है।

१ सितंबर २०२५

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