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इतिहास


 
प्राचीन भारत में विदेशी पर्यटक
- डॉ. परमानंद पंचाल


भारत प्राचीन काल से ही विदेशी यात्रियों के लिए आकषर्ण का केन्द्र रहा है, क्योंकि भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, ज्ञान, तथा धनसम्पदा की चर्चा संसार में दूर-दूर तक फैली हुई थी। और विदेशी लोग इसे सोने की चिडिय़ा कहते थे। इसी कारण से हजारों वर्षो से विभिन्न देशों के यात्री यहाँ आने के लिए और यहाँ की समृद्धि व सभ्यता को देखने के लिए लालायित रहते थे।

कुछ विदेशी यात्री ज्ञान की खोज में आए, तो कुछ इस देश की सम्पदा और समृद्धि से आकर्षित होकर व्यापार के उद्देश्य से यहाँ आए। अनेक पर्यटकों ने इस देश के रीति- रिवाजों, धर्म-दर्शन और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों का वर्णन किया है। किंतु इन सबके वर्णन व्यस्थित रूप में हमारे पास उपलब्ध नहीं है। इनका लिखित वर्णन हमें अरब के सौदागरों, यूरोप के यात्रियों और सिकन्दर के आक्रमण के बाद चीनी यात्रियों से ही मिलता है।

३२६ ई. पूर्व में सिकन्दर महान के भारत पर आक्रमण के बाद भारत और यूनान एक दूसरे के सम्पर्क में आए। ऐसा पहला यूरोप निवासी मैगस्थनीज था, जिसने भारत के सम्बंध में कुछ लिखा। वह चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में राजदूत बनकर आया था। इसने पाटलीपुत्र (वर्तमान पटना) में रहकर यहाँ के बारे में अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में भारत का रोचक वर्णन किया है। यद्यपि यह पुस्तक आज उपलब्ध नहीं है, फिर भी मैंगस्थनीज लिखता है कि भारतीय लोग मुख्यत: दो फसलें उगाते है। गरमी में जौ और दालें, बरसात में धान, पटसन, नील और बाजरा आदि। गन्ने की खेती उसने पहली बार देखी और गन्ने के गुड़ को देखकर उसने लिखा है, कि यहाँ बिना शहद की मक्खियों के ‘गुड़’ तैयार होता है।

दूसरा आश्चर्य जनक पौधा उसे कपास का लगा। वह लिखता है कि भारत में इन पौधों से वनस्पति तैयार होती है। उसने यहाँ के विशाल बरगद के वृक्ष का भी वर्णन किया है। वह कहता है कि यहाँ सोना खोदने वाली चींटिया होती है। वह भारतीय समाज को सात वर्गो में बाँटता है- १. दार्शनिक २. किसान ३. ग्वाले और शिकारी ४. व्यापारी ५. सैनिक ६. गुप्तचर, ८. अधिकारी। वह लिखता है कि यहाँ के लोग ईमानदार हैं और घरों में ताले तक नहीं लगाते। वे अनुशासन में रहते है।

मैंगस्थनीज ने पाटलिपुत्र नगर का बड़ा रोचक वर्णन किया है। वह लिखता है कि यह नगर साढ़े नौ मील लम्बा और लगभग पौने दो मील चौड़ा था। इसके चारों ओर ४५ फुट गहरी खाई थी। चन्द्रगुप्त का महल बड़ा वैभवशाली था। नगर के शासन को ‘नगर पालिका’ चलाती थी, जिसमें तीस सदस्य थे। इस प्रकार नगर का शासन लोकतांत्रिक ढँग से चलता था। सेना के ६ विभाग थे- जल, पैदल, अश्वारोही, रथ, हाथी, तथा परिवहन। युद्ध के समय सारा समाज और देश युद्ध में नहीं फँस जाता था। मैगस्थनीज के अलावा पीरो, दीम़ाकोस आदि कई युरोपीय यात्री भी यहाँ आए। एक ग्रीक-मिस्री नाविक पैरीप्लस ने भारत के व्यापार आदि का वर्णन किया है। - डॉ. परमानंद पांचाल

चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में चीना यात्री फाह्यान भारत आया। वह बौद्ध ग्रंथों की खोज में यहाँ आया था। उसने ४०५ से ४११ ई. तक देश की यात्रा की। उसका मुख्य उद्देश्य प्रसिद्ध बौद्ध धर्म ग्रंथ ‘विनय-पिटक’ का प्रामाणिक पाठ तैयार करना था। वह पामीर के पठार को पारकर कश्मीर घाटी से गुजरता हुआ तक्षशिला, गंधार देश की यात्रा करता हुए पाटलिपुत्र पहुँचा। यहाँ वह तीन वर्ष रहा वह लिखता है कि भारतीय लोग सात्विक आहार करते हैं। किसी जीवित प्राणी को नहीं मारते। उसने अनेक मठों की यात्रा की। वह यहाँ के नि:शुल्क चिकित्सालय की प्रशंसा करता है। वह लिखता है कि यहाँ पशु-पक्षियों के लिए भी चिकित्सालय है। फाह्यान की इस यात्रा से भारत और चीन के सांस्कृतिक सम्बंधों को एक दृढ़ आधार मिला।
 
फाह्यान मगध से इतना मुग्ध था कि उसने अपनी अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहा कि यदि मुझे बौद्व के रूप में जन्म लेना पड़े तो मैं मगध में ही जन्म लेना चाहूँगा। फाइयान का इस यात्रा से भारत और चीन के सम्बन्धों को एक दृढ़ आधार मिला। ह्वेन सांग मध्य एशिया के पर्वतों, रेगिस्तानों और घाटियों को पार करता हुआ, ताशकंद और समरकंद के रास्ते से ६३० ई. में गांधार आया। पेशावर में उसने ‘अष्टाध्यायी’ के रचयिता पाणिनि की जन्मभूमि को देखा। फिर कश्मीर पहुँचा जो विद्या का एक बड़ा केन्द्र था। जहाँ वह दो वर्ष रहा। फिर नालंदा आया। उसने गंगा नदी के महात्व की भी बड़ी प्रशंसा की है। उसने प्रयाग से श्रावस्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर, वाराणसी, सारनाथ, गया, वैशाली, पाटलिपुत्र जैसे तीर्थस्थलों की यात्रा की। हर्षवर्धन ने कन्नौज में उनका भव्य स्वागत किया। कन्नौज में एक भव्य बौध सम्मेलन किया गया। प्रयाग के महासम्मेलन में भी वह हर्षवर्धन के साथ था। श्रीलंका होते हुए चीन लौटने पर उन्होंने अपने साथ लाए बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया।

ह्वेन सांग गंगा नदी की प्रशंसा करता है। वह कहता है कि गंगा में स्नान करने से सारे पाप धुल जाते हैं। वह कहता है हर्ष ने कुंभ के महापर्व पर अपने सभी वस्त्र दान में दिए और जब पहनने को कुछ न रहा तो अपनी बहन से वस्त्र लिया। हर्ष बड़ा दानी था। प्रयाग में पूरे ८५ दिन तक दान देने का कार्य चलता रहा। ह्वेन सांग नालंदा से ६४३ ई. में स्वदेश के लिए रवाना हुआ। इनकी यात्रा से भारत और चीन निकट आए और दक्षिण पूर्व के देशों बौद्ध धर्म का प्रचार बढ़ा।

ईत्सिंग भी चीन का एक प्रमुख यात्री था, जो सातवीं सदी के उत्तरार्ध में लगभग ३२ चीनी बौद्ध भिक्षुओं के साथ जलमार्ग से भारत आया था, जिनमें कोरिया, तिब्बत, समरकंद और हिंद-चीन के यात्री शामिल थे। सन् ६८३ से सन् ६९५ तक वह भारत में रहा। उसने संस्कृत भाषा, व्याकरण, साहित्य, दर्शन और चिकित्सा शास्त्र सभी का अध्ययन किया। उसने अपनी पुस्तकों में महान पंडित अश्वघोष और भर्तृहरि की है। वह अपने साथ लगभग चार सौ ग्रंथ चीन लेता गया। इनके अतिरिक्त चीन के अनेक यात्री जिनमें प्रमुख हैं- वींगहीयेसे (६४३ ई.) चीतोंग चीमोंग, सुंग- युन, बू-क-ओंग (३८५ ई.) चे. यी. (९९० ई.) को युन (१०२२ ई.) तथा हयायी बेन (१०३३ ई.) यहाँ आए। १४०६ ई. में ‘मोहान’ नाम का यात्री भी यहाँ आया। कहा जाता है कि चीनियों ने लगभग ५४०० ग्रंथों का अनुवाद किया।

चीनी यात्रियों के अतिरिक्त अरब के अनेक यात्री भी यहाँ आए। इनमें सुलेमान सौदागर, ईराक से यहाँ आया। उसने हिंद महासागर का नाम ‘दरिया-ए-हरगंद लिखा है। सुलेमान ने समुद्रतट के बड़े राजाओं का उल्लेख किया है। इनमें एक ‘बलहेरा’ है। वह कुमकुम (कोंकण) का रहने वाला है। आठवीं सदी का यह अरब यात्री कहता है-यहाँ जैसे कपड़े बुने जाते है, अन्यत्र कहीं नहीं। वे इतने बारीक होते हैं कि पूरा थान एक अँगूठी में आ जाता हैं।’

इब्ल हौकल (९४३-८९ ई. ) बगदाद का व्यापारी था, जो ९४३ ई. में भारत पहुँचा। उसने सिंध का नक्शा तैयार किया। यह ऐसा पहला यात्री और भूगोल लेखक है, जिसने भारत की लंबाई-चौड़ाई बताने का प्रयास किया था। अरब यात्रियों में मसूदी (३०३ हि) बुशारी (८३० हि.) के अतिरिक्त एक यात्री अब्बू जैथ आया वह कहता है कि यहाँ से अरब लोग नारियल ले जाते हैं। नीबू और आम भी यहाँ खूब पैदा होता है। खुर्दा जवा (२५० ई. हि.) ने चंदन, कपूर, काली मिर्च और मसालों का उल्लेख किया है जो भारत में व्यापारी ले जाते है। ९८३ ई. में जन्मा अलबरूनी जिसकी पुस्तक का नाम ‘किताबुल हिंद’ है, में भारत का विस्तार से वर्णन किया गया है। उसने अरबी जानने वालों के लिए संस्कृत की पुस्तकों का अनुवाद किया। उसने ब्रह्म गुप्त की पुस्तक का भी अनुवाद किया। सांकय, पतंजलि और वराहमिहिर की ‘लघु जातक’ पुस्तक का भी अरबी में अनुवाद किया। उसने अपनी पुस्तक ‘कानून मसूदी’ में भारत के नगरों की जानकारी दी है।

अलबरूनी ने यहाँ मूर्ति पूजा तथा जाति प्रथा का भी उल्लेख किया है। एक अन्य अरब लेखक ‘जाहिज’ ने भारत के ज्योतिष और गणित का उल्लेख किया हे वह यहाँ के आयुर्विज्ञान, वास्तुकला, संगीत, चिकित्सा, दर्शन, ज्योतिष और गणित की प्रशंसा करता है। इब्नेबतूता १२ सितम्बर १३३३ ई. को सिंध पहुँचा। उस समय भारत में मोहम्मद बिन तुगलक का राज था, जिसने उसे दिल्ली का काज़ी नियुक्त किया था। तुगलक ने १३४२ ई. में इब्नबतूता को राजदूत बनाकर चीन भेजा। उसने कोरो में मंडल तथा लक्षद्वीप के द्वीपों का वर्णन किया है। उसने अपनी यात्राओं का वर्णन ‘किताबुरहला’ नामक ग्रंथ में किया है। इब्नबतूता ने खकबात, गावी, वैरम, गोगा मालाबार, मंगलौर कालीकट कोरो मंडल, विजय नगर लक्षद्वीप, आदि की यात्रा की थी। वह लिखता कि मुसलमानों के प्रति यहाँ बड़ी सहानुभूति है।
 
अरब आने वाले अन्य यात्रियों में अब्बूजैद हसन सैराफी, अब्बूदल्फ, मसूदी मुसहर बुर्जुग बिन शहर था, इस्तखरी, बुशरी, विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनके अलावा ईरान, तुर्किस्तान आदि से भी यात्री यहाँ आए, जिनमें अब्दुर्रजाक (१४४३ ई.) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। वह तैमूरलंग के पुत्र का राजदूत बनकर आया था। उसने विजय नगर साम्राज्य का आँखों देखा हाल लिखा है। अरब वाले कहते हैं कि उन्होंने एक से नौ तक के अंक लिखने का ढँग हिन्दुओं से सीखा (इसलिए अरब वाले अंकों को ‘हिन्दसा’ कहते है) यह प्रणाली अरबों से यूरोप तक पहुँची।

मध्यकाल और बाद के यात्रियों में वेनिस का निवासी मार्को पोलो १३वीं सदी के अंत में भारत आया था। उसने अपनी पुस्तक ‘इलमिलिओन’ में तत्कालीन भारत की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का वर्णन किया है। वह लिखता है कि भारत के लोग संयमी और दीर्घजीवी होते हैं। उसने मुरफली (तेलंगाना) सेंट थामस (मद्रास), मालाबार, थाना अगस्त, २.१६ हरिगंधा २७ (मुकबई) और (गुजरात) आदि स्थानों की यात्रा की थी। मार्को ने मन्नार की खाड़ी से मोती निकालने के व्यवसाय को भी देखा था। वह लिखता है-
भारत की जलवायु घोड़ों के अनुकूल नहीं है, उन्हें विदेशों से आयात किया जाता है। लोग घरों को गोबर से लीपते है। इस क्षेत्र में चावल और तिल पैदा होता है। मंदिरों में देवी और देवताओं दोनों की प्रतिमा होती है और ‘देव दासी’ प्रथा का प्रचलन है। उसने मैलापुर के निकट गिरजे का वर्णन किया है। वह लिखता है कि प्राय: सभी भारतीय और विशेषकर कयाल पट्टम के लोग ताम्बूल का सेवन करते है। वे हमेशा पान की पत्तियाँ मुख में रखते है। वह दक्षिण भारत में काक्तीय राज्य की शासक रूपरम्भा के राज्य का भी उल्लेख करता है।

यूरोप से आने वाले यात्रियों में ‘वास्कोडीगामा १४९८’ ई. में कालीकट पहुँचा। इसके बाद डच, डेन, फ्रैंच, और अंग्रेज लोग व्यापार की दृष्टि से यहाँ आने लगे। सन १६.८ ई. में हाकींस जहाँगीर के दरबार में इंग्लैंड के राजा का पत्र लेकर आया और सूरत में कोठी बनाने की आज्ञा माँगी। १६१५ ई. में सर टामसरो इंग्लैंड का राजदूत बनकर जहाँगीर के दरबार में आया। रेल्फ फिच ने १५८५ में आगरा की यात्रा की। वह अंग्रेज यात्री था। उसने १८. नावों के बेड़े में आगरे से बंगाल की यात्रा की। ट्रेवरनियर (१६४१-६८) फ्रांसीसी यात्री था, जो १६४१ ई., में भारत आया। उसने शाहजहाँ के तख्ते-ताऊस का वर्णन किया है। वह कहता है यह राज सिहासन हीरों-मोतियों से जड़ा है। बर्नियर फ्रांस का एक चिकित्सक था जो शाहजहाँ के शासन काल में १६५८ से १६६८ तक भारत में रहा।

इनके अतिरिक्त मनुकी नाम का इटली यात्री शाहजहाँ के शासन काल में आया। उससे पहले एक अंग्रेज यात्री टेरी भी आया। एक इटली का यात्री पिट्रो-डेला-बेले १६२३ ई. में सूरत में आया। इनके अतिरिक्त रफेल डैनी-बियोय रूस से आया था। जिसने कश्मीर का वर्णन किया है। यूरोप के यात्रियों में अनेक नाम है जो भारत आये। भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के कारण यहाँ आने वाले अनेक अंग्रेजों ने भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थातियों का वर्णन किया है।
 
भारत में आने वाले विदेशी यात्रियों के वर्णन से जो तस्वीर सामने आती है वह यह है कि भारत सामाजिक और सांस्कृतिक, दृष्टि से सदा एक रहा है। राजनैतिक दृष्टि से भले ही यहाँ विभिन्न शासन प्रणालियाँ रही है। दूसरे, यहाँ संसार के सभी धर्मो के मानने वालों के साथ सदैव सौहार्दपूर्ण व्यवहार रहा है। यही कारण है कि आज भी यहाँ विश्व के सभी धर्मों के प्राचीन पूजास्थल उसी रूप में सुरक्षित हैं।

१ अप्रैल २०१८

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