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 नागवंश 
					और आस्तिक बाबा का दरबार
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					अशोक शुक्ला
 
 बचपन में कही 
					दादी नानी की कहानियों में एक बात बतायी जाती थी कि धरती 
					शेषनाग के फन पर टिकी है और जब शेषनाग थोड़ी सी भी करवट लेते 
					हैं तो धरती पर भूकंप आ जाता है। भले प्रत्यक्ष रूप में हमें 
					किसी शेषनाग के दर्शन न होते हों लेकिन सचमुच कोई तो है जिसके 
					'फन' यानी 'हुनर' पर तो अवश्य ही टिकी है हमारी धरती। 
 हिन्दू संस्कृति में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन 
					नाग पूजा किये जाने का विधान है जिसे नाग पंचमी के रूप में 
					जाना जाता है। शंकर जी के मंदिर में मूर्ति के गले में लिपटे 
					सर्प हों अथवा शिवलिंग के चारों ओर बने अरघे में घेरा डालकर फन 
					फैलाकर बैठे किसी नागदेवता की प्रतिक्रति, हमारे हाथ स्वयमेव 
					नमन की मुद्रा में उठ ही जाते हैं। साँपों के प्रति आस्था का 
					आलम इस सीमा तक है कि शंकर जी के मंदिरों के बाहर अनेक सपेरे 
					अपने साँपों की डलिया लेकर इस आशा में खड़े रहते हैं कि आपकी 
					श्रद्धा का कुछ अंश उनके लिये भी रोटी की व्यवस्था अवश्य कर 
					सकेगा।
 
 नाग को साँपों के राजा के रूप में जाना जाता है और इतिहास में 
					इनके नाम पर नागवंश का बड़ा इतिहास निहित है। यों तो नागवंश के 
					संबंध में भाँति भाँति की मान्यताएँ हैं परन्तु सभी विद्वान इस 
					बात पर एक मत हैं कि नाग भारत की एक प्रतापी जाति थी। आधुनिक 
					युग के नाग जातिधारी भी इसी नाग प्रजाति के ही वंशज होने 
					चाहिये।
 
 नाग वंश के प्राचीनतम प्रमुख मनीषी के रूप में महर्षि कपिल 
					मुनि का नाम लिया जा सकता है जिन्होंने राजा सगर के साठ हजार 
					पुत्रों को भस्म किया था। कालान्तर में राजा सगर के वंश में 
					राजा भगीरथ पैदा हुए जिनका तप सर्वविदित है। उन्होंने नाग 
					वंशीय मनीषी कपिल मुनि के द्वारा भस्मीभूत किये गए अपने पुरखों 
					की आत्मा की मुक्ति के लिये कठोर तप किया तथा तप से प्रसन्न 
					हुए भगवान शंकर से वरदान माँगकर माँ गंगा को धरा पर उतारा । 
					गंगा के धरती पर अवतरण के उपरांत ही राजा सगर के पुरखे तर सके। 
					यही गंगा आज भी भारतवर्ष की जीवनरेखा है।
 
 नाग वंश का नाम नागों के नाम पर संभवतः नाग की तरह के रंग के 
					कारण अथवा नागों को पालने में दक्ष होने के कारण पड़ा होगा। 
					नाग प्रजाति की विशेषता यह थी कि वे नाग की तरह घात करके छिपने 
					में दक्ष थे तथा नागों को पकड़कर उनका विष निकाल कर विभिन्न 
					प्रकार से प्रयोग में लाते थे। एक ऐसे ही घातक अस्त्र का नाम 
					नागपाश होता था।
 
 महाभारत काल में श्रीकृष्ण के सहयोग से अर्जुन ने हस्तिनापुर 
					राज्य के विस्तार हेतु खांडव वन का दहन किया जिससे इस क्षेत्र 
					में निवास करने वाली नाग प्रजाति का भारी विध्न विनाश हुआ। इस 
					प्रकार अर्जुन के हाथों अनजाने ही नाग वंश को बहुत हानि पहुँच 
					गई। कहा जाता है कि नाग प्रजाति पीढ़ी दर पीढ़ी वंश दर वंश 
					अपना बदला नही छोड़ती। नाग वंश ने हस्तिनापुर राज्य से अपने 
					विनाश का बदला लेने की ठानी। इसी मान्यता को सिद्ध करते हुए एक 
					नागवंशी योद्धा तक्षक द्वारा अर्जुन के पुत्र परीक्षित को मार 
					दिया गया। परीक्षित के प्राण नाग-विष के बुझे उसी घातक अस्त्र 
					द्वारा लिये गए जिसे नागपाश कहा जाता था। क्रोधित होकर 
					परीक्षित के पुत्र जनमेजय द्वारा अनेक नागपुरूषों को बंदी 
					बनाकर आग में जीवित झोंक दिया गया और इसे सर्प यज्ञ का नाम 
					दिया तो नागराज आस्तिक के द्वारा कुछ प्रमुख नागों को बचा लिया 
					गया। आस्तिक मुनि ने श्रावण शुक्ल पंचमी के दिन नागों की रक्षा 
					की थी तभी नागपंचमी की यह तिथि पर्व के रूप में मनायी जाने 
					लगी।
 
 कहा जाता है कि तब सर्पो ने आस्तिक मुनि को यह वरदान दिया था 
					कि जहाँ जहाँ उनका नाम लिया जायेगा वहाँ वहाँ सर्प अपना ज़हर 
					नहीं फैलाएँगे न ही कोई उपद्रव करेंगे। आज भी यदि कहीं साँप आ 
					जाते हैं तो - मुनि राजम् अस्तिकम् नमः मंत्र का जाप किये जाने 
					पर सर्प के लौट जाने का विश्वास विद्यमान है।
 
 इस प्रकार इतिहास में नागवंश के रक्षक के रूप में आस्तिक 
					महाराज का नाम लिया जाता है। इनकी माता मनसा देवी तीर्थ के रूप 
					में हरिद्वार मे विराजमान है। हरदोई जनपद के लिये यह सौभाग्य 
					का विषय होना चाहिये कि यहाँ एक स्थान पर नागों के इन्हीं 
					रक्षक आस्तिक बाबा का दरबार है जो श्रद्धा का केन्द्र होने के 
					साथ साथ स्वयं में प्राग्ऐतिहासिक काल की अनेक कथाओं का मूल भी 
					समेटे है।
 
 हरदोई के एक कस्बे का नाम बिलग्राम है। नवसृजित सवायजपुर तहसील 
					बनने से पहले कटियारी पंचनद क्षेत्र का एक गाँव बारामऊ इसी 
					तहसील बिलग्राम में आता था। यह ग्राम बारामऊ गंगा और रामगंगा 
					नदी के संगम से पहले निर्मित घाटी में पड़ता है। यहाँ जनपद 
					फर्रूखाबाद में गंगा और रामगंगा नदी पर बने पुलों के बीच स्थित 
					रामनगरिया मेला क्षेत्र से होकर जाने वाले मार्ग द्वारा पहुँचा 
					जा सकता है।
 
 रामनगरिया मेला क्षेत्र से लगगभ २५ किलोमीटर दूर इस घाटी को 
					जिसे स्थानीय भाषा में कटरी कहा जाता है में चलने के बाद पहला 
					गाँव अर्जुनपुर पड़ता है। इस स्थान से लगभग पन्द्रह किलोमीटर 
					दूर चलने पर बारामऊ नामक एक ग्राम पड़ता है, जो पुरातात्विक 
					दृष्टि से अत्यंत उपयोगी है। इस ग्राम में प्रवेश करने पर एक 
					प्राचीन मंदिर मिलता है जिसके गुंबद और उस पर चढे पीतल के कलश 
					की आकृति देखकर इसकी एतिहासिकता का सहज अनुमान लगाया जा सकता 
					है। जब मैं यहाँ पहुँचकर इसके निर्माण का साक्ष्य तलाशने लगा 
					तो इस जीर्ण मंदिर की दीवार पर एक शिलालेख लगा दिखा जिस पर 
					अंकित तिथि के अनुसार यह निर्माण लगभग १५० वर्ष पूर्व संवत 
					१९४२ में होना बताया गया जबकि खंडित मूर्तियों के अवशेष अधिक 
					पुराने प्रतीत होते है।
 
 मैं जब इस गाँव में चंद कदम आगे आगे बढ़ा तो इसी गाँव के बीच 
					स्थित आस्तिक बाबा का दरबार देखने को मिला। इस दरबार के दर्शन 
					करने पर अनेक मिथों और पौराणिक तथ्यों की जानकारी हुयी। इस 
					दरबार में सर्पो की अनेक मूर्तियाँ तो हैं ही मिट्टी की कच्चे 
					फर्श पर सर्पो की बांबियाँ भी हैं। सर्प देवता की एक मुख्य 
					मूर्ति है जिसके चारों ओर राख की बनी हुआ अरघे जैसी आकृति है। 
					स्थानीय नागरिक किसी शुभ कार्य को प्रारंभ करने से पूर्व पहला 
					निमंत्रण आस्तिक बाबा के दरबार में देते हैं और त्यौहार के 
					अवसर पर भोजन बनाकर पहली खुराक आस्तिक बाबा को अर्पित करते 
					हैं। आस्तिक बाबा के प्रांगण मे नीम का एक पुराना पेड़ है 
					जिसके नीचे शिवलिंग स्थापित है। यहाँ के स्थानीय निवासियों का 
					विश्वास है कि आस्तिक बाबा उनके क्षेत्र के कुलदेवता है और 
					उनके परिवार की सुरक्षा के लिये आस्तिक बाबा की कृपा का उन पर 
					बना रहना ही एकमात्र शर्त है। यहाँ पर नाग के प्रतीक के रूप 
					में चाँदी अथवा ताँबे की सर्प प्रतिमाएँ अथवा रस्सी में सात 
					गाँठें लगाकर उसे नाम का प्रतीक मानकर उसकी पूजा की जाती है। 
					सर्प की बाम्बी का पूजन किया जाता है और दूध चढ़ाया जाता है। 
					गाँव से बाहर बस गए लोग बाम्बी की मिट्टी अपने घर में लाकर 
					कच्चा दूध मिलाकर चक्की चूल्हे आदि पर सर्प की आकृति बनाते 
					हैं। शेष मिट्टी में अन्न के बीज बोते हैं जिसे खत्ती गाड़ना 
					कहा जाता है। इस दिन भीगा हुआ बाजरा और मोठ खाने का भी विधान 
					है ।
 
 मन में विचार कौंधा कि इस गाँव में आस्तिक बाबा का दरबार स्थित 
					होना निश्चित रूप से किसी पौराणिकता से जुड़ा होगा। उल्लेखनीय 
					है कि इस क्षेत्र में यह किवदंती भी व्याप्त है कि भगवान कृष्ण 
					के भाई बलराम के नाम पर ही बिलग्राम नाम का कस्बा बसाया गया 
					था। तो क्या सचमुच बिलग्राम तहसील के इस ग्राम का संबंध 
					महाभारतकाल से है? कहीं यह स्थल अर्जुन के पौत्र जनमेजय द्वारा 
					सर्प यज्ञ में दी गयी नागवंश की आहुति में प्रमुख नागों को 
					बचाने के लिये आस्तिक द्वारा किये गए किसी प्रयास की 
					ऐतिहासिकता से तो नहीं जुड़ा है? क्या महाभारत काल में अर्जुन 
					के हस्तिनापुर के विस्तार के लिये जिस खांडव वन को तहस नहस 
					किया गया वह गंगा रामगंगा की इसी घाटी में स्थित था? क्या 
					महाभारतकालीन पात्र जनमेजय आस्तिक आदि का इस क्षेत्र से कोई 
					संबंध है? हस्तिनापुर राज्य के विस्तार हेतु खांडव वन को नष्ट 
					करने में जिस श्रीकृष्ण की प्रमुख भूमिका थी क्या उनके बड़े 
					भाई बलराम के नाम पर स्थापित बिलग्राम की जो किंवदंती है उसके 
					पीछे कोई ऐतिहासिकता तो नहीं?
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