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इतिहास


 
धातु शिल्प की अद्भुत कलाकृति-
दिल्ली की किल्ली
- स्वामी वाहिद काजमी


नई दिल्ली के महरौली क्षेत्र में स्थित विश्वविख्यात कुतुबमीनार के परिसर में जो विशाल आवासीय तथा अन्य इमारतें कभी गगनमंडल का चुंबन किया करती थीं, अब खंडहरों में बदली हुई विद्यमान हैं। उन्हीं में से एक है, कुतुबद्दीन ऐबक (राज्याभिषेक १२०५) व उसके बाद के बादशाहों द्वारा निर्मित मस्जिद कुव्वतुल इस्लाम के ध्वंसावशेष। उसके विशाल दरवाजे अभी भी अपने गहन मौन से, अतीत के वैभव की कहानी सुनाते, उदासी में डूबे हैं। इसी के प्रांगण में एक भारी-भरकम लौह-स्तंभ (लाट) खुले आकाश तले, शान से सिर ऊँचा किए, अजब गर्वीले अंदाज से खड़ा है। इसके इस गर्वीले भाव में जो एक धीर-गंभीर विजेता-सी मुस्कान छिपी है, वह अनुचित नहीं है। इसने कालचक्र की समस्त कठोरताओं से लोहा लेकर खुद को विद्यमान और अजेय रखा है।

दृढ़ता से गड़ा यह लौह-स्तंभ या लाट एड़ी से चोटी तक ठोस लोहे की बना है। सदियों तक आँधी, तूफानों और भूकंपों के धक्के व प्रहार झेलने के बाद भी न तो यह रंचमात्र भी हिला-डुला और न ही उसके शीशे जैसे स्निग्ध व स्वच्छ श्यामल शरीर पर कोई आँच आई। जंग का कोई धब्बा भी इसे स्पर्श नहीं कर सका। इसकी इस विलक्षणता के बारे में किववदंतियों के अंदाज में चमत्कार के अलावा कुछ और शायद ही कभी बताया गया होगा। किवदंतियाँ जितनी सुंदर प्रतीत होती हैं, सत्य कहाँ होती हैं! यथा- एक तंत्र-मंत्रशास्त्री के अनुसार इस पर जंग न लगने का कारण है- इसके निर्माण के समय विधिवत शक्तिशाली मंत्रोच्चार की ध्वनि के अनवरत प्रहार! अब भला इसे क्या कहा जाए!

इस लौह-स्तंभ के बारे में जो विज्ञान-सम्मत निष्कर्ष सामने आए हैं, उनके अनुसार इसके निर्माण में गंधक तथा मैंगनीज तत्वों (अयस्कों) की मात्रा लगभग शून्य रही होगी। बहुत अधिक शुद्ध किस्म के लौह-अयस्क से तैयार किए जाने के कारण, बहुत संभव है, इसकी बाह्य सतह पर लोहे के चुंबकीय ऑक्साइड (स्लैंम अथवा इस्पात) की गहरी परत जम गई हो। इसके अलावा दिल्ली की खास शुष्क जलवायु ने भी इसे बे-दाग रखने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

वैज्ञानिक परीक्षणों से एक सच्चाई यह भी सामने आई है कि इस स्तंभ के जमीन से बाहर खड़े भाग पर, जंग का भले एक धब्बा तक नहीं आ सका हो किंतु जितना हिस्सा धरती के भीतर है, उस पर काफी-कुछ जंग लग चुकी है। यहाँ तक कि जंग के कारण इसकी कुल भूमिगत मोटाई का लगभग तीन चौथाई हिस्सा ही शेष बचा है, एक चौथाई भाग को जंग चाट चुकी है।

यह स्तंभ चौबीस फुट ऊँचा है। नीचे जड़ की ओर इसका व्यास पाँच फुट तीन इंच और ऊपर शीर्ष की ओर एक फुट का है! वलयाकार कलात्मक शीर्ष भाग साढ़े तीन फुट का है। स्तंभ का कुल वजन लगभग छह टन है।

इस अति सुदृढ़ तथा अद्वितीय स्तंभ के बारे में पहले ऐसा विचार था- जैसा कि देखने से भी लगता है कि यह समूचा स्तंभ ढलवाँ लोहे (कास्ट आयरन) से बना होना चाहिए। मगर वास्तव में ऐसा नहीं है। प्राचीन भारत में ताँबे की ढलाई तो खूब होती थी किंतु लोहे की ढलाई का काम इतने आला पैमाने पर नहीं होता था कि इतना भारी खंभा ढाल लिया जाता। धातु-वैज्ञानिकों के अनुसार ढलवाँ लोहा प्राप्त करने के लिए जितने उच्च तापमान (यानी १५३० डिग्री सें.ग्रे. से भी अधिक) की आवश्यकता पड़ती है, प्राचीन भारत के धातुकर्मी इतने उच्च तापमान के साधन व उपकरण नहीं रखते थे। अतः विशाल पैमाने पर ढलवाँ लोहे का उपयोग यहाँ नहीं हो सकता था। अतः यह स्तंभ वास्तव में पिटवाँ लोहे (रॉट आयरन) से निर्मित हुआ है। पिटवाँ लोहे के कई खंड अलग-अलग तैयार करके फिर उन्हें निहायत खूबसूरती, सफाई व कारीगरी के साथ जोड़कर ऐसा बेजोड़ रूप दिया गया कि कोई नहीं कह सकता कि यह पिटवाँ लोहे से बना होगा। इस पर जंग न लगने का एक खास कारण यह भी है। पिटवाँ लोहे की कारीगरी की ऐसी मिसाल अन्यत्र शायद ही मिले जो इस स्तंभ जैसा अजूबा हो।

लौह-जगत की इस कलाकृति पर तत्कालीन लिपि व संस्कृत भाषा के तीन श्लोक अंकित हैं जिनका मिला-जुला भावानुवाद-सारांश फारसी के इतिहास ग्रंथों में भी देखने में आया, पर उससे बहुत-सी बातें अस्पष्ट ही रह जाती हैं। कदाचित वे स्पष्ट होतीं भी नहीं यदि पं॰ विश्वेश्वर नाथ के पुत्र पं॰ नवल गोस्वामी ने इस स्तंभ पर उत्कीर्ण लेख का हिंदी अनुवाद प्रांगण के दाहिनी ओर वाले दालान की दीवार पर, संगमनरमर की चौरस शिला पर अंकित कराकर न जड़ा होता। ईमानदारी की बात यह है कि गोस्वामी ने यह ऐसा महत्वपूर्ण कार्य किया, जो हमारा साधन संपन्न पुरातत्व विभाग भी नहीं कर पाया। लौह-स्तंभ पर उत्कीर्ण प्रशस्तिपरक श्लोकों के संस्कृत भाषा के पाठ के अलावा उन्होंने तीन अलग-अलग पट्टिकाओं पर हिंदी, अंग्रेजी तथा उर्दू में उसका अनुवाद कराकर १ जनवरी सन् १९०३ को यहाँ लगवाया। श्लोकों का हिंदी अनुवाद इस प्रकार है-

‘जिसकी भुजा पर खड्ग-कीर्ति, जब उसने बंग देश की लड़ाई में, इकट्ठे होकर आए हुए शत्रुओं को परास्त किया, छाती से ढकेलकर।
जिसने लड़ाई में सिंधु (नदी) के पास धाराओं को पार करके वाह्लीकों को जीता।
जिसके बल-रूप वायु से आज तक भी दक्षिणी समुद्र सुगंधित हो रहा है।
जो राजा मानो थककर इस लोक को छोड़कर उस लोक को चला गया है और शरीर से अपने कर्मों से जीते हुए स्वर्ग को चला गया है, परंतु कीर्ति से इस भूमि पर विद्यमान है।
जिसका शेष रहा हुआ यत्न शत्रुओं का नाश करके बड़े जंगल में शांत की हुई अग्नि के समान किसी को नहीं छोड़ता।
जिसने पृथ्वी में भुजबल से चिरकाल तक चक्रवर्ती राज्य प्राप्त किया।
नाम जिसका चंद्र है।
जिसके मुख की छवि चंद्रमा जैसी है।
उस भूप ने शक्ति से अपने मन को विष्णु में लगाकर, विष्णुपद नामक पहाड़ पर, भगवान विष्णु का ऊँचा ध्वज-स्तंभ स्थापित किया (४ सदी ई॰)।’

जाहिर है कि यह भाषानुवाद मात्र नहीं, सटीक भावानुवाद है और बेहद पंडिताऊ शैली के कारण भाषा-सौंदर्य भी दब गया है।
उक्त टीकानुमा अनुवाद से कुछ बातें स्पष्ट होकर सामने आती हैं। सबसे पहली यह कि पुराने फारसी इतिहास ग्रंथों का अनुसरण करके सर सैयद अहमद खाँ ने इस स्तंभ से संबंधित राजा का नाम धावा उर्फ मेधावी बताया है, उसका नाम वास्तव में चंद्र है। संभवतया यह उसका पूरा नहीं, संक्षिप्त नाम हो। दूसरी यह कि राजा चंद्र की दिग्विजय के स्मृति रूप इस स्थापित स्तंभ का नाम विष्णु-ध्वज है। तीसरी यह कि इसे विष्णुपद नामक किसी पहाड़ी पर पहले स्थापित किया गया था।

अब कुछ बातों पर विचार करना सरल हो जाता है।
लौह-स्तंभ पर उत्कीर्ण प्रशस्तिपरक श्लोकों में जिस राजा चंद्र का उल्लेख बतौर चक्रवर्ती सम्राट के रूप में हुआ है, वह वास्तव में कहाँ का और कौन-सा राजा था- इस बारे में कई मत सामने आते हैं। मगर इतना निश्चित है कि वह प्राचीन ‘दिल्लियों’ (दिल्ली नगरी नौ बार उजड़ी और बसी है) में से किसी का भी राजा नहीं होगा। स्तंभ पर उत्कीर्ण श्लोकों के मूल-अक्षर गुप्तकाल में प्रचलित रही ब्राह्मी लिपि के अक्षरों से बड़ी सीमा तक समानता रखते हैं। उक्त लिपि ईसा की चौथी-पाँचवीं शदी में प्रचलन में थी और यही समय प्रशस्ति-श्लोकों के अनुवाद के अंत में अंकित है। यह एक बड़ा अच्छा सबूत है और इस आधार पर एक संभावना यह उभरकर सामने आई थी कि उल्लिखित राजा चंद्र कहीं गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त (द्वितीय) तो नहीं है।

स्तंभ पर उत्कीर्ण प्रशस्ति-लेख खुद गवाही दे रहा है कि इसे विष्णुपद नामक किसी पर्वत पर स्थापित किया गया था। यह ठीक है कि जिस जमाने में यहाँ राय पिथौरा (पृथ्वीराज चौहान) का दुर्ग बना और बाद में उसमें तोड़-फोड़ तथा परिवर्तन भी हुए, कालांतर में और भी किले बने, मंदिर बने, महल आदि भी बने और नष्ट भी होते रहे, तब भी यह पूरा पहाड़ी क्षेत्र ही था। मगर इस पहाड़ी का नाम कभी भी, कहीं भी विष्णुपद नहीं मिलता। तो विष्णुपद नामक पहाड़ी अथवा पहाड़ वास्तव में कहाँ था? इस सवाल का जवाब खोजने के लिए काफी भटकना पड़ता है। इतना तो स्पष्ट है कि आज यह जहाँ विद्यमान है, इसे यहाँ नहीं, वास्तव में कहीं और स्थापित किया गया था। सर सैयद ने भी यही विचार व्यक्त किया था, जो अब गोस्वामी जी के अनुवाद ने भी सही साबित कर दिया कि कभी बाद में इसे इसके मूल स्थान से लाकर यहाँ खड़ा किया गया होगा।

इसके साथ ही एक प्रश्न यह भी सामने आकर खड़ा हो जाता है कि स्तंभ पर अंकित श्लोकों में राजा का पूरा नाम नहीं, केवल चंद्र शब्द आया है, तो क्यों नहीं उसे चंद्रगुप्त मौर्य माना जाए? ऐसा कुछ लेखक मानते भी आए हैं।

जाने-माने इतिहासकार नगेंद्र नाथ घोष ने भारत का प्राचीन इतिहास ग्रंथ पेश किया है। ध्यान रहे कि भारत का इतिहास कई इतिहासकारों ने लिखा है, जिसमें आर्यों के भारत-प्रवेश से लेकर उन्नीसवीं सदी तक का विवरण समेट लिया गया है। किंतु भारत के अति प्राचीन युग का इतिहास कुछ ही विद्वान लिख गए हैं, जिसमें उत्तर भारत के ग्यारहवीं सदी तक के इतिहास को मूल विषय बनाया गया है। घोष उन्हीं गिने-चुने विद्वानों में से एक हैं। उनका इतिहास ग्रंथ मूल रूप में अंग्रेजी में है। उसका अविकल हिंदी अनुवाद पहली बार १९५१ में छपा था। उसमें उन्होंने यह समस्या बड़ी अच्छी तरह सुलझा दी है।

महरौली (नई दिल्ली) के इस सुविदित लौह-स्तंभ पर संस्कृत छंदों और पाँचवी शदी ईसवी तक प्रचलित रही गुप्त लिपि में जिस राजा चंद्र का उल्लेख है, वह चंद्रगुप्त (द्वितीय) है, जिसे उसकी उपाधि ‘विक्रमादित्य’ से अधिक याद किया जाता है। स्तंभ पर उत्कीर्ण लेख में कहा गया है कि उसे विष्णुपद नामक पहाड़ी पर स्थापित किया गया था जो दिल्ली की कोई प्राचीन पहाड़ी मानी जाती है। किंतु यह भ्रामक विचार है। इसके अलावा स्तंभ पर उत्कीर्ण श्लोक चंद्रगुप्त मौर्य की प्रशंसा नहीं, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की प्रशस्ति करते हैं।

डा. घोष ने जो निष्कर्ष निकाले हैं, उसका समर्थन स्तंभ पर अंकित प्रशस्ति-वाक्य खुद कर रहे हैं अर्थात् वाह्लीकों (वर्तमान में बलख, बुखारा आदि के प्रदेश) को जीतना। दक्षिणी समुद्र तक साम्राज्य विस्तार करना। विष्णु भक्त होना। ये सभी घटनाएँ चंद्रगुप्त मौर्य पर नहीं, गुप्त वंश के सबसे प्रतापी राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य पर ही सटीक बैठती हैं। उसी ने दक्षिण वाकाटकों से लेकर उत्तर में यौधेय-गणों को परास्त करके विशाल साम्राज्य पर अपनी कीर्ति-पताका फहराने में सफलता पाई थी। विपाशा (व्यास) नदी के तट पर जितने राजकुल थे, उन पर उसी ने विजय पाई थी। सबसे शक्तिशाली यौधेय-गण थे, जिनका राज्य चंबल नदी (वर्तमान में भिंड का इलाका, मध्य प्रदेश) से लेकर हिमालय की तराई तक फैला हुआ था। अधिकतर इतिहासकारों ने यौधेय गणों की ओर से आँखें मूँद रखी हैं। मगर महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी कृति जय यौधेय में उन्हीं का इतिहास एवं जीवन उपन्यस्त करके वास्तव में महत्वपूर्ण कार्य किया है।

तात्पर्य यह कि लौह-स्तंभ का लेख जिस राजा को चंद्र नाम से जता रहा है, वह वही हमारा जाना-माना राजा विक्रमादित्य है जो अवंति, लाट, सौराष्ट्र, मालवा आदि का अधिपति था। उसी ने अपने राज्याभिषेक के समय से एक नया संवत चलाया-विक्रमी संवत। इसी विक्रमादित्य के दरबारी नवरत्नों में से एक हुआ, संस्कृत के कालजयी कवियों में सबसे प्रसिद्ध कवि और लेखक-कालिदास। सिंहासन बत्तीसी, बेताल पच्चीसी आदि लोक-रुचि के कथा-संग्रह उसी राजा विक्रमादित्य का आख्यान करते हैं। राजा विक्रमादित्य आत्म-प्रचार तथा आत्म-विज्ञापन का रसिया था। यहाँ तक कि उसने अपनी मुद्राओं (सिक्कों) पर आत्म-प्रशस्तिपरक श्लोक अथवा वाक्य बड़ी सुंदरता से अंकित करवाए थे। यथा- ‘सिंह विक्रम, सिंह चंद्र’ आदि।

लेकिन इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि लौह-स्तंभ पर अंकित प्रशस्ति भी उसी ने लिखवा रखी होगी। लौह-स्तंभ पर उत्कीर्ण श्लोक साफ-साफ कह रहा है कि- ‘जो राजा मानो थककर, इस लोक को छोड़कर दूसरे लोक को चला गया है, और शरीर से अपने कर्मों से जीते हुए, स्वर्ग को चला गया है।’

मतलब यह कि राजा विक्रमादित्य की मृत्यु के भी काफी बाद में यह प्रशस्ति लिखी गई है। कौन था वह? डा॰ घोष के अनुसार वह था - गुप्तवंशी राजा कुमार गुप्त (प्रथम) उसी ने विक्रमादित्य के निधनोपरांत, पुरखों की प्रशस्ति अंकित कर रखने की परंपरानुसार यह प्रशस्ति लिखवाई थी और उसी ने इस लौह-स्तंभ को विष्णुपद नामक पहाड़ी पर स्थापित कराया था।

अब अगला सवाल! विष्णुपद नामक पहाड़ी कहाँ थी?
इस प्रश्न के उत्तर से पहले एक और बात जान लेनी चाहिए। डा. रामकृष्ण गोपाल भंडारकर प्राच्य विद्याओं तथा इतिहास के ऐसे सुविख्यात तथा मूर्धन्य विद्वान थे कि जिन्होंने मार्टिन हॉग, गोल्ड स्टुकर, विन्सेंट स्मिथ आदि सुविख्यात इतिहासकारों के यहाँ अनगिनत भूलें खोजकर केवल उनकी आलोचना ही नहीं बल्कि उनको सुधारने का भी महत कार्य किया। उन्हीं डा. भंडारकर ने विष्णुपद पहाड़ी की सही स्थिति बाल्मीकि कृत रामायण के एक श्लोक के आधार पर विपाशा (व्यास) नदी के किनारे निर्धारित की है और उसका नाम विष्णुगिरि बताया है। उसी पहाड़ी पर कुमारगुप्त (प्रथम) ने यह लौह-स्तंभ स्थापित कराया था। संभवतः इसके द्वारा कुमारगुप्त का अभिप्राय अपने पुरखों के साम्राज्य की सीमा का संकेत देना भी रहा होगा वर्ना वह भारत के किसी मध्यवर्ती भू-भाग में भी इसे स्थापित करा सकता था।

बहरहाल जब यह सच्चाई सामने आ गई कि महरौली में मौजूद यह लौह-स्तंभ विपाशा नदी के किनारे स्थित विष्णुपद गिरि पर स्थापित कराया गया था तो अब यह खोज कराना आवश्यक है कि विष्णुपद पहाड़ी विपाशा नदी के किनारे, कहाँ स्थित थी? पूरा हिमाचल प्रदेश पहाड़ पर ही बसा हुआ है। अतः संभव है वह मौजूदा हिमाचल प्रदेश में ही कहीं रही होगी और अब भी होगी, भले ही उसका नाम अब विष्णुपद गिरि नहीं जाना जाता हो। इतिहास और पुरातत्व में गहन रुचि रखने वाले हिमाचल प्रदेश के विद्वान इस ओर ध्यान दें और खोज करें तो अच्छा है।

अब एक अंतिम सवाल! घोष ने भी स्वीकार किया है कि बाद में यह स्तंभ किसी शक्तिशाली राजा के द्वारा दिल्ली लाकर स्थापित कर दिया गया था। कौन था वह शक्तिशाली राजा? इसका सटीक जवाब देता है सर सैयद अहमद खाँ कृत आसारुस्सनादीद ग्रंथ। उक्त ग्रंथ के अनुसार तोमर वंश का राजा अग्रपाल (राज्याभिषेक सन् १०५१) इस लौह-स्तंभ को वहाँ से लदवाकर दिल्ली लाया था। अग्रपाल के बाद जब उसके पुत्र पृथ्वीराज चौहान (राज्याभिषेक सन् १०७३) ने यहाँ आलीशान सूर्य मंदिर का निर्माण कराया तो यह लौह-स्तंभ यहाँ पहले से ही शान से सिर ऊँचा किए खड़ा था। कालांतर में कुतुबुद्दीन ऐबक ने (राज्याभिषेक सन् १२०५) ने यहाँ मस्जिद कुव्वतुलइस्लाम का निर्माण कराया तो यही स्थान मस्जिद का विशाल प्रांगण बना और लौह-स्तंभ जहाँ का तहाँ इस आँगन में शान से खड़ा रहने दिया गया।

अब मस्जिद भी खडंहरों में बदलकर रह गई, उसका विशाल दरवाला अभी शेष है। मस्जिद के प्रांगण में एक हिंदू राजा की प्रशस्ति अपने भाल पर अंकित किए अटल और गर्व से सिर ऊँचा किए खड़ा यह स्तंभ मौजूद है। मस्जिद का प्रांगण और यह लौह-स्तंभ इस देश की मुश्तर्का तहजीब और हिंदू-मुस्लिम एकता का सबसे अडिग सुट्टढ़ प्रतीक प्रतीत होता है।
क्या अब ऐसे धर्म-स्थानों का, ऐतिहासिक इमारतों का निर्माण नहीं हो सकता जिनसे ऐसी एकता का नमूना जाहिर हो? मिर्जा गालिब तो यहाँ तक कह गए हैं कि-
वफादारी बशर्ते इस्तवारी अस्ल ईमाँ है
मरे बुतखाने में तो काबे में गाड़ो बिरहमन को।

इस स्तंभ को लेकर पुराने वक्तों से एक मनोविनोद चला आ रहा था। लोग इससे एकदम सटकर खड़े हो जाते थे और इसे कौली में भरने की चेष्टा करते थे। जो इसे चाहे सामने से अथवा पीठ-पीछे हाथ ले जाकर, कौली में भरकर, दोनों हाथों की उगँलियाँ परस्पर स्पर्श कर लेता था, उसके भाग्य का सितारा प्रबल और जिसकी उँगलियाँ आपस में स्पर्श नहीं कर पाती थीं, उसके भाग्य का सितारा मंद माना जाता था। पुरातत्व विभाग द्वारा उसके गिर्द लोहे का मजबूत जंगला लगा दिए जाने से लोग अब अपने भाग्य की परीक्षा करने से वंचित रह गए। किंतु स्तंभ की सुरक्षा के लिए यह आवश्यक ही था।
गनीमत है कि इसका शरीर इतना चिकना है कि सुई तो क्या नुकीला सूजा लेकर भी इस पर कुछ लिखा नहीं जा सकता। इसलिए इसकी शारीरिक स्निग्धता बरकरार रह सकी वर्ना ऐतिहासिक-प्राचीन इमारतों की वही हालत होती है जो इस शेर में एक शायर ने बयान की है। पत्थरों की इस पीड़ा को इन पंक्तियों में व्यक्त किया जा सकता है-

कौन हमारा दर्द पढ़ेगा इन जख्मी दीवारों पर
अपना-अपना नाम लिखा है सब ही आने वालों ने।

अंतिम और रोचक बात यह कि छह टन वजनी इस लोहे की लाट को दिल्ली के पुराने रहिया-बसिया ‘दिल्ली की किल्ली’ भी कहते रहे हैं। यहाँ तक कि यह शब्द पुरानी पुस्तकों तक में मिल जाएगा। इतनी बड़ी और भारी भरकम है तो क्या! लोहे की है न, जमीन में गड़ी भी है। इसलिए ‘किल्ली’ नहीं तो और क्या! किल्ली अर्थात कील। लोक-मुख इसी प्रकार शब्दों का सरलीकरण करके स्मृति-पटल पर दर्ज रखता है। इसीलिए यहाँ इस शब्द का प्रयोग किया गया कि यह शब्द गुम न हो जाए।

बहरहाल सोलह सौ वर्षों से भी अधिक आयु का यह ऐतिहासिक लौह-स्तंभ भारत के प्राचीन कालीन रसायनज्ञों तथा धातु-कर्मियों के कौशल की अद्भुत कलाकृति है और दिल्ली की गोद में, विष्णुपद गिरि की अति महत्वपूर्ण अमानत के रूप में सुरक्षित है।

९ फरवरी २०१५

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