इतिहास

बैसाखी के अवसर पर जलियाँवाला कांड के बहाने

सब धर्मों के प्रतीक ऊधम सिंह
-सोती वीरेन्द्र चंद्र


वैशाखी के पवित्र पर्व के दिन अप्रैल १३, १९१९ को पंजाब के तत्कालीन राज्यपाल सर माइकेल ओडायर द्वारा अमृतसर के प्रसिद्ध जलियाँ वाला बाग में लगभग १०० निर्दोष, निःशस्त्र स्वतंत्रता प्रेमी नर-नारी एवं अबोध बालकों की भीषण नृशंस हत्या तथा सहस्त्रों को घायल करवाने पर जो आह उठी उसने सम्पूर्ण देश को शोकाकुल कर दिया था। सर ओडायर के इस कुकृत्य ने रवीन्द्र नाथ टैगोर के कवि हृदय को इतना उद्वेलित कर दिया कि उन्होंने ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम द्वारा प्रदत्त अपना ‘‘सर’’ का खिताब वाइस राय को वापस कर दिया। पंजाब में तो इतना अधिक आक्रोश हुआ कि जिधर देखिए आदमी औरत और बच्चे गाते फिरते:
पगड़ी सम्भाल ओये अट्टा, पगड़ी सम्भाल ओये ऐना।
फिरंगियाँ तेरा लुट लया माल ओये।।

पंजाब के राज्यपाल सर माइकल ओडायर ने बिना पूर्व सूचना एवं चेतावनी के दनादन अंधा-धुंध गोलियों की बौछारों द्वारा अक्षम्य नर संहार करा मृत्यु का ताण्डव नृत्य कराया था, जिसमें तड़प-तड़प कर निःसहाय एवं निरपराध लोग मरे थे।
उक्त कांड के दिन वह सभा डाक्टर सैफउद्दीन किचलू एवं डाक्टर सत्यपाल की गिरफ्तारी का विरोध प्रकट करने के लिए आयोजित की गई थी। उस सभा में हंसराज नाम के एक सज्जन जब भाषण दे रहे थे तक यद्यपि वहाँ गोली तो, अनायास सेना के एक जनरल डायर के नेतृत्व में ५० सिपाहियों द्वारा चलवायी गई थी परन्तु इस कांड के मुख्य दोषी पंजाब के राज्यपाल सर माइकेल ओडायर थे जिन्होंने फायरिंग का आदेश दिया था। जनरल डायर की मृत्यु १९२७ में हो गई। उन्होंने अत्यन्त गर्व से कहा था कि १६५० राउन्ड फायर किए गए थे। जिसमे एक गोली भी व्यर्थ नहीं गई।

अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। एक दिन उधम सिंह ने ‘‘लन्दन टाइम्स’’ में पढ़ा कि मार्च १३, १९४० को लन्दन के कैक्सटन हाल में रायल सेन्ट्रल एशियाटिक सोसाइटी एवं ईस्ट इंडियन एसोशियेसन के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित की गई है। उसमें सर माइकेल ओडायर एवं सेक्रेटरी आफ स्टेट फार इंडिया लार्ड जेटलेण्ड आमंत्रित हैं। जिस मौके को उधम सिंह ढूढते थे उसे हाथ लगा देख कर उस सभा में वह दर्शक का पास लेकर पहुँच गए। वहाँ लगभग ४:३० बजे अपराह्न जब सर ओडायर अपने स्वभाव के अनुसार भारतीयों के विरुद्ध अत्यन्त अपमानजनक एवं उत्तेजित भाषा में भाषण में कह रहे थे कि इन भारतीयों को इसी लौह हस्त से बरतना चाहिए। भारत माता के स्वाभिमानी वीर पुंगव सपूत उधम सिंह ने अपनी पिस्तौल निकाली और दो फायर दाग करके उन्हें वहीं धराशायी कर उनके द्वारा जो जलियाँ वाला बाग में अत्यन्त अमानुषिक अत्याचार कराया गया था उसका फल उन्हें चखा दिया। लार्ड जेटलेण्ड भी गम्भीर रूप से घायल हो गये थे। इस प्रकार उधम सिंह ने अपनी प्रतिज्ञा का लक्ष्य २१ वर्ष बाद पूरा कर दिखाया।

यदि उधम सिंह चाहते तो वहाँ से भाग निकलते परन्तु उस निर्भय शूरवीर ने वीरोचित कार्य कर स्वयं अपने आपको पुलिस को समर्पित कर दिया।

द इन्टरनेशनल ह्युमन राइट्स आर्गेनाइजेशन के अध्यक्ष डी.एस. गिल ने दो गोपनीय दस्तावेज जारी किए। उन्हें इंडियन वर्करस एसोसियेशन, ग्रेटब्रिटेन एवं लालकर न्यूजपेपर ने ब्रिटिश होम आफिस से लगभग ५० वर्ष बाद प्रयत्न कर, अगस्त १९९६ में उपलब्ध किया था। इनमें से एक दस्तावेज सरदार उधम सिंह का ‘कबूली बयान‘ था जिसे डिवीजनल डिडेक्टिव इंस्पेक्टर जॉन स्वेन ने पुलिस सुपरिटेंडेंट सेन्डस की उपस्थिति में लिखा था।

उधम सिंह के विरुद्ध लन्दन की ओल्ड वैली में जज एटकिनसन की अदालत में मुकदमा चलाया गया। एक जर्मन वकील ने उनकी देश भक्ति की भावना से प्रभावित होकर उनकी पैरवी की। कटघरे की रेलिंग को थपथपाते हुए उधम सिंह का बयान था: ‘‘मैंने ऐसा किया क्योंकि वह इसी योग्य थे। मैंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अन्तर्गत भारत में मनुष्यों को भूखे मरते देखा है। मेरे लिए ऐसा करना अपने देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाना था। मुझे इसकी रत्ती भर चिन्ता नहीं कि मुझे १० वर्ष, २० वर्ष, ५० वर्ष की कैद या फाँसी की सजा मिलती है। क्योंकि मैं एक उदात्त उद्देश्य के लिए मर रहा हूँ। जज की ओर मुखातिब होते हुए उधम सिंह ने गरज कर कहा, ‘‘मैं कहता हूँ ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो। यदि आप में रत्तीभर मानवता है तो आपको शर्म से मर जाना चाहिए। जिस अत्याचार एवं खून के प्यासे होने के तरीके से यह तथाकथित बुद्धिजीवी, जो अपने आपको विश्व में सभ्यता का सिरमौर होने का दावा करते हैं, दोगले खून के हैं।’’ ‘‘मुझे मरने में गर्व है। जब मैं मर जाऊँगा मेरे हजारों देशवासी मेरी जगह देश को आजाद कराने और तुम गन्दे कुत्तों को भगाने के लिए आ जाएंगे।’’ उन्हें फाँसी का मृत्यु दण्ड दिया गया। इस अद्वितीय साहसी वीर पुरुष को पेन्टोन विल्ली कारावास में जून १३, १९४० को फाँसी दे दी गई।

इस सम्बन्ध में यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि उनके विरुद्ध अभियोग की सुनवाई आरम्भ होने पर जब ब्रिटिश जज ने उनसे पूछा कि क्या उनका नाम उधम सिंह है ? उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘नहीं’’ मेरा नाम मुहम्मद सिंह आजाद है। मुहम्मद मुसलमानों के लिए, सिंह सिक्खों के लिए एवं आजाद भारत की स्वतंत्रता के लिए। मैं स्वतंत्र भारत का तथा उसके समस्त धर्मों का प्रतिनिधित्व करता हूँ और उसका प्रतीक हूँ।’’

इस वीर पुरुष का जीवन प्रारम्भ से ही अत्यधिक संघर्षमय रहा। उनका जन्म स्थान होने का गौरव पंजाब के संगरूर जिले अन्तर्गत सुनाम नामक ग्राम को है। उनका जन्म दिसम्बर २९, १८९९ को पिता सरदार टेही सिंह कम्भोजी के गृह में हुआ था। वह एक निर्धन कृषक थे तथा बाद को उन्होंने एक रेलवे लेविल क्रासिंग पर गेट मैन के पद पर नौकरी कर ली थी। उधम सिंह बाल्यकाल में ही मातृ-पितृ विहीन हो गए थे। अतएव उनको अपना बाल्यकाल एक अनाथालय में व्यतीत करना पड़ा। वह अपने एक सम्बन्धी चंचल सिंह, जो नेत्रहीन थे, के साथ रह कर एक खालसा स्कूल में पढ़े और मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उधम सिंह के हृदय में देश के अपमान का बदला लेने की जो भावना थी, उसके उद्रेक को कोई रोक न सका। वह अपने हट प्रण की धुन में सदा रहते थे। अतएव १९२३ में वह दक्षिण अफरीका गए एवं बाद को वह अमरीका भी गए। वहाँ उन्होंने इंजीनियरिंग की शिक्षा ग्रहण की। वर्ष १९२८ में सरदार भगत सिंह ने उनको वहाँ से वापस बुला लिया। अपनी सक्रिय राजनैतिक गतिविधियों के कारण उन्हें पाँच वर्ष की कड़ी सजा हुई। उन्हें १९३२ में छोड़ दिया गया था। अतएव १९३३ में भारत से जर्मनी चले गए। वर्ष १९३७ के आगे से वह इंगलैंड में ही रहे। पंजाब के भूतपूर्व राज्यपाल सर माइकेल ओडायर जो अवकाश ग्रहण करने के पश्चात वहाँ पहुँच गए थे उधम सिंह उनकी खोज में लगे रहे। पता लगने पर वह डेवन शायर के ग्रामीण अंचल से अपने को परिचित करने में लगे जहाँ ओडायर जाकर बस गए थे।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् १९४७ में इस क्रांतिवीर की अस्थियाँ लन्दन से भारत लाई गईं। पंजाब के राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री आदि प्रतिष्ठित सज्जनों की उपस्थिति में अस्थिकलश का जोरदार स्वागत किया गया था। दिल्ली के कोटला हाउस में उस अस्थिकलश को १९ जुलाई १९७४ को अत्यन्त सम्मान के साथ एक भव्य जुलूस में अमर शहीद के ग्राम सुनाम ले जाया गया। वहाँ उनकी शानदार समाधि का निर्माण किया गया। प्रति वर्ष उस समाधि पर मेला लगता है।

एसोशियेट प्रेस के समाचार के अनुसार १९ दिसंबर १९९२ के जनरल डायर के मेडल लन्दन के नेशनल आर्मी म्यूजियम ने सात हजार १५० पौंड की धनराशि से खरीदे थे। इसी नीलामी में वीर उधम सिंह के एक मेडल की नीलामी भी हुई जिसे एक व्यक्ति ने ७९२ पौंड में खरीदा। उधम सिंह का यह मेडल उन्हें वजीरिस्तान अभियान- जो पाकिस्तान में है- के दौरान रेलवे के साथ किये गये कार्य के लिए प्रदान किया गया था।

देश के गौरव की रक्षा करने में अपना जीवन बलिदान कर अद्भुत वीरता एवं साहस के धनी उधम सिंह ने जन-जन के हृदय में अपना स्थान बना अमरत्व प्राप्त किया। राम चन्द्र द्विवेदी ‘प्रदीप’ कवि की पंक्तियाँ स्मरणीय हैं:
ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर लो पानी।
जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी।।

१४ अप्रैल २०१४