डाक टिकटों पर क्रांतिकारी वीरांगनाएँ
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पूर्णिमा वर्मन
भारतीय नारी की वीरगाथाएँ विश्व भर में
प्रसिद्ध हैं। दुर्गा और चंडी के समान युद्धभूमि में शत्रुओं को
परास्त करने वाली वीरांगनाओं को सम्मानित करने के लिये भारतीय
डाकतार विभाग ने समय समय पर सुंदर डाक-टिकट जारी किये हैं।
इतिहास
की दृष्टि से जिस पहली युद्धवीर नारी पर टिकट जारी किया गया है
उसका नाम है रानी दुर्गावती। वे कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल
की एकमात्र संतान थीं। महोबा के राठ गाँव में १५२४ ईस्वी की
दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नामदुर्गावती रखा गया। गोंडवाना
(गढ़मंडला) के राजा संग्राम शाह ने उनके तेज साहस और शौर्य की
गाथाएँ सुनकर उन्हें अपने पुत्र दलपत शाह की वधू चुना था। विवाह के
तीन वर्ष बाद ही राजा दलपत शाह का देहांत हो गया। उस समय उनका
पुत्र केवल ३ वर्ष का था। ऐसी परिस्थिति में मुगल शासक बाजबहादुर
ने उनका राज्य हथियाने के लिये बार बार बार आक्रमण किये लेकिन उसे
मुँह की खानी पड़ी। इसके बाद अकबर ने अपने सेनापती आसफ खाँ को
आक्रमण के लिये भेजा। रानी ने बड़ी वीरता से उसका सामना किया लेकिन
युद्ध लंबा चला और घायल रानी ने अंतिम समय समीप देखकर अपनी कटार
सीने में भोंककर प्राण दे दिये। २४ जून १५६४ को उनकी पुण्यतिथि की
स्मृति में २४ जून १९८८ को जारी ६० पैसे मूल्य के इस टिकट पर रानी
दुर्गावती को युद्ध के मैदान में लड़ते हुए दिखाया गया है।
अंग्रेजों
के विरुद्ध जिस वीरांगना ने सबसे पहले आवाज उठाई वह थी भारत के कर्नाटक
प्रदेश में स्थित कित्तूर राज्य की
रानी चेन्नम्मा। उनका जन्म १७७८ में हुआ था। प्रथम भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम से भी ३३ वर्ष पूर्व उन्होंने अंग्रेजों की राज्य
हड़पने की नीति का विरोध करते हुए सशस्त्र युद्ध की घोषणा की
थी। अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में रानी चेनम्मा ने अपूर्व
शौर्य का प्रदर्शन किया। अंग्रेज़ों की सेना को उनके सामने दो
बार मुँह की खानी पड़ी थी लेकिन वे बहुत देर तक अँग्रेजों का
सामना नहीं कर सकीं। उन्हें कैद कर बेलहोंगल किले में रखा गया
जहाँ २१ फरवरी १८२९ को उनकी मृत्यु हो गई। । उन्हें भारत की
स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करने वाले सबसे पहले शासकों में
गिना जाता है। १९७७ में जारी एक डाकटिकट में उन्हें घोड़े पर
सवार चित्रित किया गया है। २५ पैसे मूल्यव वाले इस डाक-टिकट पर
उनके जन्म व मृत्यु के वर्ष भी अंकित किये गए हैं।
भारतीय
वीरांगनाओं में रानी लक्ष्मीबाई का नाम सबसे पहले आता है। घुड़सवारी
और तलवार चलाने में माहिर यह वीरांगना भारत के प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम की सूत्रधार थी। नवम्बर १८३५ को बनारस में मोरोपंत तांबे
के घर जन्मी लक्ष्मीबाई का विवाह झाँसी के राजा गंगाधर राव से हुआ।
सन् १८५५ में राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद उन्होंने झाँसी का
शासन संभाला पर अंग्रेजों ने उन्हें और उनके दत्तक पुत्र को शासक
मानने से इन्कार कर दिया। इसके विरोध में रानी ने १८५७ के
स्वतंत्रता संग्राम में अँग्रेजों के विरुद्ध भीषण संग्राम करते
हुए अपने प्राणों की बलि दे दी। इस महान बलिदान के शताब्दी वर्ष की
स्मृति में १५ अगस्त १९५७ को प्रथम स्वाधीनता संग्राम का शताब्दी
मनाते हुए रानी लक्ष्मीबाई पर १५ नये पैसे का एक टिकट जारी किया
गया था। जिसमें रानी को घोड़े पर बैठे हुए दिखाया गया है।
पृष्ठभूमि में झाँसी का किला दिखाई दे रहा है।
रानी
लक्ष्मीबाई का नाम लिया जाए तो झलकारी बाई को कैसे भूला जा सकता
है। वे रानी लक्ष्मीबाई की महिला सेना में दुर्गा दल की सेनापति
थीं। उनका जन्म एक सामान्य परिवार में २२ नवंबर १८३० को हुआ था।
उनकी बहादुरी से प्रभावित होकर झाँसी के एक सैनिक पूरन कोरी ने
उनके साथ विवाह किया। बाद में वे रानी की सेना में शामिल हो गईं।
रानी की हमशक्ल होने के कारण वे शत्रु को धोखा देने के लिए रानी के
वेश में भी युद्ध करती थीं। अपने अंतिम समय में भी रानी के वेश
में युद्ध करते हुए वे अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं और रानी को
किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। झलकारी बाई के सम्मान में
२००१ में जारी इस डाक टिकट का मूल्य ४ रुपये है। उनकी मृत्यु के
विषय में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है। कुछ इतिहासकारों का कहना
है कि झलकारी बाई ने झाँसी की स्वतंत्रता के युद्ध में लड़ते हुए
१८५७ में अपने प्राणों की बलि दे दी थी और कुछ का कहना है कि पकड़े
जाने के बाद जब अँग्रेजों को पता चला कि वे लक्ष्मीबाई नहीं हैं तो
उन्हें छोड़ दिया गया।
रानी
अवंतीबाई रामगढ़ के राजा विक्रमादित्य सिंह की पत्नी थीं।
उन्होंने राजगढ़ रियासत में शासन किया, जो इस समय मध्य प्रदेश
के मंडला जिले में
है। जब राजा विक्रमादित्य की निःसंतान मृत्यु हो गई
तब
ब्रिटिश सरकार ने उन्हें पराधीन घोषित कर दिया। रानी
मध्यप्रदेश में लोधी जाति की वीरांगना थीं। उन्होंने ने
अपनी ४००० सैनिकों की विशाल सेना तैयार की और पराधीनता मानने
से इनकार कर दिया। उन्होंने स्वाधीनता की लड़ाई में वीरता
पूर्वक अँग्रेजों का सामना किया। कुछ माह के संघर्ष के बाद जब
रानी ने देखा कि उनकी पराजय निश्चित है तो शत्रुओं के हाथों से
बचने केलिये उन्होंने २० मार्च, १८५८ को स्वयं अपनी तलवार से
अपने प्राण ले लिये। इस वीरांगना की स्मृति में डाकविभाग ने दो
डाकटिकट जारी किये हैं। एक ६० पैसे का डाकटिकट १९८८ में और
दूसरा ४ रुपये का २००१ में।
लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह की
पत्नी बेगम हजरत महल १८५७ की क्रांति की एक महान क्रांतिकारी
महिला थी।
उनमें संगठन और नेतृत्व के अनेक
गुण विद्यमान थे। उन्होंने भी रानी लक्ष्मीबाई की तरह एक नारी
सैनिक दल का निर्माण किया था जिसका नेतृत्व रहीमी के हाथों में
था। रहीमी ने फौजी वेष अपनाकर तमाम महिलाओं को तोप और बन्दूक
चलाना सिखाया। रहीमी की अगुवाई में इन महिलाओं ने अंग्रेजों से
जमकर लोहा लिया। आलमबाग की लड़ाई में बेगम हजरत महल हाथी पर
सवार होकर युद्धभूमि में उपस्थित रहीं और जांबाज सिपाहियों का
हौसला बढ़ाया। लखनऊ में पराजय के बाद वे अवध के देहातों मे चली
गईं और वहाँ भी क्रांति की चिंगारी सुलगाई। अपने अंतिम समय में
उन्होंने नेपाल में शरण ली जहाँ १८७९ में उनका देहांत हुआ।
प्रथम स्वाधीनता संग्राम के वीरों की स्मृति में १० मई १९८४ को
चार टिकटों की एक शृंखला जारी की गई थी जिसमें तात्या टोपे, नाना
साहब और मंगलपांडे के साथ बेगम हजरत महल को भी स्थान मिला है।
जीजाबाई
ने स्वयं युद्धभूमि में जाकर तो कोई युद्ध नहीं लड़ा किंतु
छत्रपति शिवा जी के पालन पोषण और मार्गदर्शन में उनकी विशेष
भूमिका थी, जिसके कारण उन्हें वीरमाता कहा जाता है। वे जाधव
वंश में उत्पन्न असाधारण प्रतिभाशाली महिला थी। उनका सारा जीवन
साहस और त्याग से भरा हुआ था। उन्होने कठिनाइयों और विपरीत
परिस्थितियों में भी धैर्य नहीं खोया और पुत्र शिवाजी को वे
संस्कार दिये, जिनके कारण वह आगे चलकर हिंदू समाज का संरक्षक
‘छात्रपति शिवाजी महाराज’ बना। १२ जनवरी १५९८ को जन्मी जीजाबाई
का देहांत १७ जून १६७४ में हुआ। ७ जुलाई १९९९ को इस वीरांगना
की स्मृति में जारी इस टिकट में जीजाबाई को शिवाजी के साथ
दिखाया गया है।
शिव
गंगाई की रानी वेलु नचियार तमिलनाडु की पहली शासक थी जिसने
अँग्रेजों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की और अपनी स्वतंत्रता
बचाने में सफल रहीं। वह रामनाथपुरम की राजकुमारी थीं और उनका
विवाह शिव गंगाई के मुथुनोदुगणथपेरिया उडियथवर के साथ हुआ था।
पति की मृत्यु के बाद उन्हें युद्ध की लगाम को अपने हाथों में
लेना पड़ा। वे अपनी बेटी के साथ हैदरअली के संरक्षण में रहीं
और युद्ध की तैयारी करती रहीं। १७८० में उन्होंने हैदरअली और
गोपाल नायकन की सैनिक सहायता से अँग्रेजों पर विजय प्राप्त की।
अंग्रेजी सेना के हथियार और बारूद को नष्ट करने के लिये उन्होंने
विश्व के पहले मानव बम का प्रयोग भी किया था, जब उनका एक
विश्वासपात्र सेवक स्वयं को तेल में डुबोकर आग लगाकर अँग्रेजों
के अस्त्र और बारूद के जखीरे में कूद गया था। उन्होंने एक महिला
सैन्यदल भी बनाया जिसका नाम उडैयाल था। ३१ दिसंबर २००८ को
भारतीय. डाकतार विभाग ने इस वीरांगना की स्मृति में एक टिकट
जारी किया जिसमें उसे युद्ध की वेशभूषा में दिखाया गया है।
१९८८ में पहले स्वतंत्रता संग्राम
की स्मृति में एक डाकटिकट जारी किया गया था। ६० पैसे मूल्य
वाले इस चित्र पर झाँसी के किले वाली पृष्ठभूमि में सामने
झाँसी रानी को घुड़सवार के रूप में प्रदर्शित किया गया है जबकि
पृष्ठभूमि में बेगम हजरत महल का चित्र है। यह कलाकृति
भारतीय चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन ने तैयार की थी। प्रथम
स्वाधीनता संग्राम की स्मृति में जारी इस टिकट पर बायीं ओर
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पाँच प्रमुख सेनानियों के नाम
लिखे हैं जो इस प्रकार हैं- रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल,
तात्या टोपे, बहादुर शाह जफर, मंगल पांडे और नाना साहेब। इसके
नीचे तिरंगे की लंबी पट्टी है और उसके नीचे मेरा भारत महान ये
शब्द लिखे गए हैं। (चित्र सबसे ऊपर)
अपने राज्य और देश के लिये
युद्धभूमि में अद्भुत कौशल का प्रदर्शन करने वाली इन
वीरांगनाओं के डाकटिकटों पर प्रकाशित चित्र चिरकाल तक इनकी
शौर्यगाथा को टिकट संग्रह करने वालों के मन में ताजा बनाए
रखेंगे। |