डाक
टिकट और
पंचतंत्र की कहानियाँ
—
पूर्णिमा वर्मन
आज से ठीक दस
साल पहले १७ अक्तूबर २००१ को भारत के डाकतार विभाग ने एक बड़े
और एक छोटे टिकट की जोड़ियों में चार टिकटों की बहुरंगी शृंखला
जारी की थी जो पंचतंत्र की कथाओं पर आधारित थी। इसी के साथ
इनका प्रथम दिवस आवरण भी जारी किया गया था।
इनमें बनाए
गए चित्र पंचतंत्र की जिन चार कहानियों पर आधारित थे वे हैं-
बंदर और मगरमच्छ, कछुआ और हंस, कौए और सर्प तथा सिंह और खरगोश।
चार रुपये मूल्य वाले इन सभी टिकटों पर इनका मूल्य और प्रकाशन
वर्ष अंकित किया गया था। कहानी का शीर्षक तथा देश का नाम हिंदी
तथा अंग्रेजी दोनो भाषाओं में दोनों टिकटों पर अंकित किये गए
थे। इन टिकटों का सीरियल नं २०२७ था। आफसेट प्रक्रिया द्वारा
प्रकाशित इन अत्यंत सुंदर डाकटिकटों की ३०॰००० प्रतियाँ
प्रकाशित की गई थीं। एक शीट पर १८ टिकट थे। इसके साथ ही प्रथम
दिवस आवरण भी जारी किया गया था जिस पर चारों टिकट चिपकाए गए
थे।
पंचतंत्र की ये कहानियाँ आज भी पुरानी नहीं हुई हैं और हर आयु
वर्ग को आकर्षित करती है। ये चारों कथाएँ संक्षेप में यहाँ
प्रस्तुत हैं-
बंदर और मगरमच्छ
एक बंदर नदी के किनारे फलदार वृक्षों पर रहता था। एक दिन उसने
देखा कि एक मगरमच्छ किनारे पर आया और इधर-उधर ललचाई नजरों से
देखने लगा। बंदर को अंदाजा हो गया कि वह भूखा और व्याकुल है और
उसने कुछ फल तोड़कर मगरमच्छ की ओर फेंक दिए, मगरमच्छ रसदार और
स्वादिष्ट फल खा कर संतुष्ट हुआ। धीरे धीरे दोनो में दोस्ती हो
गई और रोज शाम को मगरमच्छ कुछ फल अपनी पत्नी के लिए भी ले जाने
लगा।
मगरमच्छ की पत्नी हृदय से दुष्ट थी। एक दिन उसके मन में विचार
आया कि जो बंदर इतने स्वादिष्ट और मीठे फल खाता है उसका हृदय
कितना मीठा होगा। बस फिर क्या था उसने जिद पकड़ ली कि उसे बंदर
का दिल चाहिये। मगरमच्छ ने योजना बनाकर बंदर से कहा कि मेरी
पत्नी तुमसे मिलना चाहती है। मैं तुम्हें पीठ पर बैठाकर अपने
घर ले जाऊँगा। नदी तैरते मगरमच्छ ने अपनी पत्नी की हृदय खाने
की बंदर को बता दी। यह सुनकर बंदर हतप्रभ रह गया। परंतु उसने
धैर्य से बुद्धि का प्रयोग करते हुए कहा अरे भाई पहले बताना था
ना मैं तो अपना हृदय पेड़ पर ही छोड़ आया हूँ।, पहले बताते तो
साथ लेकर आता। यह बात सुनकर मगरमच्छ वापस पेड़ की ओर चल दिया।
जैसे वह पेड़ के पास पहुँचा, तुरंत बंदर लंबी छलांग लगाकर पेड़
पर चढ़ गया और अपनी जान बचा ली मगरमच्छ देखता रह गया। इस कहानी
से शिक्षा मिलती है कि विपरित परिस्थितियों में हमें सावधानी
और बुद्धि से काम लेना चाहिए। साथ ही किसी दुष्ट की बातों में
आकर अच्छे मित्रों से धोखा नहीं करना चाहिए।
सिंह और खरगोश-
मंदर
नामक पर्वत पर दुर्दांत नामक एक सिंह रहता था। वह अकारण पशुओं
का वध करता रहता था। एकदिन सब पशुओं ने मिल कर उस सिंह से
विनती की, कि हे राजन आप स्वयं पशुवध का कष्ट न करें हम स्वयं
आपके भोजन के लिए नित्य एक पशु को भेज दिया करेंगे। फिर सिंह
ने उनकी बात मान और उस दिन से निश्चित किये हुए एक पशु को खाने
लगा। इस क्रम में एक दिन एक बूढ़े खरगोश की बारी आई। वह कुछ
सोचते हुए धीरे धीरे चलकर सिंह के पास देर से पहुँचा।
सिंह भूख के मारे झुंझला कर उससे बोला -- तू इतनी देर से क्यों
आया है ? खरगोश बोला -- महाराज, मैं अपराधी नहीं हूँ, मार्ग
में आते हुए मुझको एक दूसरे सिंह ने पकड़ लिया था। उससे फिर लौट
आने की सौगंध खा कर स्वामी को जताने के लिए यहाँ आया हूँ। सिंह
क्रोध से आपा खो बैठा। गरजकर बोला -- शीघ्र चल कर दिखलाओ कि
मेरे राज्य में कौन सा दूसरा सिंह आ गया। खरगोश उसे साथ ले कर
एक गहरे कुएँ के पास गया और बोला, सिंह कुएँ में है स्वामी, आप
स्वयं ही देख लीजिए। सिंह दहाड़ मार कर कुएँ पर चढ़ा और उसमें
अपनी परछाईं को दूसरा सिंह समझकर अंदर कूद गया। सिंह का अंत हो
गया और वन के पशुओं की जान सदा के लिये बच गई।
कछुआ और हंस-
कंबुग्रीव
नाम का एक कछुआ तालाब के किनारे रहता था। उस तालाब पर रोज आने
वाले संकट और विकट नामक दो हंस उस कछुए के अच्छे मित्र बन गए।
वे अपना काफ़ी समय एक साथ बिताते। फिर देश में अकाल पड़ा।
बारिश न होने से तालाब सूखने लगा। हंसों ने तालाब को छोड़ने का
निश्चय किया उन्होंने कछुए को सारी बात बताई तो कछुआ बहुत
परेशान हो गया। वह बोला, ‘‘तुम लोग मुझे यहाँ मरने के लिए
अकेला नहीं छोड़ सकते। मुझे भी अपने साथ ले चलो, ‘‘उसने हंसों
से प्रार्थना की।
हंस तो उड़ सकते थे परन्तु कछुआ कैसे उड़ता ! सभी सोच विचार
करने लगे और उन्हें एक उपाय सूझा।
कछुए ने उनसे एक डण्डी लाने को कहा। दोनों हंसों ने अपनी चोंच
में डण्डी के दोनों सिरे पकड़ लिए और कछुआ अपने मजबूत दाँतों
से डण्डी को बीच से पकड़कर लटक गया। हंसों ने उसे सावधान कर
दिया कि वह पूरे रास्ते गलती से भी न कुछ बोले न अपना मुँह
खोले, कछुए को लेकर पहाड़ों, खेतों, गाँवों शहरों के ऊपर होते
हुए पानी वाले स्थल की खोज में हंस उड़ते जा रहे थे। जब वे एक
शहर के ऊपर से जा रहे थे तो उस दृश्य को देखकर लोग बहुत हैरान
रह गए। वे तालियाँ बजाने लगे और खुशी से चिल्लाने लगे। कछुए ने
यह देखा तो बोला, ‘‘ये मूर्ख इतना चिल्ला क्यों रहे हैं ?’’
जैसे ही उसे अपनी बात कही, वह हवा में गोता खाता हुआ धम्म से
ज़मीन पर आ गिरा। उसे चुप न रहने की सज़ा मिल गई।
साँप और
कौए-
किसी वृक्ष पर कौवों का एक जोड़ा रहता था, उनके बच्चों को उसी
पेड़ के कोटर में रहने वाला काला साँप खा जाता था। एक बार जब
कौवे की पत्नी (कागली) पुनः गर्भवती हुई तो कौवे से कहने लगी
-- "हे स्वामी, इस पेड़ को छोड़ो, इसमें रहने वाला काला साँप
हमारे बच्चे सदा खा जाता है।"
काग बोला-- प्रिये, डरना नहीं चाहिए, बार- बार मैंने इसका
अपराध सहा है, अब फिर क्षमा नहीं करूँगा। कागली बोली-- किसी
प्रकार ऐसे बलवान के साथ तुम लड़ सकते हो? काग बोला-- यह शंका
मत करो। जिसके पास बुद्धि है वह अपने से अधिक पराक्रमी शत्रु
को भी नष्ट कर सकता है। यह कहकर उसने अपनी योजना के अनुसार काम
किया।
उस पेड़ पास ही सरोवर में राजपुत्र नित्य आ कर स्नान करता था।
स्नान के समय वह अपने वस्त्र व आभूषण उतारकर घाट पर रख देता
था। कौवे ने इसी समय की प्रतीक्षा की और घाट पर रखे हुए
राजपुत्र के सोने के हार को चोंच में पकड़ कर इस साँप के कोटर
में इस प्रकार डाला कि बाहर से दिखता रहे। स्नान के बाद
राजपुत्र को जब हार नहीं मिला तो उसके सेवकों ने आस पास ढूँढना
शुरू किया। सोने के हार को ढूँढते हुए वे साँप की कोटर तक जा
पहुँचे और वृक्ष के बिल में काले साँप को मार कर हार ले गए। इस
प्रकार बिना मेहनत के सर्प मर गया और कौवों का जोड़ा निश्चिंत
होकर अपने बच्चे पालने लगा। |