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टिकट संग्रह

डाक टिकटों में बाल दिवस
राजेश कुमार सिंह

बालदिवस मनाने की शुरुआत १९२५ में जिनेवा के एक शिखर सम्मेलन से हुई जिसमें ५४ लोगों ने भाग लिया था। इस शिखर सम्मेलन में लिए गए सामूहिक निर्णय के अनुरूप सर्वप्रथम बाल दिवस¸ संयुक्त राज्य अमरीका के सान फ्रांसिसको नगर में चीनी काउन्सलर जनरल द्वारा अनाथ बच्चों को इकठ्ठा कर के १ जून १९२५ को¸ 'ड्रैगन नौका उत्सव के रूप में मनाया गया। १९५४ में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने¸ विश्व के सभी देशों से नियमित रूप से¸ प्रति वर्ष एक निश्चित तिथि को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बाल दिवस मनाने की अपील की।

२० नवंबर १९५९ को¸ संयुक्त राज्य महासभा ने¸ बाल अधिकारों संबंधी घोषणा पत्र को अपनी स्वीकृति प्रदान की और इसी दिन को विश्व बाल दिवस के रूप में मनाए जाने की मान्यता मिली। इसके बावजूद विभिन्न देशों में बाल दिवस अलग–अलग तिथियों पर अलग–अलग ढंग से मनाया जाता है। भारत में यह दिन देश के प्रथम प्रधानमंत्री स्वर्गीय पंडित जवाहरलाल नेहरू की स्मृति में उनके जन्मदिन यानी १४ नवंबर को उनके देश के बच्चों के प्रति स्नेह तथा लगाव को याद करते हुए मनाया जाता है।

इस अवसर पर भारत सरकार के डाक व तार विभाग ने वर्ष १९५७ से ले कर प्रतिवर्ष बाल–दिवस के रूप में डाक–डिकट जारी किए हैं। ये टिकट भारतीय बाल कल्याण समिति द्वारा तय किए किसी निश्चित विषय पर प्रतिवर्ष जारी किए जाते रहे हैं। १९५७ में भारतीय डाक व तार विभाग द्वारा सर्वप्रथम तीन विभिन्न मुद्रा दरों में जारी किए गए डाक टिकटों के विषय थे- बाल-पोषण¸ बाल–शिक्षा और मनोरंजन।

बाल पोषण के लिए जारी किए गए ८ नये पैसे के गुलाबी टिकट चित्रित किया गया था जिसमें एक लड़के को केला खाते हुए दिखाया गया है (ऊपर बाएँ)। इसी प्रकार बालशिक्षा के महत्व को दर्शाने के लिए १५ नये पैसे मूल्य के नीले रंग के टिकट पर एक लडक़ी को तख्ती पर कुछ लिखते हुए दिखाया गया था (ऊपर दाएँ)। तीसरे भूरे रंग के ९० नये पैसे के टिकट पर मिट्टी के एक खिलौने के चित्रित किया गया था जो बाल मनोरंजन का प्रतीक था।

१९५८ में बाल दिवस के अवसर पर¸ बाल रोगों संबंधी जागरूकता को ध्यान में रखते हुए निम्न टिकट जारी किया गया। बाल–स्वास्थ्य विषय पर १५ नये पैसे का एक बैंगनी टिकट जारी किया गया जिसमें एक नर्स को बच्चे की देखभाल करता हुआ दिखाया गया था १९५९ और १९६० में बालदिवस के डाक टिकटों का विषय एक बार फिर से बाल शिक्षा रखा गया। १५ पैसे मूल्य के गहरे हरे रंग के इन दोनों टिकटों पर पाठशाला के तीन चित्र अंकित हैं।

१९५९ में प्रकाशित टिकट में दो लडक़ों को अपने बस्ते के सामने खडा दिखाया गया है। ऐसी व्यवस्था जमीन पर बैठ कर पढने वाले स्कूलों में उन दिनों काफी लोकप्रिय थी। जिसमें टाट की पट्टियों पर बैठा जाता था¸ सामने जमीन पर बस्ता रखा जाता था और गोद में तख्ती रख कर लिखा जाता था।

१९६० में प्रकाशित टिकट में दो चित्र अंकित किए गए हैं। एक चित्र में लडक़ियों को पढते हुए दिखाया गया है और दूसरे चित्र में लडक़ों को। इस प्रकार यह टिकट भारत के नागरिकों को लडके और लडकियों को समान शिक्षा की प्रेरणा देने के लिए जारी किया गया था।

वर्ष १९६१ में¸ अंतर्राष्ट्रीय बाल कल्याण संघ¸ जेनेवा द्वारा प्रस्तावित विषय सामाजिक कार्यों में बच्चे पर आधारित टिकट प्रकाशित हुआ जिसमें लेथ मशीन पर काम करते हुए एक लडक़े को चित्रित किया गया था।

१५ नये पैसे मूल्य के इस टिकट का रंग गहरा भूरा रखा गया था। यहाँ ध्यान देने योग्य रोचक बात यह है कि उस समय भारत में लिफाफे पर १५ नये पैसे का टिकट लगाया जाता था। अतः इस मूल्य के जारी किए गए टिकट सबसे अधिक इस्तेमाल में आते थे और लोकप्रिय भी होते थे।

वर्ष १९६२ में बालदिवस पर बहुरंगी टिकट जारी किया गया। इसका विषय था भारतीय ध्वज का सम्मान। १५ नये पैसे मूल्य के इस टिकट में एक बलिष्ट भुजा में पकडा हुआ तिरंगा दिखया गया था जिसे दूसरी कोमल बाल–भुजा स्वीकार कर रही है। तिरंगे को सौंपे जाते हुए इस चित्र द्वारा बच्चों में देश के प्रति लगाव व अपने कर्तव्यों के बोध को प्रतीकात्मक रूप में दर्शाया गया था।

वर्ष १९६३ में पुनः अंतर्राष्ट्रीय बाल संघ कल्याण जेनेवा द्वारा प्रस्तावित विषय बच्चों के लिए राष्ट्रीय नीति को ध्यान में रखते हुए भारतीय बाल कल्याण संगठन व डाक–तार विभाग ने विद्यालयों में बच्चों को दोपहर के भोजन कार्यक्रम दर्शाते हुए डाक टिकट जारी किया।

वर्ष १९६४ में २७ मई को जवाहर लाल नेहरू का देहावसान हुआ था। अतः इस वर्ष जारी डाक टिकट पर एक रुपये के भारतीय सिक्के का चित्र था¸ जो विशेष रूप से इस वर्ष उनकी स्मृति में जारी किया गया था। चाचा नेहरू के प्रिय गुलाब के फूल को भी इस टिकट में जगह मिली है और जवाहरलाल नेहरू के नाम के स्थान पर उन्हें चाचा नेहरू लिखा गया है। पंद्रह नये पैसे के सलेटी रंग के इस टिकट को जारी कर के बालदिवस के अवसर पर उन्हें राष्ट्र की ओर से श्रद्धांजलि अर्पित की गई थी।

वर्ष १९६६ में नवजात शिशु को टिकट के पृष्ठभूमि में शांति के प्रतीक पक्षी के साथ दर्शाया गया था। शायद इसके पीछे यह भावना रही हो कि बच्चे भी कबूतर की तरह शांति के दूत होते हैं।

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