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टिकट संग्रह                              

 

 जापान के डाकटिकटों पर कृष्ण
पूर्णिमा वर्मन
 


२० जून १९६६ को जापान के डाक विभाग ने २०० येन का एक डाकटिकट जारी किया जिसमें श्रीकृष्ण का बाँसुरी वादन करते हुए एक चित्र है। यह चित्र एक प्राचीन जापानी प्रतिमा की प्रतिकृति है। इसके साथ ही एक प्रथमदिवस आवरण भी जारी किया गया था जिसका चित्र सबसे नीचे है। इसी प्रतिमा वाले एक और डाकटिकट को लाल रंग में १० जून १९७० को प्रकाशित किया गया। इसका मूल्य भी २०० येन था। मूल्य के अंकों के नीचे ऊपरी दाहिने कोने पर जापानी भाषा में देश का नाम अंकित है और नीचे बाएँ कोने पर अंग्रेजी में। इस डाकटिकट का नाम बाँसुरी वादक बोधिसत्व दिया गया।

अनेक विद्वानों का विचार है कि प्राचीन जापान में हिंदू संस्कृति के चिह्न पाए जाते हैं। वहाँ कृष्ण की पूजा की जाती थी और उन्हें नारायण-तेन (नारायण), केंगो-रिकिशी या कोंगो-रिकिशी या नियो के रूप में जाना जाता है, जिसमें विष्णु के साथ कई सामान्य विशेषताएं हैं, जिन्हें जापानी में बिशिनु-टेन कहा जाता है। द हिस्ट्री ऑफ अर्ली वेदांत फिलॉसफी के लेखक हाजिमे नाकामुरा ने बताया है कि हिंदू रामायण और इसके विभिन्न संस्करण चीन और जापान में 'ताइहिकी' के नाम से पाए जाते हैं। बाद में जब बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ा तब अनेक सनातन देवी देवताओं को बौद्ध कथाओं के पात्रों का नाम दे दिया गया। उसी प्रकार श्री कृष्ण भी ओन्जो बोसात्सु या बोधिसत्व के नाम से जाने गए।

यह जानना महत्वपूर्ण है कि इस प्रतिमा को दो टिकटों में जारी करने का कारण क्या है। इस डाकटिकट पर प्रदर्शित प्रतिमा जापान के नारा नगर में स्थित नारा पार्क के टोडाई-जी मंदिर के एक विशालकाय लकड़ी के हॉल में है। काँसे की धातु से निर्मित इस प्रतिमा की ऊँचाई १५ मीटर है। पार्क के पूर्वी हिस्से में शिंटो तीर्थ कसुगा ताइशा है, जो ७६८ ई.पू. का है। इसमें ३००० से अधिक लालटेनें हैं। जापान की संस्कृति में लालटेनों का वही महत्व है जो भारतीय संस्कृति में दीपक का है। यह वह समय था जब जापान में शिजो और बौद्ध सम्प्रदाय अपने चरम पर थे।

प्रथम दिवस आवरण पर लगी हुई मुहर पर एक बौद्ध मंदिर और एक शेर देखा जा सकता है जिस पर अंग्रेजी में नारा लिखा है। नारा जापान का एक शहर है। यह जापान के दक्षिण-मध्य में स्थित होंशू द्वीप की राजधानी है। यह एक प्राचीन शहर है और इसमें ८वीं शताब्दी के महत्वपूर्ण मंदिर और कलाकृतियाँ अभी भी सहेजी हुई हैं। प्राचीन काल में जापान की राजधानी वही शहर होता था जहाँ सम्राट का अपना घर हो। वर्ष ७१० से ७९४ तक जापान के सम्राट नारा में रहते थे इसलिये इन वर्षों में नारा शहर को जापान की राजधानी होने का गौरव प्राप्त था। नारा के सांस्कृतिक विकास का भी यही मुख्य कारण था। नारा में आठ प्राचीन मंदिरों, अनेक तीर्थस्थल और खंडहरों को अभी भी देखा जा सकता है, जिसके कारण इसे यूनेस्को ने विश्व धरोहर स्थल माना है। अपनी इसी विशिष्ट पहचान के कारण इस मूर्ति को दो बार जापानी डाकटों पर प्रदर्शित होने का सम्मान मिला।

१ दिसंबर २०२३

 
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