लाओस के डाक टिकटों पर
रामकथा
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पूर्णिमा वर्मन
लाओस के एक टिकट पर
सरस्वती
यह चैत्र का
मास है। राम के जन्मदिन की मास जो रामायण और रामचरित मानस जैसे
पवित्र ग्रंथों का नायक है। तो यह समय लाओस की रामलीला पर बात
करने का सबसे अच्छा समय है।
लाओस के
डाक-टिकट विभाग ने २६ मार्च १९६९ को लाओ महाकाव्य "फरा लक फरा
लाम" (जो लाओस की राम कथा है) पर आधारित नृत्य नाटक (बैले) के
आठ डाकटिकट जारी किये थे। नीचे दिये गए सभी डाकटिकट इसी शृंखला
वाले डाकटिकट हैं। अपनी इन नृत्यनाटिकाओं में अभिनय करते समय
अभिनेता अत्यंत आकर्षक परिधान पहनते हैं और मुखौटे लगाते हैं।
यह सारी नाटकीयता दृश्यों में रोमांच भरती है। यहाँ दिये गए
डाकटिकटों पर अंकित चित्रों में इसे देखा जा सकता है।
लाओस की भाषा
"लावा"
की ध्वन्यात्मक विशेषताओं के कारण शास्त्रीय वाल्मीकि रामायण
के नामों में बहुत परिवर्तन आया गया जिससे- राम लैम या लैम्मा
बन गए, सीता नांग या सीदा बन गई, लक्ष्मण लक हो गए, हनुमान
हलुमन या हुल्लमन बन गए, सुग्रीव सुकृप बन गए और रावण रफानसुने
या फोममाचक बन गया तथा लंका लंगका हो गई।
लाओस के
साहित्य और कविता के साथ-साथ इसके नृत्य, संगीत और मूर्तिकला
में भी अनेक पौराणिक कहानियाँ और किंवदंतियाँ शामिल हैं, जो
हिंदू महाकाव्य, रामायण के लाओ संस्करण- ''फ्रा
लक फ्रा लाम'' पर आधारित हैं। एक
राजकुमार और हिंदू भगवान विष्णु के सातवें अवतार राम की यह कहानी पूरे दक्षिण पूर्व एशिया में खूब लोकप्रिय है। इसके
अतिरिक्त लाओ साहित्य में गौतम बुद्ध के पिछले अवतारों की
कहानियाँ शामिल हैं, जिन्हें जातक कथाएँ कहा जाता है।
फ्रा
लक फ्रा लाम और जातक कथाओं दोनों में नैतिक रूपकों को कठोर
लड़ाइयों के माध्यम से जोड़कर देखा गया है जिसमें अच्छाई हमेशा
बुराई पर विजय प्राप्त करती है। ये कहानियाँ बताती हैं कि कैसे
वीर राजकुमार शक्तिशाली राक्षसों को पराजित करते हैं।
इन सभी
टिकटों के बीच में Soutien aux victims de la guerre+5
लिखा हुआ देख सकते हैं। इसकी भी एक विशेष कहानी है। ये
फ्रेंच भाषा में लिखा गया है और इसका अर्थ है- युद्ध पीड़ितों
के लिए सहायता +५, लाओस के लिये यह उसके इतिहास का शायद सबसे
कठिन समय था। १९६० से १९७५ तक लाओस साम्राज्य, रूस और अमेरिका
द्वारा छेड़े गए युद्ध शिकार हो गया। इन वर्षों के दौरान लाओस
वियतनाम युद्ध में बुरी तरह फँस गया था।
एक तरफ चीनी जनवादी गणराज्य और अन्य साम्यवादी देशों से समर्थन
प्राप्त उत्तरी वियतनाम की सेना थी तो दूसरी तरफ अमेरिका और
मित्र देशों के साथ कंधे से कंधा मिला कर लड़ रही दक्षिणी
वियतनाम की सेना। अमेरिका के मित्र देशों की सेना की भीषण
यूद्ध लड़ रही थी। उसकी
मारक क्षमता को भली भाँति जानते हुए भी
'लाओस' ने अपनी धरती उत्तरी वियतनाम की सेना के लिये उपलब्ध
करा दी। यह निर्णय लाओस पर मुसीबत बनकर टूटा।
उत्तरी वियतनाम को लाओस के रास्ते अपनी सेना और आपूर्ति भेजने
का मार्ग मिल गया। यह महाशक्ति अमेरिका को मंज़ूर नहीं हुआ।
लाओस में अमेरिका ने इतने क्लस्टर बम दागे थे कि दुनिया भर में
इन बमों से शिकार हुए कुल लोगों में से आधे लोग लाओस के ही
हैं। इस सबके बावजूद उत्तर-वियतनामी सेना और पाठेट लाओ ने
लाओस के अधिक प्रांतों पर कब्जा करना जारी रखा और १९७३ के अंत
तक उन्होंने ११ प्रांतों को अपने कब्जे में ले लिया। पठेट लाओ,
जिसका अर्थ "लाओ राष्ट्र" है, एक साम्यवादी राजनैतिक अभियान व
संगठन था जिसकी स्थापना २०वीं शताब्दी के मध्य में
दक्षिणपूर्वी एशिया के लाओस देश में हुई थी। लओस गृहयुद्ध के
बाद, सन् १९७५ में यह संगठन लाओस पर अपना अधिकार जमाने में सफल
हो गया।
१९७३ में, एक युद्धविराम समझौता हुआ और संयुक्त राज्य अमेरिका
ने अपने सैनिकों को वापस बुलाना शुरू कर दिया। १९७५ के अंत में, संयुक्त राज्य अमेरिका के अंतिम
वापसी के बाद, दक्षिण वियतनाम के अप्रत्याशित रूप से तेजी से
पतन ने, पाथेट लाओ को बाकी लाओस पर हमला करने और कब्जा करने के
लिए प्रेरित किया। राजशाही समाप्त हो गयी और लाओ पीडीआर
(पीपुल्स डेमोक्रेटिक रिपब्लिक) घोषित कर दिया गया। लाओस की छह
सौ साल पुरानी राजशाही ध्वस्त हो गयी।
लाओस में
युद्ध के दौरान, अनुमानित दो लाख से अधिक लोग मारे गए, उससे भी
अधिक घायल हुए, अनेकों ने अपनी संपत्ति खो दी और असंख्य लोगों
को अपना घर छोड़कर भागना पड़ा और वे शरणार्थी बन गए। उनमें से
अधिकांश निर्दोष सामान्य नागरिक थे जो सुपर-शक्तियों के बीच
युद्ध के शिकार बन गए। इस युद्ध को वर्तमान रूस यूक्रेन युद्ध
के साथ रखकर समझा जा सकता है।
युद्ध पीड़ितों की सहायता हेतु राजस्व बढ़ाने के लिए, लाओस
साम्राज्य ने "युद्ध पीड़ितों के लिए समर्थन" ("सौटियन ऑक्स
विक्टिम्स डे ला गुएरे") में मुद्रित डाक टिकटों के "रामायण
बैले" सेट को फिर से जारी किया और पाँच कीप के मूल्य को
अधिभारित किया। तो ये सभी डाकटिकट २६ मार्च १९६९ को प्रकाशित
मूल डाकटिकट नहीं हैं बल्कि १ मई
१९७० को दुबारा प्रकाशित डाक-टिकट हैं जो भीषण युद्ध की दुखद
कहानी कहते हैं।
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