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छाता लेकर
निकले हम
—पूर्णिमा
वर्मन
बरसात आते ही छातों की छटा मन
को लुभाने लगती हैं। यों तो ये गर्मियों में भी राहगीरों का
साथ निभाते रहे हैं, पर बरसात के मौसम में हर आदमी छाता हाथ
में लिए या थैले में रखे हुए नज़र आता है। रंग-बिरंगी
प्लास्टिक, नायलॉन और मेकेनटॉश की बरसातियों की लोकप्रियता
को दरकिनार करते हुए छाते सड़कों और बाज़ारों में छाए रहते
हैं।
प्राचीन मानव ने जब किसी पेड़
की पत्तियों भरी डाल को तोड़ कर धूप से पनाह ली होगी, तो वह
विश्व का पहला छाता रहा होगा। कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को
उँगली पर छाते की ही तरह उठा कर अपनी प्रजा की वर्षा से
रक्षा की थी। एक और पुरानी कथा में कहा गया है कि
जमदग्निमुनि धनुष-बाण के अभ्यास में लगे थे। उनकी पत्नी धूप
में खड़ी हुई, फेंके हुए बाणों को उठा कर लाती थीं। इस समय
धूप से क्लांत पत्नी को देखकर मुनि ने विश्व का पहला छाता
उन्हें भेंट किया।
इतना तो तय है कि छाते का आविष्कार धूप से बचाव के लिए हुआ।
तब इसका उपयोग वर्षा से बचाव के लिए नहीं होता था। पर
जैसे-जैसे वर्षा-अवरोधक कपड़ों का निर्माण हुआ, छाता वर्षा
के विरुद्ध भी काम में आने लगा। प्राचीन काल में केवल देवी
देवता और राजा महाराजा छाता धारण करते थे। इन्हें छत्र कहा
जाता था और ये काफ़ी कीमती और कलात्मक होते थे।
आधुनिक विश्व में सबसे पहले
के छाते चीन में ग्यारहवीं-बारहवीं सदी के मिलते हैं। ये
प्रतिष्ठा और उच्चाधिकार के प्रतीक माने जाते थे। जापान में
जापानी राज्य की स्थापना के समय से ही छाती का प्रयोग होता आ
रहा है। मिस्र में फराह की कब्र के ऊपर छाते को चित्रित किया
गया है। असीरिया की प्राचीन मूर्तिकला में भी राजाओं के सिर
पर छाते गढ़े गए हैं।
इस सबके बावजूद छाता
जनसाधारण में अधिक लोकप्रिय नहीं था। इसकी ख़ास वजह थी इसका
वजन। पहले इसकी छड़ी व्हेल की हड्डियों से बनाई जाती थी और
कपड़े की जगह चमड़े का इस्तेमाल होता था। आज के एक किलो से
भी कम वज़न के छाते की तुलना में अठारहवीं सदी से पहले छाते
का वज़न पाँच किलो से कम नहीं होता था। पोले पाइप के
आविष्कार और चमड़े के स्थान पर रेशम आने से इसके वज़न में
कमी आई और लोकप्रियता बढ़ी।
छाते की कहानी जॉन हैनवे के
ज़िक्र के बिना अधूरी रहेगी जिसका छाते की लोकप्रियता में
सर्वाधिक योगदान है। उसे अपने छाता-प्रेम के लिए लोगों का
बड़ा उपहास सहना पड़ा। बात यों हुई कि १७५० में जब वह चीन से
इंग्लैंड आया तो अपना चीनी छाता साथ लेता आया। इंग्लैंड में
तब छाता जन साधारण द्वारा इस्तेमाल नहीं किया जाता था। छोटे
बच्चे जॉन को सड़कों पर देखते ही उस पर सड़े अंडों की बौछार
शुरू कर देते और क्रुद्ध जनता उसके ऊपर कुत्ते छोड़ देती।
लेकिन उसने इन सब बातों से न डरते हुए छाता लेकर निकलना जारी
रखा तब तक कि उसके छाते को मान्यता न मिल गई।
हालाँकि लोग जॉन हैनवे को
उसके छाते के साथ स्वीकार करने लगे थे, फिर भी इसके २०
वर्षों के बाद भी, जब जॉन मैकडॉनल्ड ने छाते को साथ लेकर
निकलना शुरू किया तो उसकी इस हास्यास्पद योजना का जम कर
बहिष्कार किया गया। १७७८ में कोचवानों ने उसे अपनी गाड़ी में
बैठाने से इनकार कर दिया और उसकी बहन ने उसके साथ सड़क पर
निकालना छोड़ दिया।
अठारहवीं सदी के अंत तक
हैनवे मैकडॉनल्ड के प्रयत्न रंग लाए और समाज के कुछ वर्गों
में छाता लोकप्रिय हो चला। पुरुषों ने इसे उपयोगिता के लिहाज
से अपनाया तो महिलाओं में यह फैशन के रूप में लोकप्रिय हुआ।
फैशन में प्रयुक्त इन
चमकदार और रंगीन छातों की मूठ हाथी दाँत पर सोने के काम की
होती थी। छतरी की ओर रेशम के ऊपर लेस का सुंदर काम किया जाता
था। इन्हें अभिजात वर्ग की महिलाएँ प्रतिष्ठा-प्रतीक के रूप
में इस्तेमाल करती थीं। महिलाओं में छाते का फैशन इस हद तक
बढ़ा कि विक्टोरिया काल में यूरोप को लाखों छाते जापान से
आयात करने पड़े। पहले विश्वयुद्ध के समय छाते फैशन की दुनिया
से निकाल फेंके गए और उनकी जगह बटुए ने ले ली। पुरुषों के
साम्राज्य से भी छाते बाहर हो गए। अब गोरी त्वचा को छाते से
बचाया जाना बंद हो गया क्यों कि धूप-ताम्र (सन-टैन) त्वचा को
सुंदर माना जाने लगा। इस तरह छाता लगाया जाना पुरुषत्व के
विरुद्ध समझा जाने लगा।
हालाँकि छाते और पैराशूट के
बीच आकार के सिवा कोई समानता नहीं है, फिर भी कुछ लोगों का
विश्वास है कि छाता आधुनिक पैराशूट का पूर्वज है। इसी बात को
मानने वाले फ्रेंच जनरल बरनॉल विले १९७३ में ऑलमत्ज के किले
की ४० फुट ऊँची खिड़की से छाता लेकर कूद गए। जनरल के दोनों पैर इस
छलाँग में टूट गए, पर जान बच गई।
छाता छत्र शब्द से विकसित
हुआ है। अंग्रेज़ी में भी इसका अर्थ लगभग यही है। लैटिन शब्द ओंब्रोस का अर्थ हे छाया और ग्रीक शब्द ओंब्रा, जिसका अर्थ
वर्षा है, से ही अंब्रेला शब्द आया है। फ्रांसीसी में छाते
के लिए 'पाप्लुइ' शब्द का प्रयोग होता है, जिसका अर्थ है
वर्षा के विरुद्ध। भारत, मध्यपूर्व और सूदूर पूर्व में
वर्षों तक बड़ी परिधि वाले छाते इस्तेमाल किए जाते थे और
इन्हें सजाया भी जाता था। कालांतर में जनसामान्य में ताड़ के
बुने हुए छातों का प्रचलन हुआ। अंग्रेज़ी छाता भारत में
रैलिस द्वारा लाया गया और १८६२ में महेंद्रलाल दत्त नामक एक
भारतीय उद्योगपति ने भारत में इसका पहला कारखाना लगाया।
तकनीकी सुधार के साथ-साथ अब
छाते भी फोल्डिंग आने लगे हैं। फोल्डिंग छातों की लोकप्रियता
का कारण इनका कम जगह में समा जाना है। ये लेड़ीज़ बैग में
आसानी से रखे जा सकते हैं और तेज़ हवा में उड़ते नहीं है।
पारसी निर्माता मार्शज़ ने १७१५ में इसका आविष्कार किया था।
इटली के जिगनीज नामक गाँव में 'म्यूज़ियो देल अंब्रेला' नामक
छातों का शायद सबसे अनोखा संग्रहालय है। इसमें हर काल और
शताब्दी की १५०० से अधिक छतरियाँ हैं। इसमें नेविलि
चेंबरलियन का छाता है और इसके साथ ही एक पत्र, जिसमें लिखा
है कि इंग्लैंड के पल-पल बदलते मौसम ने उसे पल भर भी इस छाते
से अलग नहीं होने दिया। छाते के इस लंबे इतिहास में, जब वह
देवी-देवताओं से राजाओं के पास पहुँचा, जनसाधारण के उपहास का
पात्र बना, फैशन की दुनिया में चमका और उपयोगिता की सूची में
शामिल हुआ, वह क्षण सबसे महत्वपूर्ण है, जब एलिसमर्सी काक्स
नामक महिला ने अपनी अंतिम इच्छा प्रकट की कि उसका छाता उसके
साथ ही कब्र में दफ़नाया जाए।
तब से आज तक गर्मी-वर्षा
में छाता मनुष्य का साथ निभाता आया है। यह अलग बात है कि
बसों और ट्रामों में छाताधारी व्यक्ति को देखकर सब लोग
बिदकते हैं। गीले छाते के साथ घर में घुसते हुए अतिथि
को देखकर संभ्रांत गृहणियाँ नाक भौं सिकोड़ती हैं। छाता
भूल जाने की आदत भी बहुतों को होती है। इस सबके बावजूद सब
कुछ ढाल की तरह चुपचाप अपनी पीठ पर झेलता, छाता अपने मालिक
को कड़ी धूप और बारिश से बचाने में आज भी लगा है।
१ अगस्त
२००७ |