|  
					चित्राजी निमंत्रण-पत्र के साथ 
					हाथ से लिखे मनुहार पत्र के हर अक्षर को अपनी नजरों से आँकती 
					उनमें अंतर्निहित भावों को सहलाने लगीं। कई बार पढ़े पत्र। 
					सोचा विवाह में इकट्ठे लोग पूछेंगे—मैं कौन हूँ? क्या रिश्ता 
					है शालिग्रामजी से मेरा? क्या जवाब दूँगी मैं? क्या जवाब देंगे 
					शालिग्रामजी? दोनों के बीच बने संबंध को मैंने कभी मानस पर 
					उतारा भी नहीं। नाम देना तो दूर की बात थी। बार-बार फटकारने के 
					बाद भी वह अनजान, अबोल और बेनाम रिश्ता चित्राजी को 
					जाना-पहचाना और बेहद आत्मीय लगने लगा था। कभी-कभी उसके बड़े 
					भोलेपन से भयभीत अवश्य हो जाती थीं और तब उस रिश्ते के नामकरण 
					के लिए मानो अपने शब्द भंडार में इकट्ठे हजारों शब्दों को 
					खंगाल जातीं। नहीं मिला था नाम। और जब नाम ही नहीं मिला तो 
					पुकारें कैसे?
 इसलिए सच तो यही था कि उन्होंने कभी उस रिश्ते को आवाज नहीं 
					दी। रिश्ते के जन्म और अपनी जिंदगी के रुक जाने के समय पर भी 
					नहीं। जिंदगी के पुनःचालित होकर उसकी भाग-दौड़ में भी नहीं। 
					शालिग्रामजी को कभी स्मरण नहीं किया। शालिग्रामजी ने ही बेनाम 
					रिश्ते को याद रखने की पहल की थी।
 
 बहुत सोच-विचार करने के बाद चित्राजी ने भोपाल जाना तय कर 
					लिया। बहुत दूर जाना था। बस, और फिर ट्रेन की यात्रा। वह भी 
					गरमी में। शालिग्रामजी ने दूरभाष पर ही विश्वास दिलाया 
					था—‘आपको कोई दिक्कत नहीं होगी। मेहमानों को ठहराने की 
					व्यवस्था करते समय भी हमने मौसम का ध्यान रखा है। मैं समझता 
					हूँ, हमारे मेहमानों को कोई कष्ट नहीं होगा। और आप तो खास 
					मेहमान हैं।’
 
 चित्राजी कुछ नहीं बोलीं। उन्होंने जब जाने का निश्चय ही कर 
					लिया था तो कष्ट और आराम का क्या? शिमला बस स्टैंड पर वॉल्वो 
					बस में बैठ गई थीं। मोबाइल की घंटी बजी। शालिग्रामजी का फोन 
					था। उन्होंने कहा, ‘‘आपकी बस के दिल्ली बस अड्डे पर रुकते ही 
					हमारा एक आदमी मिलेगा। उसका नाम राकेश है। उसके पास आपकी रेल 
					टिकट होगी।’’
 
 चित्राजी ने कुछ नहीं कहा। इतना भी नहीं कि मैंने टिकट ले रखी 
					है। और वैसा ही हुआ। उनकी बस के रुकते ही एक व्यक्ति अंदर 
					घुसा। उसकी खोजी नजर ने चित्राजी को पहचान लिया। उनकी अटैची 
					नीचे उतारकर बोला, ‘‘आपके पास यदि कोई टिकट है तो मुझे दे 
					दीजिए। मैं उसे कैंसिल करवा दूँ। ए.सी. द्वितीय श्रेणी की यह 
					टिकट रख लीजिए। ट्रेन शाम को निजामुद्दीन स्टेशन से जाती है। 
					मैं आपको लेने आ जाऊँगा। मैं भी आपके साथ चल रहा हूँ।’’
 
 चित्राजी ने उस व्यक्ति को स्लीपर क्लास की टिकट निकालकर दे 
					दी। वे थ्री-व्हीलर में बैठकर गोल मार्केट स्थित अपनी एक सहेली 
					के क्वार्टर में चली गईं। शाम को सबकुछ वैसे ही घटा जैसा राकेश 
					ने बताया था।
 
 सुबह-सुबह गाड़ी के भोपाल जंक्शन पर रुकते ही एक नौजवान उनकी 
					सीट तक आ गया। उनके पैर छूकर बोला, ‘‘मैं दीपक हूँ। मेरे पिता 
					का नाम शालिग्राम कश्यप है।’’
 
 चित्राजी ने ‘खुश रहने’ का आशीष दिया और उसके पीछे चल पड़ीं। 
					गाड़ी आगे बढ़ रही थी। रोड पर भीड़ के कारण कभी-कभी उसका हॉर्न 
					बजता। अंदर पूरी शांति बनी रही। कोई कुछ नहीं बोला। चित्राजी 
					उस नौजवान से बातें करना चाहती थीं, पर शुरुआत कैसे करें।
 
 उस घर की चौहद्दी, आबादी, संस्कार और स्थितियाँ, कुछ भी तो 
					नहीं जानती थीं। भोपाल शहर के बारे में पूछने ही जा रही थीं कि 
					दीपक बोल पड़ा—‘‘मैं आपको आंटी कहूँ ?’’
 ‘‘हुँ’’
 ‘‘तो आंटी! बारात आज शाम को आ रही है, लोकल बारात है, इसलिए 
					समय से ही आ जाएगी। मैंने सुना कि आप कल ही लौट रही हैं। आपके 
					पास समय बहुत कम है। पिताजी ने कहा है कि आप भोपाल शहर पहली 
					बार आ रही हैं। इसलिए भोपाल भी तो देखना चाहेंगी। बड़ा सुंदर 
					शहर है हमारा। आप जल्दी से तैयार हो जाएँ। आपको मेरा मौसेरा 
					भाई घुमाने ले जाएगा।’’
 
 ‘‘ठीक है।’’ इतना ही बोल पाईं चित्राजी। मन तो उस व्यक्ति के 
					प्रति आभार प्रकट करने को बन आया था। उनकी इतनी चिंता करनेवाले 
					नौजवान को शाबासी भी दी जा सकती थी। पर वे कुछ नहीं बोलीं। 
					दीपक बोला, ‘‘मेरे पिताजी आपकी बहुत प्रशंसा करते हैं। कहते 
					हैं, आप साक्षात् देवी की अवतार हैं। पर पता नहीं क्यों, न आप 
					कभी भोपाल आईं, न हमें शिमला बुलाया। कुछ देर पहले ही आपके 
					बारे में बताया। आपसे मिलने की चाहत पनप आई। इसलिए कई काम 
					छोड़कर स्वयं स्टेशन आ गया।’’
 
 चित्राजी कुछ बोलने के लिए जिह्वा पर शब्द सजाने लगीं कि 
					ड्राइवर ने गाड़ी में ब्रेक लगा दिया था। गाड़ी किसी गेस्ट 
					हाउस के सामने रुकी। गाड़ी से उनका सामान निकालकर दीपक आगे 
					बढ़ा। वे पीछे-पीछे। उन्हें अंदर तक पहुँचाकर बोला, ‘‘आंटी! आप 
					यहाँ नहा-धो लें। नाश्ता घर पर ही करना है। फिर आप भोपाल दर्शन 
					के लिए निकलेंगी। दोपहर का भोजन भी घर पर ही है। भोजन के बाद 
					फिर यहाँ आराम करिएगा। शाम को तो शादी ही है।’’
 
 चित्राजी कुछ नहीं बोलीं। दीपक के कमरे से निकलने पर अवश्य 
					उसके पीछे गईं। आँखों की पहुँच से उसकी काया ओझल हो जाने पर 
					पीछे लौट कमरे की सिटकिनी बंद कर बिस्तर पर बैठ गईं। सोचने 
					लगीं—दीपक कितना लायक लड़का है। उन्नीस-बीस वर्ष का होगा। इतना 
					जिम्मेदार और पितृभक्त! समाज नाहक परेशान है कि युवा पीढ़ी 
					बिगड़ गई। मेरे साथ थोड़ी देर गुजारकर इस युवा ने मेरे मन में 
					जगह बना ली। पर श्रेय तो इसके पिता को ही जाता है, शालिग्रामजी 
					को। उनका ध्यान आते ही चित्राजी उठ बैठीं। अपना ध्यान बँटाने 
					के लिए तैयार होने लगीं। चित्राजी के नहा-धोकर तैयार होते ही 
					नरेश आ गया था। उन्हें नाश्ते के लिए ले जाते हुए पूछा, ‘‘आप 
					दीपक की बुआजी हैं? उसकी दो बुआओं से मिल चुका हूँ। आपसे पहली 
					बार मिला। दीपक का मैं मित्र हूँ।’’
 
 शालिग्रामजी शीघ्रता से गेट पर पहुँचे। उन्होंने चित्राजी का 
					अभिवादन किया। नरेश ने कहा, ‘‘घुमा लाया आंटी को भोपाल। इन्हें 
					तीनों ताल अच्छे लगे।’’
 
 नरेश इतना नहीं कहता तो शायद चित्राजी सामने खड़े व्यक्ति को 
					पहचान भी नहीं पातीं। कुछ दरक गया था चित्राजी के अंदर। 
					उन्होंने अपने को सँभाला। हाथ जोड़कर उनके अभिवादन का उत्तर 
					देते हुए चेहरे पर भी मुसकान थी। नाश्ते का इंतजाम फ्लैट के 
					बाहरवाले हिस्से में ही किया गया था। कुछ लोग नाश्ता समाप्त कर 
					चुके थे, कुछ का जारी था, कुछ आनेवाले थे। शालिग्रामजी को 
					चित्राजी को लेकर नाश्ते के स्थान पर पहुँचने में दो मिनट भी 
					नहीं लगे होंगे, पर वहाँ उपस्थित नाश्ता कर रहे मेहमानों के 
					प्लेट में पडे स्वादिष्ट व्यंजनों में मानो एक विशेष व्यंजन आ 
					टपका।
 ‘‘ये कौन हैं?’’ प्रश्न पसरा।
 ‘‘इन्हें तो पहले कभी नहीं देखा।’’ स्वाद लेने लगे लोग।
 
 आपस में प्रश्नों का आदान-प्रदान हो रहा था। उत्तर किसी के पास 
					नहीं था। शालिग्रामजी की पत्नी माला भी आ गईं। रिश्तेदारों से 
					नाश्ते का स्वाद पूछतीं, कुछ और लेने का आग्रह करतीं, आगे बढ़ 
					रही थीं। किसी ने पूछ ही लिया—‘‘वे कौन हैं? कोटा की साड़ी में 
					वे सुंदर सी महिला?’’
 
 माला ने इधर-उधर आँखें दौड़ाईं। दूसरी ने स्वर दाबकर ही कहा, 
					‘‘वही, जो शालिग्रामजी के साथ हैं। उन्हें शालिग्रामजी ने 
					स्वयं अपने हाथों से प्लेट लगाकर दी है। देखिए!’’ ठीक ही तो 
					कहा था सबने। माला ने भी यही देखा। चाय का प्याला लिये खड़े थे 
					शालिग्रामजी। सौम्य आकृति, लगभग उसकी ही हम-उम्र, बड़े सलीके 
					से नाश्ता कर रही, कौन है यह महिला? शालिग्रामजी ने तो कभी 
					इसका जिक्र नहीं किया। आमंत्रण भेजनेवाली सूची भी माला ने पढ़ी 
					थी। किसी अनजान महिला का नाम नहीं था। फिर कौन है यह?
 
 प्रश्न तो अनेक थे। पर वह अवसर नहीं था पति से प्रश्न पूछने 
					का। जबकि अधिकांश मेहमानों के बीच यही प्रश्न बॉल की भाँति दिन 
					भर उछलता उसकी पाली में भी आता रहा। रीति-रिवाज और रस्म अदाएगी 
					में सब एक-दूसरे से पूछते रहे। दोपहर के लंच के समय भी 
					चित्राजी आ गईं थीं।
 
 शालिग्रामजी की एक साली उनके पास गई। पूछा, ‘‘आप कहाँ से आई 
					हैं?’’
 दूसरा प्रश्न पूछने ही वाली थी—‘‘आप मेरे जीजाजी को कैसे जानती 
					हैं?’’
 इस बीच स्वयं जीजाजी उपस्थित हो गए थे। उन्होंने अपनी साली को 
					किसी और विशेष मेहमान की खातिरदारी में लगा दिया था।
 
 गेस्ट हाउस में आराम करते हुए चित्राजी का मन कई मसलों में उलझ 
					गया था। बहुत दिनों बाद पच्चीस वर्ष पूर्व घटी घटना का संपूर्ण 
					दृश्य नजरों के सामने रूढ़ हो गया। शिमला से गाड़ी में 
					पति-पत्नी और दोनों बच्चों का कुल्लु-मनाली के लिए प्रस्थान। 
					थोड़ी दूरी पर जाते ही गाड़ी का खड्डे में गिरना। पति के सिर 
					में चोट आना। उनका होश नहीं लौटना। डॉक्टर से बातचीत। 
					बेहाल-बेहोश चित्राजी के सामने डॉक्टर की एक माँग। माँग पर 
					शीघ्रता से विचार करने का आग्रह। अकेली खड़ी चित्राजी। दो 
					नन्हे बच्चे माँ से चिपके। अपना-पराया कोई साथ न था। निर्णय 
					लेना था चित्राजी को। सबकुछ चला गया था। जो बचा था, उसकी माँग 
					थी। चित्राजी ने वह वस्तु देना स्वीकार कर लिया, जो उनकी थी। 
					डॉक्टर का सुझाव। और फिर मृत्यु के करीब गया व्यक्ति जीवित हो 
					गया।
 
 स्मृतियों में जीवित था सब दृश्य। कभी-कभी जीवंत हो जाता। पर 
					चित्राजी ने दृढ़ निश्चय कर उन यादों को नजर के सामने से हटा 
					दिया था। शुभ-शुभ का अवसर था। ‘जो बीत गई, वह बात गई’ कविता वे 
					क्लास में पढ़ाती आई हैं। जिस लड़की का विवाह है, उसके लिए शुभ 
					सोचना है। अवसर और समय की वही माँग थी।
 बारात दरवाजे लगी। स्वागत में खड़े स्त्री-पुरुष तिरछी नजरों 
					से चित्राजी की ओर अवश्य देखते रहे। प्रश्न वही—‘‘कौन है 
					यह?’’, ‘‘क्या रिश्ता है शालिग्रामजी से?’’
 
 शालिग्रामजी ने द्वार पर ही अपने समधी से चित्राजी का परिचय 
					कराया था। उनकी दो सालियाँ अपने पतियों के साथ वहीं खड़ी थीं। 
					उनका परिचय नहीं करवाया। और यह खबर उस भीड़ भरे स्थल पर भी 
					आसानी से यात्रा कर गई। सबको मिल आई।
 
 बराती और घराती के भोजनापरांत विवाह के रस्म पूरे किए जाने 
					लगे। शालिग्रामजी को पंडितजी द्वारा मंडप पर कन्यादान के लिए 
					बुलाया गया। मंडप पर बैठने के पूर्व उन्होंने चारों ओर निगाहें 
					घुमाईं। उनकी दृष्टि के सम्मुख वह चेहरा नहीं आया, जिसकी 
					उन्हें खोज थी। उनके आस-पास मंडप पर बैठी उनकी बहनों और 
					सालियों ने भाँप लिया था। दो-तीन एक साथ बोल पड़ीं—‘‘वहाँ हैं 
					आपकी मेहमान।’’
 
 देखा माला ने भी। मानो खीझकर बोली, ‘‘अब बैठ जाइए। मनचित्त 
					लगाकर कन्यादान करिए। इसी काम के लिए मेहमान और सारा इंतजाम 
					है। बैठिए!’’
 
 शालिग्रामजी ने ऊँची आवाज में कहा, ‘‘चित्राजी! आप इधर आइए। 
					मंडप पर बैठिए। मेरी बेटी को आपका विशेष आशीर्वाद चाहिए।’’
 
 चित्राजी अंदर से हिल गईं। ऊपर से उपस्थित जनों की निगाहों के 
					तीरों से बिंध गईं। वे परेशान तो थी हीं। अपने स्थान पर खड़ी 
					होकर बोलीं, ‘‘आप लोग शुभ कार्य के लिए वहाँ उपस्थित हुए हैं। 
					बेटी का कन्यादान करिए। मुझे यहीं बैठना है। मैं विधवा हूँ। 
					मेरा सुहाग नहीं है। समाज ऐसी महिला को किसी सौभाग्याकांक्षिणी 
					को सुहाग देने की मनाही करता है। मैं दिल से आपकी बेटी का शुभ 
					चाहती हूँ। इसलिए दूर बैठी हूँ। आप अपना पुनीत काम पूरा करें। 
					मेरी चिंता छोड़ दें।’’ वे बैठ गईं।
 
 ‘‘मैं नहीं मानता ऐसे समाज के विधान को। मेरे परिवार के लिए, 
					मेरी बेटी के लिए आपसे बढ़कर कोई शुभ नहीं हो सकता। आपकी कृपा 
					के बिना तो न मैं होता न मेरी बेटी। आइए! आप मेरी प्रार्थना 
					मानकर मेरी बेटी का कन्यादान करिए।’’ फिर तो पंडितजी भी परेशान 
					हो गए। बोले, ‘‘शालिग्रामजी! आपकी मेहमान महिला ठीक कह रही 
					हैं। आप कन्यादान करिए। अपनी पत्नी को साथ बैठाइए। मंडप पर 
					बैठी सभी महिलाएँ सुहागन ही हैं।’’
 
 शालिग्रामजी बिफर पड़े—‘‘आप सब आज सुबह से चित्राजी का परिचय 
					जानने के लिए परेशान हैं। आपके बीच तरह-तरह की अटकलें लग रही 
					हैं। कार्य व्यस्तता में भी मैं आपके प्रश्नों के बाणों से 
					बिंधता रहा। जब तक मैं उनका परिचय न दे दूँ, आप सबों का ध्यान 
					भी विवाह के रस्म-रिवाजों पर केंद्रित नहीं होगा। तो सुनिए!’’ 
					और जो कुछ शालिग्रामजी ने सुनाया, सुनकर वहाँ बैठे उपस्थित 
					लोगों के प्रश्न तो चुके ही, वे सब चित्राजी के प्रति नतमस्तक 
					हो गए। वे अवाक् रह गए। ‘‘पच्चीस वर्ष पूर्व एक दुर्घटना में 
					चित्राजी के पति घायल हो गए। उनके मस्तिष्क ने काम करना बंद कर 
					दिया था। जिस अस्पताल में उन्हें लाया गया, उसी के एक कमरे में 
					मैं ऑपरेशन बेड पर लेटा था। मेरे दिल ने काम करना बंद कर दिया 
					था। चिकित्सकों ने निर्णय लिया था—किसी का धड़कता दिल मिलने पर 
					प्रत्यारोपण हो सकता है। आँख दान, किडनी दान जैसे अंग दान की 
					बात तो सुनी गई थी। देहदान भी होने लगा था। पर हृदय दान तो तभी 
					हो जब वह धड़कता हो, और जब तक दिल धड़कता है, आदमी जिंदा है। 
					भला जीवित का हृदय कोई क्यों दान करे।
 
 चित्राजी के पति का दिल धड़क रहा था। मस्तिष्क ने कार्य करना 
					बंद कर दिया था। डॉक्टर शर्मा ने इनसे अनुरोध किया—‘‘आपके पति 
					को अब हम नहीं बचा सकते। पर आपकी सहमति हो तो इनका दिल किसी और 
					के शरीर में प्रत्यारोपित किया जा सकता है। वह जिंदा हो सकता 
					है।
 
 ‘‘सुझाव सुनकर चित्राजी पर क्या बीती, मुझे नहीं मालूम। और 
					किसी ने जानने की कोशिश भी की कि नहीं, मालूम नहीं। चित्राजी 
					ने अनुमति दे दी थी। मेरा दिल पिछले पच्चीस वर्षों से धड़क रहा 
					है, यह मेरा नहीं, इनके पति का दिल है। पर पिछले पच्चीस वर्षों 
					में इन्होंने एक बार भी एहसान नहीं जताया। इन्होंने तो मुझे तब 
					भी नहीं जाना, न देखा था। मैंने भी नहीं। इन्होंने कभी मुझे 
					ढूँढ़ने की कोशिश भी नहीं की। पर मैं बहुत बेचैन था। जीवन 
					देनेवाली के प्रति आभार भी नहीं प्रगट कर सका। दो वर्ष पूर्व 
					इनके शहर में गया। डॉ. शर्मा मिल गए। मेरा दुर्भाग्य कि इनसे 
					तब भी भेंट नहीं हो सकी। डॉ. शर्मा से इनका मोबाइल नंबर मिल 
					गया। फोन पर ही मैंने इन्हें अपना परिचय दिया। मनुहार पत्र 
					भेजा। फिर निमंत्रण। बहुत आग्रह करने पर ये मेरी बेटी के विवाह 
					पर आईं हैं। मैंने भी इनको आज सुबह ही पहली बार देखा। अब आप ही 
					सोचिए पंडितजी! हमारे परिवार के लिए इनसे बढ़कर शुभ और कौन 
					होगा। मेरे विवाह और मेरे बच्चे होने के पीछे भी यही तो हैं। 
					मैं हूँ, तभी तो सब है।’’
 
 कन्यादान के रस्म के समय तो सबकी आँखें भरती हैं। शालिग्रामजी 
					ने तो कन्यादान के पूर्व ही उपस्थित सभी आँखों में पानी भर 
					दिया।
 
 माला मंडप पर से उठी। सीधे चित्राजी के पास पहुँची। पैर छूकर 
					आशीष लिये और हाथ पकड़कर मंडप पर ले आई।
  महिलाओं के झुंड ने 
					आँसू पोंछकर गाना प्रारंभ किया —‘शुभ हो शुभ, आज मंगल का दिन 
					है, शुभ हो शुभ। शुभ बोलू अम्मा, शुभ बोलू पापा, शुभ नगरी के 
					लोग सब, शुभ हो शुभ!’’ 
 रिश्ते को नामकरण की आवश्यकता नहीं पड़ी। अनेक रिश्तों से भरा 
					था प्रांगण। पर सबसे ऊँचा हो गया था शालिग्रामजी और चित्राजी 
					का रिश्ता। बेनाम था तो क्या?
 
                        
                        
                        ६ मई २०१३ |