रचनाकार
नमिता सचान सुंदर
*
प्रकाशक
अथर्व पब्लिकेशंस
नई दिल्ली
*
पृष्ठ - १२०
*
मूल्य - ४५०
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खिड़की पर
टिका आसमान (कहानी संग्रह)
नमिता सचान सुंदर का बीस
कहानियों का संग्रह आरंभ से अंत तक हमारी संवेदना के तारों
को झंकृत करता है। यह कहानी संग्रह मानो पुरवैया का झोंका
है जो हमें अपने गाँव के गलियारों, अटरियों, बखरियों और
कोठरियों तक उड़ा कर पहुंचा देता है। कहानियों के पात्र
इतने जाने-पहचाने से लगते हैं जैसे हम इनसे अपने घरों,
परिवारों और आस- पड़ोस में अक्सर देखते- सुनते, मिलते रहते
हैं।पात्र किसी कल्पना जगत की उपज नहीं बल्कि जीवन की डगर
पर चलते-चलते हमें मिल गए हैं इसीलिए हमारे मन की चौखट पर
दस्तक देते हुए कभी भी हमारे सामने आ खड़े होते हैं। ये
जीवंत पात्र हमारे मन में इतनी उथल-पुथल मचा जाते हैं कि
हम लंबे समय तक उनकी व्यथा- कथा में डूबते- उतराते रहते
हैं।
संग्रह की पहली कहानी जिसके पात्र अनाम हैं पर मन पर गहरी
छाप छोड़ जाते हैं। कहानी ऐसे सुकोमल ताने-बाने से बुनी गई
है कि इन अनकही, अनचीन्ही भावनाओं को क्या नाम दें...
सिर्फ एहसास हैं ये रूह से महसूस करो...नारी अंतर्मन में
छिपी परतों की सीवन उधेड़ती ‘ललिया भौजी’ अत्यंत
मर्मस्पर्शी कहानी है। मन की वेदना और सूनेपन को मन में ही
छुपाए कर्तव्यों की चक्की में पिसती एक न एक ललिया भौजी से
हम सबका सामना कभी न कभी हुआ ही होगा और उनके दुःखद अंत से
हमारी आँखें नम हुई ही होंगीं।
‘परशुराम रोते नहीं’ कहानी का शीर्षक ही मन को भिगो जाता
है और हम प्रस्तुत हो जाते हैं किसी टीस की अनुभूति के
लिए। यह जीवन की कैसी विडम्बना है कि जो मास्टर परशुराम
कहानी के आरंभ में बल, पराक्रम और सक्षमता की प्रतिपूर्ति
दिखाई देते हैं वही कहानी के अंत में कितने निरीह,
निस्सहाय और दयनीय दिखाई देते हैं।वह अपनी प्रिय बिट्टो का
मृत चेहरा देख कर उससे माफी तो मांगना चाहते हैं पर उसके
साथ हुई बर्बरता और अन्याय का विरोध करने की हिम्मत नहीं
जुटा पाते।कितनी सशक्त है लेखिका की अभिव्यक्ति, ‘आर्थिक
रूप से कमजोर और एकजुट समूह के बीच अकेले घिरे आदमी की
बेबसी कहीं भीतर तक छील रही थी हमें।‘ |
‘विरासत’
कहानी के प्रारंभ में सांध्य बेला के मनमोहक चित्रण, आशु
को उसके अतीत की ओर खींचती यादों की उथल- पुथल में डूबते-
उतराते पाठक को कहानी के चौंकाने वाले अंत का भास तक नहीं
मिलता।जब रहस्य का पर्दा उसके सामने से उठता है तो वह
निःशब्द, स्तब्ध रह जाता है मानो ठगा सा। शायद यही इस
कहानी की खूबसूरती है जो पाठक के मन पर गहरी छाप छोड़ जाती
है।
‘मजबूत हुई गई तुम्हरी चाची’ कहानी में “चाची की धीरे-
धीरे मैली पड़ती धोती,वीरान आँखें बिना बोले भी बहुत कुछ
कह जाती थीं।“ जैसे वाक्य मानो संकेत मात्र से ही कहानी की
पूरी पृष्ठभूमि स्पष्ट कर देते हैं। वह चाची जब झकाझक सफेद
इकलाई साड़ी पहने, मुस्कुराते, दमकते चेहरे के साथ कुछ
अंतराल के बाद प्रकट होती हैं तो सिद्ध कर देती हैं कि
नारी अबला नहीं सबला है। यदि वह अपने आत्मविश्वास को जागृत
कर ले तो मजबूर नहीं रह जाती, मजबूत हो जाती है। अब ‘मैं
जाऊँ सोनचिरैया’ की मोनिका भी इसी श्रंखला की एक कड़ी
है।‘ममता’ कहानी भी स्त्री शक्ति की प्रतीक है।
‘कमरा भर आकाश’ की नायिका मौली के सपनों के संसार का
सुनहरा चित्र पाठक के कल्पना चक्षुओं के समक्ष साकार हो
जाता है, इन शब्दों के साथ, ‘नीले- नीले चमकते आकाश में
कपास के फूल से तिरते बादल आपस में गुंथ उसके लिए हिंडोला
बना देते थे....।‘ मौली के सपने साकार भी होते हैं धनाढ्य
परिवार के सात्विक से उसके परिणय के साथ- साथ। वह अपने
मनचाहे संसार के आनंद में डूबी हुई जब जागती है तो अंत की
हकीकत एक झटके के साथ उसे स्वप्न जगत से निकाल, यथार्थ की
कठोर भूमि पर ला पटकती है।उसके साथ- साथ पाठक भी हतप्रभ रह
जाता है।
‘नई इबारत’ कहानी के आरंभ में प्राकृतिक अवलोकन से
मंत्रमुग्ध, नाजुक चाहतों वालीं नायिका से हमारा परिचय
होता है।अचानक घटित, अकल्पनीय, दुस्सह परिस्थितियां उसके
कोमल मन को घायल कर उसमें क्या परिवर्तन लाती है, उनका
सांकेतिक चित्रण है।
‘अपने- अपने दंश’ कहानी यह दर्शाती है कि लेखिका स्त्री
जीवन की पीड़ा को कोमल स्पर्शों से सहलाने के साथ- साथ
पुरुषों के मनोभावों को भी उसी सहजता और संवेदवशीलता के
साथ उकेरती है।नवयुवक शीबू अपनी माँ को खो देने के बाद
कैसी अपराध भावना से पीड़ित है, इसका सफल चित्रण हमें अंदर
तक भिगो देता है।
‘कहाँ- कहाँ हरसिंगार रोप गए हो मास्टर साहब’ की चौदह
वर्षीय सिया के लुटे- पिटे जीवन को गुप्त रूप से संवार कर
मास्टर दीनानाथ नेपथ्य में चले जाते हैं। रह जाती हैं उनकी
पत्नी जानकी सिया के उज्जवल भविष्य की तस्वीर देखने को।
मास्टर साहब के जीवन में की गई पर सेवा, पर उपकार की कई
तस्वीरें पत्नी जानकी के स्मृति पटल पर झिलमिलाने लगती हैं
और वह कह उठती हैं, ‘कहाँ- कहाँ परसिंगार रोप गए हो मास्टर
साहब’, तब कहानी का यह लम्बा शीर्षक कितना सार्थक लगने
लगता है।
‘अमावस में चाँदनी’ का शीर्षक ही संकेत कर देता है कि हर
अंधेरी रात के बाद एक उजला सबेरा होता है।दूसरों के जीवन
के दुःख तकलीफें दूर करने वाली दामिनी के जीवन में आने
वाली समस्याओं और संकटों की काली छाया को दूर करने हेतु
विचार का प्रकाश किरण की तरह प्रवेश सुखमय लगता है।अंत में
उसकी मानसिक पीड़ा का समाधान नायिका के साथ- साथ पाठक के
भी दुखते मन पर मरहम का सा लेप कर जाता है।
‘अम्मा’ कहानी की नन्हीं टिन्नी और भागो बुआ का रिश्ता
बड़े नाजुक धागों से बुना गया है।समदुःखभोगी अनजाने ही
नेह- छोह के बंधन में बँध एक दूसरे का सहारा बन जाते हैं।
माँ के स्नेह हेतु आकुल टिन्नी को अंततः स्नेहमयी भागो बुआ
में अपनी स्वर्गवासी अम्मा मिल ही जाती हैं।
‘सन्यासिन’ कहानी के ये शब्द चित्र कहानी के मुख्य पात्र
को हमारे ज्ञान चक्षुओं के सामने साकार कर देते हैं –
‘चिड़िया के फुदकने जैसा होता था उनका चलना। धीरे- धीरे
फुदकती चिड़िया, वह भी भरपूर चौकन्नेपन से भरी हुई।‘आज की
यह चौकन्नी संन्यासिन अपने बचपन में ही पुरुषों की वासना
का शिकार हो जाती है। बाबा जी के स्नेह की शीतल छत्रछाया
में पलती अपने घर जाने की जिद कर बैठती है। समाज के डर से
अपने माता- पिता द्वारा ठुकराये जाने पर वह जीवन भर के लिए
संयासिन हो कर रह जाती है।समाज की क्रूरता और स्त्री की
परवशता का आइना है यह कहानी।
‘पगलिया’ कहानी में घटनाओं की उथल- पुथल पाठक की उत्सुकता
को एक सम्मोहन जाल में आरंभ से अंत तक बाँधे रखती है।
स्नेहमयी भाभी अपने जीवन में आई हलचल और उठापटक का इतनी
शालीनता और गरिमामय ढंग से सामना करते हुए पगलिया और बच्चे
के जीवन को संवारती है कि पाठक का मन भीग उठता है।
कहानियों की विषय वस्तु के आकर्षण के साथ- साथ लेखिका की
वर्णन शैली भी हमें अपने सौंदर्य के जाल में बाँधे रखती
है। शब्द चित्र शैली इतनी सम्मोहक और सशक्त है कि ‘नीले
आकाश में कपास के फूल से तिरते बादल’, ‘पार्क में झूमते,
बसंत की अगवानी करते नीले- पीले उन्नाबी फूल’, ‘ललिया भौजी
की छरहरी डाल सी लचकती देह’, संयासिन की फुदकती , चौकन्नी
चाल, हवेली के पीतल के छल्लों वाले आबनूसी कपाट, देहरी,
दालान, तुलसी चौरे पर जलता दिया, सभी हमारी आँखों के सामने
साकार हो जाते हैं।किसी कुशल चित्रकार की तूलिका से निसृत
इन मनमोहक चित्रों की आर्ट गैलरी हमें मंत्रमुग्ध कर देती
है।
अवध क्षेत्र में प्रचलित शब्दों के प्रभावशाली प्रयोग में
हमें अपनी मिट्टी की महक आती है जो हममें अपनेपन का एहसास
जगाती है।किसी आंचलिक उपन्यास को पढ़ने जैसी अनुभूति हमें
अंदर तक भिगो जाती है। जैसे—‘आज बहुतै याद आ रही है
पिछवाड़े पर की वो घनेरी निबिया....।‘ एक अन्य प्रसंग-
‘अम्मा याद आ रही हुइएं। अइबै करिहैं। ऐसन तो सबै महतारी
बाप का आपन लरिका- बच्चा पियार होत हैं पर तुम्हरी अम्मा
के तो प्राण बसत रहैं तुममा।‘
कहीं कहीं तो शैली इतनी काव्यात्मक हो जाती है कि हमें
लगता है कि हम कहानी नहीं कविता का आनंद ले रहे हैं—‘वह
पलक झपकते ही पहुंच जाती दूर ऊपर सपनों के देश में जहाँ
हवाएं केवल उसके लिए ही राग मल्हार छेड़तीं, अपनी रेशमी
छुअन से उसके पोर- पोर में उल्लास के अनगिनित छंद लिख
जातीं...।‘ यह वर्णन शैली इन कहानियों की अपनी पहचान है।
-
गीता कुमारी
१ जून २०२३ |