आज सिरहाने

 

रचनाकार
जयप्रकाश मानस

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प्रकाशक
 शिल्पायन, १०२९५, लेन नं. १, वैस्ट गोरखपार्क, शाहदरा,
दिल्ली-११००३२

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पृष्ठ - १२८

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मूल्य : १७५ रुपए

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'अबोले के विरुद्ध (कविता संग्रह)

मानवता में अस्तित्वबोध की नयी ऊर्जा एवं संभावनाओं को लेकर कवि जयप्रकाश मानस का नया काव्य संग्रह ‘अबोले के विरूद्ध’ अनस्तित्व के खिलाफ साहित्य, समाज एवं व्यक्ति की नयी भूमिका को रेखांकित करता है। संग्रह वर्गीकृत नहीं अपितु बहुरंगी संवेदनाओं का संयोजन प्रतीत होता है। संग्रहीत कविताओं के विविध विषयों साहित्य की भूमिका, मनुष्यता की संभावनाएँ, आत्म अस्तित्व का विस्तार, आशावाद, प्रकृति प्रेम, श्रम, संघर्ष आदि को लोक के झीने से तार में पिरोया गया है। पारंपरिक विषयों से इतर नक्सलवादी समस्या, पुलिस, शासन, बाजारवाद, किसान, आदिवासी आदि सामाजिक समस्याओं पर कवि की गहन संवेदनात्मक अनुभूतियाँ संग्रह को अधिक प्रासंगिक बनाती है।

संग्रह का शीर्षक है-‘अबोले के विरूद्ध’। प्रश्न है-अनबोला क्या? अनबोलता कौन? वैसे तो संपूर्ण संग्रह में एकतार व्याप्त स्व की तलाश इसे स्पष्ट कर देती है किंतु दबे हुए अस्तित्व से साक्षात्कार का प्रयास करती हुई कविता ‘तो’ आधुनिक मानव के एकाकीपन, अजनबीपन और आत्मविस्मृति के विरूद्ध ‘बोलने’ का प्रयास है-
कुछ तो बतियाओ
कि वह निहायत अबोला न रह जाये।


यहाँ पर ‘वह’ मानव का वह बोध है जो भागमभाग की जिंदगी में बहुत पीछे छूट गया है, बहुत गहरे दब गया है। अस्तित्वबोध की अन्य कविताओं ‘इधर बहुत दिन हुए’, ‘कोई नहीं है बैठे-ठाले’, ‘आप किधर जाना चाहेंगे?’ ‘निकल आ’, ‘झाड़ू, ‘गिरूँगा तो उठूँगा’, ‘निहायत छोटा आदमी’, ‘रूमाल’, ‘लकड़ी का बयान’ आदि में भी अस्मिता से साक्षात्कार की बेचैनी है। कवि नये जमाने के शिक्षित युवावर्ग के समझौतावादी रवैये और लिजलिजे पन को रेखांकित करता है-
रीढ़ की हड्डी को तानकर/रख पाया नहीं कभी/आत्महंता प्रश्नों को टालता रहा हर बार/एक बार भी/न चीखा न चिल्लाया।

समाज में श्रम-जीवी और नेपथ्य में भूमिका निभाने वाले लोगों की उपयोगिता सामाजिक ढाँचे के आधार के रूप में कितनी अधिक है, यह कवि ने महसूस किया है। कुण्ठा, निराशा, तनाव और मानसिक द्वंद्व भरे आधुनिक समाज में अस्तित्व के संकट की तरफ इशारा करती अनेक कविताएँ कवि की गहन मानसिक अनुभूतियों एवं द्वंद्व के क्षणों की पड़ताल करती रचनाएँ हैं। आधुनिक समाज में उद्भूत नित नूतन प्रतिस्पर्धा एवं उनकी वजह से जन्मा एक अदृप्त भय हमारे चारों ओर के वातावरण में नैश अंधकार की तरह व्याप्त हो गया है। अब मानव का व्यक्तित्व दृष्ट नहीं रहा। मानव वस्तुनिष्ठता में ही अपने व्यक्तित्व के खण्डचित्रों को ढूँढ रहा है। ऐसे में कई बार खण्डित व्यक्तित्व या निर्वैयक्तिकता ही हाथ आ पाती है। अपनी ‘निकल आ’ कविता में कवि की चिंतना का यही केंद्र है-
प्रकाशित नहीं कर पाती बाहर की दुनिया
कि ठीक ठाक देखा जा सके भीतर तक
ऐसे में कई बार खतरा होता है
अनस्तित्व होने का


इस समस्त संकट का हल कवि ने आत्मविस्तार की चेतना के रूप में सामने किया है-‘‘ओ सशंकित मन/निकल आ बाहर/इधर/अपने गुहा से।’’ यहाँ अपनी खोल से निकलकर सब कुछ से जुड़ने का भाव है। स्वभाव को महाभाव बनाने का प्रयास है। ‘निहायत छोटा आदमी’ भी अपने छोटे पाँवों से बड़े-बड़े डग भरकर चेतना के विस्तार का संदेश देता है।

संग्रह की सर्वप्रमुख प्रवृत्ति अशेष संभावनाओं का सशक्त प्रतिकार है। यह प्रवृत्ति अधिकांश कविताओं का प्रमुख स्वर है। जो संभावनाओं के समापन की घोषणा के विरूद्ध लिखी गयी हैं। विषम परिस्थितियों में भी संभावनाओं को बचाये रखना, कवि की अदम्य जिजीविषा को दर्शाता है। चाहे तूफान के बाद टूटे पेड़ पर बैठी अकेली चिड़ियाँ हो, राख के नीचे दबी आग हो, लड़ाई के बाद बची मनुष्यता हो, भारी-भरकम चट्टान के नीचे बची चीटियाँ हों या सूखे के बाद भी रेत के गर्भ में बची थोड़ी सी नमी हो, इन सभी में कवि भविष्य की शेष आशाओं को टटोलता है। ‘‘कहने को तो/बची रह
गयी/पेड़ पर एक भयभीत चिड़ियाँ भी/कोई गम नहीं/शिकवा भी नहीं/गीत सारे के सारे/बचे रह गये।’’ यही संभावनाएँ ही भविष्य का स्परूप तय करेंगी उसे आधार प्रदान करेंगी। इन्हीं आशाओं को सहेजने, उनके संयोजन एवं प्रवर्धन की उत्कट अभिलाषाएँ अनेक कविताओं को रचना दृष्टि प्रदान करती हैं। ‘अशेष’, ‘बहुत कुछ है अपनी जगह’, ‘कविता होगी तो’, ‘बचे रहेंगे’, जैसी कविताएँ जहाँ संभावनाओं की तलाश में अंतर-बाहर की यात्रा पर हैं वहीं ‘कुछ बचे या न बचे’, ‘डैने’, ‘लोग मिलते गये काफिला बढ़ता गया’ जैसी कविता उनको समेटने और सहेजने का उपक्रम करती हैं, ताकि नव निर्माण में उसका उपयोग हो सके।

मानवीय मूल्य चिंतन के लगभग सभी संदर्भ संग्रह की कविताओं में अपनी सामयिक प्रासंगिकताओं के साथ सुलभ हैं। ‘कैसोवरी, हमारे द्वीप में आना मत’ नामक कविता में कैसोवरी जहाँ नकारात्मक और आत्मघाती आस्थाओं की प्रतीक है वहीं विदेशी, परभक्षी और आधुनिक चकाचौंध से युक्त छद्म चालों वाली आर्थिक औपनिवेशिक संस्कृति के प्रतीक के रूप में भी वह अपनी अर्थवत्ता का विस्तार करती हैं। उसी कविता में चिड़ियाँ, जो लोक और मानवता की पक्षधरता का
प्रतीक हैं के माध्यम से कवि ने कैसोवरी के विरूद्ध मोर्चा खोल दिया है -
कैसोवरी हम लामबंद हैं
खेलते कूदते नये बच्चों से आबाद द्वीप में
किसी भी आक्रमण के लिए
भूलकर भी आना मत/हमारे द्वीप में।


इसी तरह की मानव पक्षधरता के स्वर संग्रह की कई कविताओं में मुखरित हुए हैं। ‘छाँव निवासी’ जहाँ अवसरवादी तत्वों पर तीखा प्रहार है तो वहीं ‘रहा जा सकता है वहाँ भी’ कविता मानवीय संबंधों की जीवंतता को ही वास्तविक दुनिया करार देती है। ‘यह तो बूझे’ में साम्प्रदायिकता तो ‘लोग जरूर थे’ में संवेदनहीन मनुष्यता को आइना दिखाने की कोशिश है। ‘जो आत्महत्या नहीं करते’ कविता में वैयक्तिक क्षोभ, घुटन या संत्रास के विकल्प के रूप में आत्महत्या का विरोध किया गया है। कवि के अनुसार इस नाराजगी और दुख को आत्महत्या में नहीं सर्जनात्मकता में अभिव्यक्ति मिलनी चाहिए।

संकीर्ण दृष्टिकोण और क्षुद्र मानसिकता का परिहार भी कुछ कविताओं का विषय बना है। ‘सपना’ मे बकरी संकुचित मानस और उसके सपने संकुचित मानसिकता के प्रतीक हैं। एक बड़ी दुनिया जिसमे सबके लिए जगह हो, के लिए एक बड़े सपने की जरूरत होती है। इस बकरी के सपने से बहुत बड़े सपने की। यहाँ व्यंग्य बहुत ही सुंदर बन पड़ा हैं। ‘सफर में’ कविता वर्तमान की सावधानी के साथ भविष्य के गर्भ में झाँक आने की चेष्टा है।

मानवता के भय और संघर्ष को भी मानस जी की कविताओं में अभिव्यक्ति मिली है। ‘खौफ’ कविता में भयमुक्त अनबोलते मानव में मृत्यु के असली स्वरूप को देखा जा सकता है तो ‘खतरा’ में मानव मन के अंतर में घर कर चुके भय को ही सबसे बड़ा खतरा कहा गया है। कवि सर्वत्र भय का निदर्शन आत्मिक ही मानता हैः-
वहीं आदमी मरने लगता है
जब खौफ़ समा जाता है मन में


कवि ने सामाजिक सापेक्षता की आवश्यकता को सिद्दत से महसूस किया है। कविता ‘ठंडे लोग’ में निरपेक्ष सामाजिकता को ही समाज के लिए खतरा करार दिया गया है। पुनर्निमाण और निर्मित की रक्षा के लिए अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही पड़ेंगे। ‘बचे रहेंगे सबसे अच्छे’ में अच्छे, बहुत अच्छे और सबसे अच्छे मनुष्य में फर्क को बढ़ती सामाजिक सापेक्षता और लोकमंगलकारी भावना के संदर्भ में चिह्नित किया गया है। आत्म प्रसार और सामाजिक सरोकारों से अधिक जुड़ाव को मनुष्य की अच्छाई के समानुपातिक आधार पर रखा गया है।

मानव के इन बहुरंगी चित्रों के मध्य, निरंतर क्षरण, भय और संघर्षों के बावजूद कवि का आशावादी दृष्टिकोण भाषा और भावों की सीमा से परे विश्वमानवता की चेतना से कविता को लगातार प्राणान्वित करता रहता है-
हर भाषा में साफ-साफ देखी जा सके
पृथ्वी की आयु निरंतर बढ़ते रहने की अभिलाषा
ऐसी ही कुछ-कुछ कविता में

कवि आशावादी दृष्टि से ही समस्त विजयों के लिए आधार तैयार करता है। ‘जीत’ कविता में आभावों के बावजूद हौसले
की बुलंदी से जीत की भूमिका लिखने की बात है। यहाँ कवि का आशावादी दर्शन भविष्य की असीम संभावनाओं के लिए स्वप्न चित्रों का निर्माण भी करता है-
सबसे बड़ी बात होगी
अब जो दिन आयेगा
नहीं डूबेगा किसी इशारे पर
सबसे छोटी बात/रात आयेगी सहमी-सी
और चुपके से खिसक जायेगी
आँख तरेरते ही।


नक्सलवादी समस्या और आदिवासियों के संकट पर भी कवि ने बेलाग टिप्पणियाँ अपनी कविताओं के माध्यम से की है। नक्सली मनोविज्ञान और भोले-भाले आदिवासियों में इसके प्रसार के तरीकों और दुष्प्रभावों पर बहुत ही पैनी दृष्टि डाली गयी है। चूंकि कवि छत्तीसगढ़ की माटी से जुड़ा है, इसीलिए वहाँ की यह ज्वलंत समस्या उसकी अंतस्चेतना को गहरे स्तर तक आहत करती है। यह प्रायोजित नक्सलवाद किस तरह लालच, भय और झूठी सहानुभूति दिखाकर सरल हृदय आदिवासियों में अपनी पैठ बनाता है, फिर इन्हीं को अपने रक्षा-कवच की तरह इस्तेमाल करता है। इनकी चाल न समझ पाने के कारण अक्सर आदिवासी समुदाय के लोग इनका साथ देते हैं और प्रशासन तथा नक्सलियों के बीच चले संघर्ष में दोतरफा शिकार बनते हैं। कवि की नजर में सबसे खतरनाक नक्सलियों द्वारा आदिवासियों का मानस-प्रक्षालन है। नक्सलियों द्वारा भोले आदिवासियों का ब्रेनवास करके उनके अंतर के मधुर को सुखा दिया जाता है। अब वहाँ मनुष्य की जगह होता है एक काठ, एक हथियार जो कभी नक्सलियों तो कभी प्रशासन के हाथों में खेलता है। यहाँ हत्या देह की नहीं आत्मा की होती है। एक संभावना की हत्या होती है। ‘देखते ही देखते एक हत्या हो जाती है’ कविता में हत्या की इस नायाब विधि का सम्यक तरीके से पर्दाफाश किया गया है। बस्तर पर लिखी कुछ कविताओं में आदिवासी संकट को तीव्र संवेदना के साथ उभारा गया है।
सुबक सुबक कर रो रहे हैं
नदियाँ, जंगल, पहाड़, चिड़ियाँ
और पेड़ की आड़ में आदिवासी


नक्सली क्रांति की प्रासंगिकता और मंशा पर संदेह जाहिर करते हुए कवि कहता है-‘‘इन सबके बीच/झूम-झूम कर गा रहा है क्रांतिकारी/ यह तो यूँ ही सुनाई दे रहा है।’’ नक्सलवादी प्रसार को लेकर भी कवि चिंतित दिखाई पड़ता है। ‘तब तक’ कविता में समय रहते इस दुष्प्रचार को रोकने तथा शांति सुनिश्चित करने के लिए कवि सचेत रहता है। यहाँ पुलिस की भूमिका को भी कवि रेखांकित करता है जो दिन-रात एक कर लोगों की सुरक्षा एवं पुनर्निमाण में लगे हुए हैं। ‘वे जा रहे हैं’ कविता पुलिस की संवदेनशीलता के साथ उसकी मुक्तिदायी भूमिका का भी चित्र प्रस्तुत करती है।

आदिवासी और शहरी समाज-संस्कृति की तुलना के माध्यम से भी कवि वैचारिकी स्तर पर मनोस्थितियाँ अंतर्द्वन्द्व और जटिलता को उभारता है। बनवासी समाज सहजता एवं सादगी में भी अधिक संवेदनशील है, जबकि संस्कारवान शहरी सारी सुविधाओं के बावजूद कोलाहल उधेड़बुन एवं विभ्रम की स्थिति में जीता है। ‘बनवासी गमकता रहे’ कविता के माध्यम से भी कवि आदिवासियों की मुखालफत करता है।

किसान समस्या कई कविताओं का केन्द्रीय विषय है। अकाल, कर्ज एवं उपेक्षा का शिकार किसान अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। अकाल की विभीषिका का प्रभाव किसान किस तरह झेलता है यह ‘अकाल में गाँव’ कविता में क्रमशः गहराते अकाल के मार्मिक चित्र द्वारा प्रस्तुत हुआ है। ‘‘इस साल फिर बिटिया की पठौनी/पुखरौती जमीन की/कागज-पतर नहीं लौटेगी/साहूकार की तिजोरी से/बूढ़ी माँ की अस्थियाँ/त्रिवेणी नहीं देख पायेंगी’’ ‘कुदाल का गीत’ कविता में श्रम के प्रतीक कुदाल की महत्ता प्रतिपादित करके श्रम के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन किया गया है। कविता में लोक मान्यताओं का भी बड़ा सजीव शब्द चित्र खींचा गया है।

ग्रामीण परिवेश के साथ लोक जीवन के अनेक चित्र संग्रह की कविताओं में सुदंरता से उकेरे गये हैं। अंचल की जीवन रेखा नदी के माध्यम से कवि ने मानव और प्रकृति के भावनात्मक अन्तर्संबंधों और उससे जुड़ी लोकप्रथाओं का भावपूर्ण एवं मार्मिक निरूपण किया है। ‘लोक’ कविता में अदृश्य रूप से समस्त अंतस्थल को अभिसिंचित करने वाली लोकधारा को नदी के प्रतीक द्वारा लोक संस्कृति की वाहक के रूप में देखा गया है। प्रकृति में घुले-मिले लोक-चित्र का कवि ने कोलाज रचा है जो ग्राम-जीवन की ताजगी से भरपूर है-
चिड़ियों के झुरमुट से बोल उठना
बूढ़ी औरतों का झुलझुलहा स्नान
प्रभाती की लय में गांव
छानी-छानी मुस्कुराहट सूरजनारायण की
आँगन बुहारती बेटियों का उल्लास
बछिया को बीच-बीच पिलाकर गोरस निथारना।

लकड़ी भी अपना बयान पीढ़ा बनने के पक्ष में देती है। उसे कुर्सी बनने से परहेज है। यह कवि के लोकप्रेम को दर्शाता है। लोकप्रचलित शब्दों का कवि ने बहुत सावधानी से और सुंदर प्रयोग किया। पतरी-दोना, रेहन, जलावन, पउसूल, आदि देशज शब्दों के प्रयोग से कवि ने लोकरंग की छवियों को अर्थ-व्यंजनाओं से संपृक्त कर दिया है।

कविता की सहज वृत्ति के अनुकूल प्रकृति और प्रेम का भी भरपूर वर्णन इस संग्रह में प्राप्त होता है। विशुद्ध प्रकृति परक रचनाओं के अभाव के बावजूद प्रकृति संवदेनाओं और अनुभूतियों की वाहक के रूप में हर जगह अपनी उपस्थिति दर्शाती है। ग्राम, आदिवासी, किसान परंपराओं आदि अनेक संदर्भो में प्रकृति ने मानस चित्रों को कैनवस प्रदान किया है। धान की पकी बालियाँ, आम्र-मंजरियों की हुमक, पके अमरूद की महक, चिड़ियों का गीत, आदि प्राणों में ताजगी का संचार करते हैं। प्रकृति के नष्ट होने की चिंता भी कवि को है तभी तो वह ‘संबंध’ कविता में धरती को बचाने की कवायद में उसको मानवीय संबंधों से जोड़ कर देखता है।

प्रेम-परक कई कविताएँ स्वतंत्र रूप से संग्रह का अंग बनी हैं। प्रेम की सात्विकता, गुरूता, उदात्तता एवं शक्ति का आभास ‘वजन’, ‘अभिसार’, ‘जिन्होंने नहीं लिखा कभी प्रेम-पत्र’ आदि कविताओं में प्राप्त होता है। उदात्त प्रेम का भार कितना अधिक होता है यह अन्य चीजों के साथ एक पलड़े में रखी पृथ्वी और दूसरे पलड़े में रखी रत्तीभर प्रेम को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है-‘‘डोलेगा नहीं कांटा/रत्ती भर/किसी ने रख दिया है चुपके से/रत्ती भर प्रेम दूसरे पलड़े में’’। इसी के साथ प्रेम पर लगे सामाजिक बंधनों और प्रेम के अकारण दुश्मनों का भी जिक्र आता है। सामाजिक मर्यादाओं के नाम पर अपने ही लोग कितने खतरनाक हो जाते हैं यह ‘चिट्ठी’ शीर्षक की दूसरी कविता में देखा जा सकता है। इन अपनों का आचरण इस कदर परिवर्तित हो जाता है गोया प्रेम करना ही सबसे बड़ा पाप हो-‘‘लगा जैसे/भोला-भाला मन देकर/ईश्वर ने किया हो सबसे बड़ा पाप/क्यों दीख पड़ी/सुनहरे शब्दों की चिट्ठी/लड़की की नई किताब में।’’

कुछ सामान्य विषयों से संबंधित कविताएँ भी संग्रह का हिस्सा बनी है। जैसे शासन का चरित्र, बाजारवाद आदि। ‘कमरे से कुछ भी नहीं दिखता’ कविता में बिना जमीनी हकीकत से रूबरू हुए योजनाएँ चलाने वाली प्रवृत्ति पर कटाक्ष किया गया है। एक कमरे में बैठे-बैठे कागजी घोड़े दौड़ाने वाली नौकरशाही भी निशाने पर है-‘‘इसी कमरे से देखना है उसे/लुटे-पिटे लोग/थके-हारे पाँव/डबडबाई आँखें/मुरझाये चेहरे।’’ इसी प्रकार मजबूर गरीबी और उस पर बाजारवादी पकड़ का जिक्र करते हुए कवि कहता है कि जब अमरूद पक जाते हैं और उनकी मीठी महक से सारा घर-आँगन महक उठता है तो-

महिलाएँ मनबोधी फल को
लाख न चाहते हुए भी
बाजार में छोड़ आती हैं
नोन, तेल, साबुन के लिए


समाज निर्माण में साहित्य की भूमिका अमूल्य है। साहित्य के इस सृजनात्मक कृत्य को लेकर भी कवि ने कई कविताओं में अपनी अवधारणा स्पष्ट की है। बदलते हुए समाज के साथ साहित्य की भूमिका में भी लगातार परिवर्तन हो रहा है। अब साहित्य कवि की अनुभूतियों और संवेदनाओं के साथ ही समाज की समेकित चेतना एवं उसकी आवश्यकताओं का भी वहन करता है। अब साहित्य की दृष्टि शाश्वत की बजाय सामयिक पर अधिक टिकती है। यह अलग बात है कि अधिक दूर दृष्टि के अभाव में साहित्य अल्पायु भी हो जाता है किंतु निकट दृष्टि के कारण ही उसमें वर्तमान को प्रभावित करने की क्षमता भी बहुत बढ़ जाती है। नित नई तरह की संवेदनाओं का वहन करने के लिए साहित्य को भी नयी शरीर संरचना और नये शब्दों की तलाश करनी पड़ती है। संग्रह की पहली कविता में ही कवि नयी चेतना के लिए नयी जमीन की खोज करता है। नये शब्दों के लिए कवि का यह संघर्ष साहित्य के विस्तार का सुखद संकेत है। ‘कविता होगी तो’ शीर्षक कविता में साहित्य की उपादेयता दर्शाते हुए उसे मानवता के लिए अनिवार्य घोषित किया गया है। लोक ही साहित्य को जीवन प्रदान करता है। लोक से कटा हुआ साहित्य स्वयं ही निर्जीव होकर अप्रांसगिक हो जाता है-
‘‘ज्यादा दिन नहीं हुए/कविता में होता था गाँव/और गाँव में जलाशय/बरगद के नीचे पत्थर/शायद पत्थर और पानी की बदौलत/समूचा गाँव प्रसन्न था/और कविता भी/चाहे आप किसी भी कोण से देखें।’’

लेकिन ‘कुछ झूठ बोलना सीखो कविता?’ शीर्षक के अंतर्गत कविता को कुछ फरेब करने और चुप रहने की नसीहत व्यथित करने वाली है। सच बोलने वाला कवि मार तो दिया जायेगा लेकिन खामखां क्यों? आखिर सच की भी तो कीमत कम नहीं। इसके बाद भी कविता में झूठ बोलकर ‘वह’ तो बच सकता है लेकिन ‘कवि’ नहीं। और कविता भी ‘कवि’ के साथ ही आना पसंद करेगी ‘वह’ के साथ तो नहीं।

संक्षेप में प्रस्तुत संग्रह अपने आप में इतना कुछ समेटे है कि समय, समाज और व्यक्ति के लिए अपनी प्रासंगिकता सिद्ध कर सके। कवि ने चेतना के विस्तृत धरातल पर उतरकर हर संभव मनोभावों के अंकन का प्रयास किया है। कवि हर उस मौन को वाणी प्रदान करता है जिसका अब कायम रहना ठीक नही है। कवि हर उस अबोले के विरूद्व है जिसे अब बोल ही देना चाहिए।

 

- प्रमोद चतुर्वेदी
१९ सितंबर २०११