| घरौंदा (उपन्यास) | ||
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                        उपन्यासकार 
                        प्रकाशक 
                        पृष्ठ - २४३  
                         
                        मूल्य - १५$ 
                        प्राप्ति-स्थल | घरौदा रांगेय 
                      राघव  के प्रारंभिक उपन्यासों 
                      में से एक है। इस उपन्यास का रचना काल आज से लगभग ७५ वर्ष 
                      पूर्व का है परंतु आज के पाठक जिन्होंने भारत के 
                      महाविद्यालयों में शिक्षा पाई है अपनी कुछ यादें इस कहानी से 
                      जोड़े बगैर नहीं रह पाएँगे। इसी कारण से उनके इस उपन्यास को 
                      कालजयी उपन्यासों की श्रेणी में रखा गया है। रांगेय जी का मानना था कि 
                      मात्र कल्पना से ही अच्छा उपन्यास नहीं लिखा जा सकता है, 
                      उसके लिए लेखक को उपन्यास के बारे में विस्तृत जानकारी अवश्य 
                      एकत्र करनी चाहिए। रांगेय जी के इस उपन्यास में वर्णित 
                      विस्तृत वर्णन उसे रोचक और पाठक को बाँधे रखने में सफल होता 
                      है। इस उपन्यास की कथा वस्तु स्वतंत्रता के पहले का महाविद्यालयी छात्र जीवन है। तत्कालीन समय की छाप अनेक रंगों की छटाओं में इस कहानी में दिखाई पड़ती है। उपन्यास छात्रावास और कालेज के विवरण से आरंभ होता है, और छात्र जीवन की विविधताओं को प्रदर्शित करता हुआ द्वितीय महायुद्ध और अंग्रेज़ी शासन की छाया में छात्र जीवन को प्रस्तुत करता है। इस कृति में ईसाई मिशनरी का महाविद्यालयों के जीवन में दखल और नियंत्रण भी कई स्थानों पर दिखाई पड़ता है। भारत में तत्कालीन समाज में मिशनरी द्वारा किस प्रकार धर्म पर आधारित विभाजन किया जा रहा था और शिक्षा जगत की राजनीति में उसका प्रभाव किस तरह पड़ता रहा है, इसके संकेत भी कई जगह आते हैं। उपन्यास का नायक गाँव के एक अत्यंत निर्धन परिवार का युवक है जो छात्रवृत्ति के सहारे उच्च शिक्षा को प्राप्त करने की आकांक्षा रखता है। परंतु जब उसका परिचय तत्कालीन धनी परिवारों के युवक युवतियों से होता है तो वह एक ऐसी दुनिया में पहुँचता है जिसमें वह न चाहते हुए भी झंझावात की तरह फँस जाता है। कॉलेज के कुछ चित्रण अत्यंत सजीव बन पड़े हैं। उदाहरण के लिए इसको देखें- "यूनिवर्सिटी का एक हिस्सा। कालेज अपने सिर पर सूली लिए खड़ा है। इधर-उधर बहुत-सी चीज़ें हैं। और यह रेखा है, जिसे सिर्फ़ अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे रेस्टोरेंट, अधकचरे रेस्टरां और बेपढ़े-लिखे यानी हिंदुस्तानी होटल कह अपना नाम देकर पुकारने की तृष्णा दिखाते हैं।" | |
| ...हर शुरू का एक आख़िर होता 
                        है, आज़ाद और चेतन इस आख़िर को आदि ही मानते हैं। मगर 
                        गुलाम दिमाग़ और गुलाम सूरत को इन बातों से कोई मतलब नहीं। 
                        यह कालेज है, कालेज, कालेज। लड़के-लड़कियाँ, प्रोफ़ेसर, 
                        अक्लमंदी, बेवकूफ़ी और मुहब्बत के अपनेपन में नफ़रत का आलम 
                        सब पर छाया हुआ।" रांगेय जी की पैनी नज़र किस तरह से सामान्य स्थितियों में बड़ी-बड़ी बातें ढूँढ़ लेती है। कहीं जीवन के सामान्य संदर्भों में दर्शन का विस्तार देते वाक्य हैं तो कहीं कॉलेज में तेज़ी से पनपते प्रेम की मनोदशा, कहीं छात्र-छात्राओं के बीच वैचारिक संघर्ष को विकास मिला है तो कहीं निराशा के संसार को और यह सभी बहुत सलीके से वर्णित किया गया है। कुछ वाक्य सूक्तियों जैसे भी हैं। एक दो उदाहरण देखें- "तृष्णा जीवन का पहला हाहाकार है। ...एक पल का उन्माद जीवन की क्षणिक चमक का नहीं, अंधकार का पोषक है, जिसका कोई आदि नहीं, कोई अंत नहीं।" अनेक सामाजिक संदर्भों और 
                        बदलती आस्थाओं के प्रति उनके पात्रों के विचार नई पीढ़ी की 
                        सोच को दृढ़ता के साथ प्रकट करते हैं। इस उद्धरण को देखें,
                         एक और वार्तालाप देखें- कथानक में अनेक पात्र हैं। कथा-नायक का जीवन पूरे उपन्यास के दौरान इधर-उधर हिचकोले खाता है, कभी अपनी पढ़ाई का संघर्ष, तो कभी उसके आस-पास के अन्य छात्रों के बीच साँप-छछूँदर जैसी अवस्था। कहानी के मुख्य पात्रों में से एक कामेश्वर, एक संपन्न परिवार का एम. ए. में पढ़ने वाला ऐसा छात्र है जो कई वर्षों से कालेज में डेरा जमाए हुए है। वह एक बिगड़ा हुआ रईसज़ादा है। रानी हेरोल्ड दबाव में आकर ईसाई धर्म स्वीकार कर लेती हैं लेकिन मन ही मन वह इससे खुश नहीं है। एक स्थान पर वह कहती है- 'मैं घृणा के सहारे जिऊँगी, क्योंकि मुझे यही सिखाया गया है। मेरे पिता धर्म के लिए नहीं, पादरी के सिखावे में आकर धन के लिए ईसाई हुए थे। उसके बाद भी अंग्रेज़ पादरी ने उन्हें कभी बराबरी का दर्ज़ा नहीं दिया। यह ईसा का उपदेश नहीं है।' लवंग जो धनी परिवार की मनमौजी लड़की है उपन्यास में कभी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है, तो कभी दर-किनार हो जाती है। इंदिरा पर लेखक का कुछ विशेष स्नेह रहा है। कहानी में एक मज़बूत आधार प्रधान करने वाला चरित्र इंदिरा का है, जो पाठक को हमेशा भरोसा दिलाए रहता है कि कुछ न कुछ अच्छा होकर रहेगा। कहानी का केंद्र घूमते-घूमते कई पात्रों और परिस्थितियों से होते हुए आखिर एक परिवार और एक घर पर अपनी यात्रा समाप्त करता है। कुल मिलाकर यह एक पठनीय उपन्यास है। १४ जनवरी २००८ | ||