इस एकाकीपन के बावजूद उन्हें
यूरोप की प्राकृतिक छटा अपनी ओर आकर्षित करती है। वहाँ के
पतझड़ में भी उन्हें एक अनोखी सुंदरता दिखाई देती है। वे
इस सुंदरता की अनुभूति को सभी के साथ बांटते हुए प्रकृति
से ही सवाल करते हुए लिखते हैं-
पत्तों ने कैसे फूलों को
दे डाली एक चुनौती है
सुंदरता के इस आलम में
इक मस्ती छाई है
क्या पतझड़ आया है।
उनकी कविता, मेरे पासपोर्ट
का रंग उनके मन की व्यथा बहुत ही मार्मिक रूप में पेश करती
है-
मेरा पासपोर्ट नीले से लाल हो गया है
मेरे व्यक्तित्व का एक हिस्सा
जैसे कहीं खो गया है।
तेजेंद्र शर्मा के
कविता-संसार से निकलकर जब मैंने उनके ग़ज़ल संसार पर नज़र
डाली तो वहाँ भी उनकी कोमल भावनाएँ मानो पाठक के सामने
अभिव्यक्त होने के लिए उतावली हैं। वे प्यार को बेहद निजी
अनुभूति मानते हैं। उनके लिए प्यार एक नितांत पवित्र भावना
है। इस भावना में उन्हें खुदगर्ज़ी कतई गँवारा नहीं है।
तभी तो वे लिखते हैं -
मेरे अरमानों को तुमने है कुचल डाला सनम
मैं शिकायत कभी सय्याद नहीं करता हूँ।
अपने प्रिय की यादें
उन्हें रुलाती हैं, शिद्दत वे अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराती
हैं और तेजेंद्र शर्मा की अनुभूति स्वयंमेव ही काग़ज़ पर
बयाँ हो जाती है -
आँख के आँसू में शामिल है खुशी या फिर ग़म
फ़र्क क्या पड़ता है, हर आँसू का कारण आप हैं।
तेजेंद्र शर्मा दुखों से
नहीं घबराते। सच कहने से गुरेज़ नहीं करते। यह बात उनकी
ग़ज़लों में स्पष्ट दिखाई देती है। उन्हें चापलूसी और
खुशामदी लोगों से सख्त चिढ़ है और उनका यह आक्रोश इन
पंक्तियों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है -
चमचों की होती इक ऐसी नसल
सूखे कभी भी न जिनकी फसल।
कोई दीन इनका न ईमान है।
खुशामद सरीखी ही पहचान है।
इन चमचेनुमा लोगों की
उन्नति की दुआ करते हुए वे कहते हैं -
चमक चमचे यों ही दिखाते रहें
ज़माने को बुद्धू बनाते रहें।
तेजेंद्र शर्मा को
चापलूसी कतई पसंद नहीं है। वे खुद पर भरोसा करते हैं। ग़लत
बातों के आगे झुकना उन्हें गवारा नहीं। इसीलिए उनकी कलम से
ये शब्द सामने आते हैं-
खुशामद चापलूसी की नहीं आदत रही अपनी
ग़लत बातें किसी को भी मैं समझाया नहीं करता।
..
..
उठाकर सर को चलता हूँ, भरोसा है मुझे खुद पर
झुकाता सर नहीं अपना, मैं शरमाया नहीं करता।
लोगों की स्वार्थपरता,
खुदगर्ज़ी से व्यथित तेजेंद्र शर्मा का मन कह उठता है –
लल्लुओं और बबलुओं की राजनीति है गरम,
उनकी जेबें भर रहीं हैं कुछ बिछा है ऐसा जाल।
उनकी नज़र जब हिंदी की
उन्नति की गुहार लगाने वालों पर पड़ती है तो तेजेंद्र
शर्मा सकते में आ जाते हैं। लोगों की कथनी और करनी पर
हैरान, परेशान होकर वे कह उठते हैं -
खाली बातें करने से,
उनकी जेबें भरती हैं,
हिंदी सिकुड़ती है
उसकी हालत बिगड़ती है।
..
..
हिंदी की राजनीति चल रही भरपूर,
हिंदी की रोटियाँ सिक रहीं हुजूर।
हिंदी की दुकानों को यों ही चलाना है,
लेकिन हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना है।
तेजेंद्र शर्मा शब्दों के
बुने जाल मात्र को ही कविता नहीं मानते। उनके अनुसार कविता
रसपूर्ण, सहज भाव से ग्राह्य होनी चाहिए। जो कवि कठिन
शब्दों के जाल में अनुभूतियों को भी भ्रमित करते हैं, उन
पर व्यंग्य करते हुए लिखते हैं -
जब रचना हो रसहीन, तो फिर क्या कविता होगी!
हो शब्दों में संगीत तभी तो कविता होगी।
गत वर्ष लंदन में धमाके
हुए, लोगों में दहशत फैली, न जाने कितनी मौतें हुईं। इन
धमाकों ने तेजेंद्र शर्मा को हिलाकर रख दिया। वे हैरान,
परेशान और किंकर्तव्यविमूढ़ रह गए। उनके मन की व्यथा कुछ
इस तरह सामने आई -
मौत ने उसके कई
रिश्तों को सुला डाला
रिश्तों ने आसमाँ पर लिख डाला
क्रूरता वीरता नहीं होती।
कवि, ग़ज़लकार तेजेंद्र
शर्मा की नज़र समाज के हर तबके के व्यक्ति और परिस्थितियों
पर गई है और उन्होंने उनकी ग़ज़लों में अभिव्यक्ति भी पाई
है। इस कवि-हृदय में अतीत की कुछ स्मृतियाँ आज भी अपनी
पूरी शिद्दत से विराजमान हैं। एक बानगी देखिए -
पत्ते तब भी परेशान थे
पत्ते आज भी परेशान हैं
उनके कदमों से
लिपटकर, खड़कने को
बेचैन हैं।
..
..
रद्दी का ढेर आज भी है
बैठक का कोना आज भी है
मेरा भूलना आज भी है
मगर कहाँ गया
तुम्हारा उलाहना
तुम्हारा डाँटना
तुम्हारा प्यार,
तुम स्वयं।
तो इस प्रकार तेजेंद्र
शर्मा का यह कविता-संग्रह अपने आप में जीवन की विविधताओं
को समेटे हुए है। इन कविताओं को पढ़कर कहीं से भी नहीं
लगता कि ये ज़बरदस्ती लिखी गईं हैं। ये दिल से स्वतः
स्फूर्त निकली भावनाएँ हैं जो खुद को एक ही बार में पढ़वा
लेने में समर्थ हैं।
--मधुलता
अरोड़ा
9 अगस्त 2007 |