कवि
महेश मूलचंदानी
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प्रकाशक
पड़ाव प्रकाशन
एच-3, उद्भवदास मेहता परिसर
नेहरू नगर, भोपाल 462003
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पृष्ठ - 120
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मूल्य - 100 रुपए
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कुत्ते की
पूँछ (व्यंग्य कविताओं का संग्रह)
अवांछनीय नारेबाज़ियों से
हटकर, समकालीन व्यंग्य कविता के क्षेत्र में, अपनी आवाज़ को
बुलंदी के साथ उठाने वाले होशंगाबाद के युवा व्यंग्यकार महेश
मूलचंदानी का इसी वर्ष प्रकाशित काव्य संग्रह ''कुत्ते की
पूँछ'', आजकल के बाज़ारू व्यंग्य संकलनों जैसे थोथा नहीं है।
व्यंग्य की सार्थकता को
स्वयं में समेटे एक सौ बीस पृष्ठ की यह किताब अपने पैनेपन के
साथ प्रस्तुत हुई है। 'कमाल' जैसी क्षणिका में उन्होंने जहाँ
उपेक्षित गाँवों की पीड़ा को स्पर्श करने का कमाल किया है
वहीं ''उपाय, योजना, हल, दोस्ती, रुझान और निमंत्रण'' के
माध्यम से दिग्भ्रमित राजनीति पर करारा व्यंग्य किया है।
भारत की नष्ट-भ्रष्ट हो
चुकी व्यवस्था पर चोट करती उनकी कविताओं में- ''अवरोध,
रिश्वत, समझौता आयोजन, लाठी और शिनाख्त'' जहाँ मानवीय
मूल्यों के ह्रास को अनावृत करती हैं वहीं ''प्रायश्चित,
दृष्टि, कानून, व्यवहार कौशल, आडंबर, कभी, बेबस नियति उसूल''
शीर्षक की रचनाएँ सामाजिक विद्रूपताओं पर चुटीला प्रहार करती
हैं। रोचकता, वस्तुतः इन कविताओं का प्राणतत्व है। तिनकों
लेकर जितने भी मुहावरे हैं, उसका अक्स उनकी सहारा कविता में
चमत्कृत कर देता है।
दहेज प्रथा का मुखौटा
नोचती, उनकी पहल कविता 'दान' ही स्वयं में इतनी धाँसू है, कि
पुस्तक को आगे पढ़ने की रुचि जागृत कर देती है। 'उपस्वर्ग'
क्षणिका में स्वर्गीय शब्द की समीचीन व्याख्या, कवि की मौलिक
कल्पनाशीलता का प्रमाण है। व्यंग्य की धार के साथ मानवीय
करुणा का चरमोत्कर्ष उनकी 'ढोंग' कविता में उजागर होता है।
वे लिखते है कि ''हमारे ढोंग हमारी ही नज़रों में नहीं गड़ते
हैं। यह देखकर भी कि इंसान भूखा है, मोहन भोग, पत्थरों पर
चढ़ते हैं।'' इसी तरह ''पददलित'' शीर्षक कविता में उन्होंने
कहा है कि ''बापू के पदचिह्नों पर भला कैसे चलें वे तो दबे
पड़े हैं नेताओं के चरणों तले।'' इसी प्रकार मार्मिक
दृश्य रचती कविताएँ रिश्ता, पोषण, स्वप्न और विवशता में भी
कवि के वैचारिक काव्य-विन्यास का चमत्कार स्पष्ट झलकता है। |
अपने मार्गदर्शक श्री
बाबूलाल कदम को आदर देते हुए ''कथ्य-पथ्य'' में उनकी बेबाक
स्वीकारोक्ति ने स्वयं महेश को ही बड़ा बना दिया है। अपने
गुरु के अनुग्रह को हलफ़नामे के साथ सरेआम तस्लीम करना,
महेश की पारदर्शिता और ईमानदारी का ही प्रमाण है, वरना
आजकल शिष्य कहाँ होते हैं? अब तो सब पैदा ही गुरु के रूप
में हो रहे हैं।
आलपीनों की तरह चुभने वाली छोटी-छोटी क्षणिकाओं के साथ अंत
में ''जूते, सड़क से संसद तक'' तथा 'अस्पताल का हाल'
कविताओं में हास्य से करुणा तक की अनिवार्य यात्रा तय हुई
है। मेरे विचार से इस किताब की सर्वश्रेष्ठ रचना7 ''कुत्ता
और आदमी'' है। इन तमाम खूबियों के बावजूद इतने मंजे हुए
कवि को 'श्रद्धा केंद्र' कविता में सादे के साथ जाते है
लादे / मान गए के साथ गंगा स्नान गए (पृष्ठ 35) ऊँच नीच के
साथ पूँछ (पृष्ठ 54) गिरे के साथ निरे (पृ069) और बेचारा
में पाला के साथ डाला का प्रास (तुक) मिलाया जाना खटकता
है। घास स्त्रीलिंग है, अतः घास डाली होना चाहिए। किंतु ये
छोटी-छोटी बातें इसलिए नगण्य हैं क्यों कि तीव्रता के साथ
बहते हुए पानी में कुछ बुलबुलों का उभरना स्वाभाविक है।
पृष्ठ 4 पर तमाम आवश्यक तथ्यों के साथ चित्रकार का नाम न
देना चित्रकार के साथ अन्याय है।
पड़ाव प्रकाशन का यह
साफ़-शफ्फ़ाक और बेहतरीन प्रकाशन, जहाँ काव्य प्रेमियों को
व्यंग्य का नया आस्वाद प्रदान करेगी वहीं लेखक महेश
मूलचंदानी को नए शिखर।
- मुकुंद कौशल
16 जनवरी 2007 |