रचयिता
अभिनव शुक्ल
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प्रकाशक
पांडुलिपि प्रकाशन
७७/१ पूर्व आज़ाद नगर
दिल्ली ११९ ९५१
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पृष्ठ :१२९
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मूल्य
१५९ भारतीय रूपये
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प्राप्ति संपर्क
deep_aquarian @yahoo.com
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अभिनव
अनुभूतियां (कविता संग्रह)
'अभिनव
अनुभूतियां' मानव मन की वे गहन अनुभूतियां हैं, जिनकी
अभिव्यक्ति वक्त की मांग है, इंसानियत का तकाज़ा है। मन
करवटें बदलता है, कुछ पदचाप सुनाई देते हैं, आशा और निराशा
के बीच शांति युद्ध चलता रहता है, हमारा अंतःस्थल कराह
उठता है, विसंगतियां और विद्रुपताएं उसे झकझोरती हैं, फिर
भी वह थका हारा़ स्वयं से जूझता, मानव मन, आशा और विश्वास
की किरणें हाथों में थामे हुए जीवन पथ पर चलता रहता है,
अविराम, अक्लांत। इन्हीं सरस, कोमल, अनछुए भावों की सशक्त
अभिव्यक्ति है - 'अभिनव अनुभूतियां' सुकवि इंजीनियर देश के
लाडले फनकार श्री अभिनव शुक्ल की।
इस काव्य
ग्रंथ में जीवन के विविध, रंग–बिरंगे अनछुए पहलुओं को छूते
हुए, मानव मन की छटपटाहट को वाणी देने वाले ५५
गीत-नवगीत-नयी कविताएं संकलित हैं। इनमें राष्ट्रप्रेम की
धधकती ज्वाला है, भावों की विषद गहराई है तथा कोमल
अनुभूतियों की दयस्पर्शी अभिव्यंजना है।
'अभिनव
अनुभूतियां' जीवन के काल-कूट विष को पचाकर सत्यम, शिवम और
सुंदरम बनकर हमें जीवन की जटिल समस्याओं से जूझने की शक्ति
प्रदान करती है और मन में छिपी आग में स्वयं को कुंदन के
समान दहका कर कुछ 'अभिनव' करने की प्रेरणा प्रदान करती है।
अभिनव के गीतों में राष्ट्र भक्ति का संदेश है, देश का
स्वाभिमान जगाने वाला उदघोष है और त्याग-समर्पण-बलिदान की
सत्प्रेरणा है। उनके गीतों में देश-प्रेम की खौलती आग है,
वह आग जो जीवन की हर विषमता को लांघकर सुंदरतम भारत के
निर्माण के सपने संजोती है। कवि नींद में डूबे हुए भारत को
जगाना चाहता है, जंग लगी शमशीरों को शौर्य के निकष पर
घिसकर चमकाना चाहता है। 'भारत तेरे चरणों में' (मंगलाचरण)
कविता में उद्भोदन का भाव स्पृहणीय है -
आज जगाना है हमको, इस नींद में डूबी स्याही को
और देश के गांव-गांव में, सोए हुए सिपाही को,
चमकानी हैं आज हमें, पत्थर पर घिस कर शमशीरें,
राह दिखानी है हमको, हर भूले भटके राही को।
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कवि
उन्मुक्त हृदय से देश की लाचार राजनीति को संदेश देता है
कि हमें गुज़रे हुए कल को भूल कर भविष्य का निर्माण करना
है, समझौतों के दलदल से निकल कर देश के स्वाभिमान कि रक्षा
करनी है। नौजवानों की धमनियों में जो लावा पिघल रहा है, उस
लावे का अभिषेक करना है -
भारत क्यों तेरी सांसों के स्वर आहत से लगते हैं,
अभी जियाले परवानों में, आग बहुत सी बाकी है।
कैसी
विडंबना है? गद्दार देश का सौदा कर रहे हैं, व्यापारी
भुखमरी को अनदेखा कर अनाज के गोदाम भर रहे हैं और संसद के
रखवाले सता की मदिरा पीकर झूम रहे हैं। हमें यह सब अनदेखा
करके अपने राष्ट्र धर्म का निर्वाह करना है -
तुम अपना काम करो और हमको अपना धर्म निभाने दो,
होती नैया में उथल–पुथल अब बेड़ा पार लगाने दो,
है राष्ट्र बना गोदाम कि जिसका नहीं कोई है रखवाला,
संसद नें आंखें मूंदी हैं कानून के मुंह पर है ताला,
सब कोट वकीलों से काले न्यायालय भी है मतवाला,
शहरों के कोने–कोने में रिश्वत नें बुन डाला जाला।
कवि
निर्भीक स्वर में आह्वान करता है - ये राजनीति के पिट्ठू
इसी प्रकार निंदनीय समझौते करते रहेंगे। वे निजी स्वार्थों
के लिए देश के बलिदानी शोणित का अपमान करते रहेंगे। हमें
इन गद्दारों की चिंता न करके अंतिम युद्ध की तैयारी करनी
होगी। अनेक झंझावात भारत की शस्य श्यामला धरती पर मंडरा
रहे हैं। इन्हीं झंझावातों के मध्य हमें अपनी मंज़िल तलाश
करनी होगी। कवि निराशा के सघन अंधकार को चीर कर आशा के दीप
जलाता है और जन–जन को अनवरत संघर्ष करने की प्रेरणा देता
है -
नव अंकुर मृदा से फूटेंगे, बस वायु वेग संचार रहे,
सक्षम हम हैं यह ज्ञात रहे, बढ़ते कदमों की धार रहे,
'राष्ट्र
भाषा हिंदी' कविता हिंदी का मंगलार्चन है, हिंदी की
भावभीनी वंदना है। अभिनव मातृभाषा को प्रणाम करते हुए कहते
हैं -
रग–रग में जो है बसी हुई़ जो जीवन की अभिलाषा है,
वह स्वप्न सुंदरी नहीं कोई, मेरी मां सी हिंदी भाषा है।
हम जान
चुके हैं - 'मेरा भारत महान' या 'फील गुड' जैसे नारों के
उद्घोष से देश का उद्धार नहीं होगा। तमाम काम अधूरे पड़े
हैं। देश के नव निर्माण का बिगुल बज रहा है। हम पूर्ण
आस्था के साथ वे अधूरे पड़े कार्य पूरे करें - तभी नव
जागरण का स्वप्न साकार होगा।
उतर क्या दोगे तुम आखिर, पावन गंगा की घाटी को,
जो काम अधूरे हैं उनको, तुम अब तो पूरा कर डालो,
अब जागो हिंदोस्तां वालों, अब जागो हिंदोस्तां वालों।
'साहस'
कविता में अभिनव जी देश के सोए हुए साहस, शौर्य और पराक्रम
को जगाना चाहते हैं। 'तुम कहते हो' में देश के चप्पे–चप्पे
में पसर रहे आतंक, असुरक्षा और भय का सफल चित्रण है।
न्यूनतम शब्दों में गहनतम अनुभूतियों का चित्रण अभिनव के
कविता की पहचान है। एक हृदयस्पर्शी उद्धरण द्रष्टव्य है -
घर के बच्चे चढ़ी रात,
सोते से उठ कर,
अम्मा अम्मा चिल्लाते हैं,
बच्चों की आवाज़ें सुनकर,
घर के बू़ढे सहम रहे हैं,
सब कोनों में दुबक रहे हैं।
मनुष्य देवत्व का ढोंग रचाता है। कटु यथार्थ यह है कि पग–पग
पर शैतान उसके जेहन पर हावी है। वह चाह कर भी पाश्विकता की
उस दलदल से नहीं निकल पाता - ज़िंदगी के हर कदम पर, साथ
हैं, हाथ बांधे, पाश्विक, मजबूरियां। 'तरा़जू टूट जाता है'
नवगीत वातावरण में गूंज रहे हाहाकार और मानव की छटपटाहट का
सजीव चित्रण है। सन्नाटे का यथार्थ चित्र द्रष्टव्य है -
वक्त का हाहाकार चुप है, हर दर-औ'–दीवार चुप है,
चीख आती है कहीं पर, कहीं पर बाज़ार चुप है।
कवि खोखले
आदर्शों के लिहाफ़ में प्रसन्नचित होकर सोने का आदी नहीं
है। अभिनव की सोच अभिनव है, उनकी 'एप्रोच' अभिनव है तथा
अभिव्यंजना की कला भी अभिनव है। 'जागती आंखों का सपना'
रचना इसका ज्वलंत उदाहरण है - देश की गरीब जनता आज भी
एल्यूमीनियम की प्लेट पर आधी रोटी का इंतज़ार कर रही है।
कौन पढ़ेगा उन प्यासे नैंनों की भाषा को? देश के संभ्रांत
और कुलीन लोग तो उत्सव मनाने में व्यस्त हैं। उत्सव मनाते
हुए लोग तथा एल्यूमीनियम की प्लेट में आधी रोटी का एक
तिरस्कृत टुकड़ा। 'लड़कियों की ज़िंदगी' नवगीत नारी के
जीवन की वह सच्ची दास्तान सुनाता है जो ऊपर से हसीन लगती
है परंतु वक्त के थपेड़े जिस सुकोमल जीवन गान को चीथड़ों
में बांट देते हैं -
रात भी अजीब है, जुल्म की पनाह से, बेख़बर ही कट गई,
लड़कियों की ज़िंदगी, आज भी जहान में, चीथड़ों सी बंट गई।
कविता अपने कालखंड का यथार्थ प्रतिबिंब है।
वह कवि ही
नहीं जिसकी जुबान सत्य कहते हुए लड़खड़ाए। अभिनव ऊंचे
महलों में पनप रही पाश्विकता का ज़िक्र करते हुए कहते हैं
कि वहां कि चमक दमक में निःसंदेह वृद्धि हो रही है परंतु
कटु यथार्थ यह है कि आज इंसान इंसान की खाल नोंच रहा है,
उसका पूरा प्रयास है कि मैं अपनी ख्वाहिशात की पूर्ति के
लिए दूसरे के हंसते खेलते जहान में कैसे आग लगाऊं।
पढ़ के अब कानून हमदम आ गए हैं इस तरफ़
शौक से अब आदमी की खाल नोचे आदमी,
है बड़ी ऊंची इमारत और छोटे आदमी,
किस तरह अब रास्तों के पार सोचे आदमी।
'अभिनव
अनुभूतियां' ग्रंथ का काव्य शिल्प चुस्त और परिपक्व है।
कवि नें सहज मुहावरेदार लोक प्रचलित भाषा का प्रयोग किया
है, जो हृदय की सहज अभिव्यक्ति होने के कारण प्रभावोत्पादक
बन पड़ी है। भाषा में ग़ज़ब का प्रवाह है, शैली में नयापन
है और अभिव्यक्ति कोमल संवेदनाओं को उकेरने में पूर्णतया
सक्षम है। न अलंकारों का दुराग्रह, न कृत्रिमता का बोझ,
केवल मुक्त, स्वच्छंद निर्झरणी का नाद, जो अपने लिए स्वयं
मार्ग चुनती है, कल–कल स्वर से बहती हुई पयस्वनी जो हर
प्यासे मन की प्यास बुझाती है, ऐसी अभिनव कविता है - भाषा
की सजीवता, मौन संवेदनाओं का मधुर आलाप, उर्दू फारसी के
प्रचलित शब्दों का प्रयोग, एक उदाहरण देखिए -
खिली चांदनी बिखरी बिखरी, चहके चहके से हालात़
घुली हवा में मीठी खुशबू़ दिल की दिल से होती बात।
अभिनव
शब्दों के जादूगर हैं। उनके शब्द वातावरण में मीठी सुगंध
घोलते हैं, कभी मजदूर की बिवाइयों से बह रहे रक्त की भाषा
बोलते हैं तो कभी हिमाद्रि के बर्फ़ को पिघला देने वाला अनल
भी बरसाते हैं। 'शान-ए-अवध' कविता लखनऊ की शानो-शौकत का
आईना पेश करते हुए गुनगुनाती है -
वो नज़ाकत़ वो नफासत़ वो तकल्लुफ यारों
जो किताबों में कहीं तुमने भी प़ढा होगा़
वहाँ की गलियों में सब आज भी मुहाफिज़ है़
वक्त भी पहले आप कह के ही बढ़ा होगा।
'विडंबना'
रचना हिंदी से आजीविका कमाने वाले उन ब़डे साहित्यकारों
अधिकारियों नेताओं पर करारा व्यंग्य है़ जो आज भी पश्चिमी
सभ्यता के गुलाम हैं और अंग्रे़जी में संभाषण करना अपनी
शान समझते हैं -
शब्दों को भाषा की चाशनी में हम ठीक प्रकार से घोलते हैं
परंतु आजकल फैशन के मुताबिक़ पब्लिक में सिर्फ अंग्रे़जी
ही बोलते हैं। 'हमें तो बहुत पैसा कमाना है' रचना आधुनिक
युग की घु़ड़दौड़ आपाधापी, स्वार्थ-निष्ठा, अर्थ लोलुपता
तथा मानव की मर रही संवेदनाओं पर तीखा व्यंग्य है। 'रेल
यात्रा' रचना भारतीय रेलवे के जनरल कंपार्टमेंट की यात्रा
के कसैले अनुभवों की व्यथा कथा है। अंततः 'अभिनव
अनुभूतियां' आम आदमी के अंतस में छटपटा रहे संत्रास का
चित्रण हैं, सुरसा की तरह मुंह फैलाए खड़ी विसंगतियों एवं
विद्रूपताओं पर करारा व्यंग्य हैं और जंग खा रही
राष्ट्र-भक्ति की शमशीर को पैना बनाने वाली लुहार की भट्ठी
हैं - जिसकी धधकती आग में दहक कर यदि चंद शमशीरें भी चमक
उठीं तो अभिनव की यह अभिनव उड़ान सार्थक और कारगर सिद्ध
होगी। मैं मां सरस्वती के इस लाडले पुत्र को हृदय से
आशीर्वाद देता हूं - अभिनव काव्य-गगन में निरंतर ऊंची
उड़ान भरें और उनके अनमोल काव्य हीरकों से हिंदी जगत
निरंतर दीप्तिमान होता रहे।
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