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आज सिरहाने


लेखिका
कृष्णा सोबती
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प्रकाशक
राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
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पृष्ठ १५८
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मूल्य : १२५ रूपये

समय सरगम (उपन्यास)

कृष्णा सोबती के उपन्यास समय सरगम की केंद्रीय संवेदना में बूढ़े लोगों का संसार है। मृत्यु को लेकर कातर चिंताएं हैं। भय है। लेकिन आतंक नहीं है। अंतिम परिणति के रूप में उसका स्वीकार है। चिंतन की ये दोनों मुद्राएं रचनाकार के जीवन दर्शन को कमोबेश अभिव्यक्त करती हैं। लेखिका का विश्वास मानव की अमरता में है। अनंत में विलीन होने तक पल पल जीने की उत्कंठा और उत्साह का भाव ही समय सरगम की अंतर्वस्तु है।

उपन्यास के दो सयाने पात्र अरण्या और ईशान एक ही फ्लैट के दो ब्लॉकों में अकेलेपन की ज़िन्दग़ी जी रहे हैं। अरण्या का पारिवारिक तानपूरा ख़ामोश है। वे अविवाहित हैं। कभी कभी पिता की स्मृतियां उन्हें पारिवारिक बनाती हैं। ईशान विधुर हैं। काल कवलित बेटे की स्मृतियां और हॉस्टल में रहने वाली दो पुत्रियां हैं। वे रिटायर्ड अफसर हैं। इसलिए कोई आर्थिक संकट नहीं। जे कृष्णमूर्ति के अध्येता हैं। भारतीय दर्शन, आत्मा परमात्मा और जीव जगत के चिंतन में रूचि है।  परस्पर विरोधी विश्वास के होते हुए भी ईशान और अरण्या में मैत्री भाव है। 

अरण्या सतर के आसपास होती हुई भी स्वावलंबी, स्वाभिमानी, सक्रिय और चुस्त दुरूस्त हैं। टीवी देखना कैसेट सुनना उनकी दैनंदिनी के अनिवार्य अंग हैं। वे लेखिका हैं (हांलांकि, कथाविन्यास में लेखकीय संदर्भ नहीं हैं और न ही उनके आर्थिक स्रोत पर कोई प्रकाश) । अभी भी बारिश में छतरी लेकर घूमने की ललक और रेस्त्रां में डिनर लेने का उत्साह उनमें बना हुआ है। ऐसी जीवंत अरण्या के बलबूते पर ही उपन्यास की पठनीयता अंत तक बनी रहती है। कृष्णा सोबती का यह विचार गलत नहीं लगता कि व्यक्ति मन से जवान–बूढ़ा होता है। अगर मन जवान है तो शरीर भी साथ दे ही देता है। ईशान और अरण्या के बीच समान यही है कि वे आसन्न मृत्यु के प्रति भयभीत नहीं हैं। परस्पर की निजता में हस्तक्षेप न करते हुए साहचर्य सरगम गाते हैं, सुनते हैं। 

वस्तुतः ये सयाने परस्पर प्रेम करते हैं। जब आरण्या फ्लैट बेच कर अपनी किसी परिचित के यहां रहने की बात ईशान से करती है तो वे तुरंत अपने फ्लैट में रहने का प्रस्ताव रखते हैं। यह मैत्री का तक़ाज़ा था और भीतर पक रहे प्रेम का भी। आरण्या प्रस्ताव को स्वीकृति देती है। सौभाग्य से उनका जन्मदिन मिलता है। फिर साहचर्य होता है। सर पर रखे ईशान के हाथ से अमूर्त अबूझ सी झनझनाहट महसूसती है आरण्या (पृष्ठ १३८)। प्रेम संदर्भ की कुछ अल्पअर्थ छवियां दृष्टव्य हैं— 'कैसेट बजता रहा ... मर्म के रहस्यों को ध्वनित करती। सयानी आत्माओं को अपनी मार्मिक गूंज से दुलराती ... समय के इस अंतराल को एक दूजे को स्पंदित करते इस लय और ताल को पकड़ लेना कितना दूभर कितना मुश्किल। असमय ही अनबूझी सरगम ... खूब है क्यों कि हवा है, धूप है, जल है।' (पृष्ठ १३८) अपनी अपनी आदतों,रूचियों की गरिमा बनाए रखते हुए भी वे सुखी हैं। उनके प्रेम में उतेजना, आवेग नहीं, गंभीरता है। कहना न होगा कि यह प्रेम हिंदी पाठकों के लिए नया है। कथा साहित्य में प्रेम का यह अपूर्व रूप इस तथ्य का साक्ष्य है कि प्रेम करने की कोई उम्र नहीं होती। निश्चित रूप से यह प्रेम समाजशास्त्रीय विवेचन का एक नया अध्याय है। विडंबना यह है कि अधिसंख्य भारतीय परिवारों में यह अधिकार स्वतंत्रता सयानों को नहीं प्राप्त है। संतान साथ हो तो वे एकदम आक्रामक हो जाते हैं। समीक्षय उपन्यास में प्रभुदयाल की हत्या हो जाती है। दमयंती अपने अधिकारों के प्रति सहज होती है तो मरती नहीं मार दी जाती है। मानवीय सवाल यह कि दो सयाने अपने समय के एकाकीपन में सरगम क्यों न छेड़ें? जीवन की संध्या को रोते कलपते ही क्यों बिताएं, सुखी हो कर क्यों नहीं?

उतर आधुनिक समाज में संयुक्त परिवार की गुणिता को पुनः खोजा जा रहा है यह सच है। पर यह भी सच है कि संयुक्त परिवार में वरिष्ठ नागरिक सुरक्षित नहीं हैं। अब वे अनुभव और ज्ञान के प्रतीक नहीं और न सम्मान के पात्र हैं। बढ़ती उम्र के साथ ही उनके अधिकार छीन लिए जाते हैं। नज़दीकी रिश्ते तो आतंक के पर्याय हो जाते हैं। अतः सयानों को अलग रहाना श्रेयस्कर है। बाहर की प्रयोगशाला में ही वे पनप सकते हैं। आत्मनिष्ठ आरण्या के यह विचार हैं। मान्यता है। आरण्या (लेखिका) के ये तर्क गलत तो नहीं हैं। 

दरअसल आरण्या व्यक्ति स्वातंत्र्य की पक्षधर है। यह व्यक्ति का मूल अधिकार है। विश्व स्तर पर व्यक्ति –स्वातंत्र्य का यह मुद्दा इसीलिए उठाया जाता रहा है। अरण्या खुद की स्वाधीनता या स्वनिर्णय में किसी का दख़ल बर्दाश्त नहीं करती और न ही दूसरे की निजता में सेंध लगाती हैं। ऐसी जाग्रूक महिला का स्त्री अधिकारों के प्रति सचेत होना स्वाभाविक ही है। ईशान से वे कहती हैं, "आपके पास शास्त्र है हमारे पास शस्त्र।" (पृष्ठ १३)
यह वाक्य पितृसतात्मक समाज पर कटाक्ष है। जहां शास्त्रों का सहारा ले कर स्त्री को परतंत्र बनाया जाता रहा है। निस्संदेह स्त्री विमर्श की चेतना में स्त्रियों को समझ व तर्क के शस्त्र प्रदान किए हैं। प्रेम में भी औरत अपने अस्तित्व को बनाए रखने के पक्ष में है। आरण्या का यह विचार औरत मर्द की बराबरी की वकालत करता है।

उपन्यास में सयानों की कुछ सामाजिक चिंताएं भी हैं। अट्टालिकाओं और झुग्गियों की असमानता पर दुःख है। समानता और बराबरी के सपने हैं। प्रदूषण, लूट खसोट और मारकाट पर बौद्धिक बहसें हैं, निष्कर्ष यही कि इस धरती के मनुष्यों को मनुष्य ही बचा सकते हैं, परमाणु हथियार नहीं। नियतिवादी या भाग्यवादी होना किसी समस्या का समाधान नहीं। कुछ सयानों में सामाजिक चैतन्य ही नहीं समाज के प्रति दायित्व बोध भी है। 

कुछ बातें कलात्मक अनुशासन पर। 'समय सरगम' भाषिक सामर्थ्य की एक दृष्टांत है। संतुलित वाक्य विन्यास, शब्दों के सटीक प्रयोग, गद्य और पद्य के बंधन को तोड़ती भाषा– जैसे गद्य में पद्य की कसीदाकारी की गयी हो।बावजूद इन सब विशिष्टताओं के उपन्यास में कुछ उजड़ापन सा है। शायद सयानों की एकाकी दुनिया के कारण।

—डा शशिकला त्रिपाठी

१६ जुलाई २९९५

 
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