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आज सिरहाने


गीतकार
नईम


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प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ
१६, इन्सटीट्यूशनल एरिया
लोधी रोड,
दिल्ली - ११० ००३


°

पृष्ठ - १२५

°

मूल्य : ५.९५ $

लिख सकूँ तो (नवगीत संग्रह)

"लिख सकूँ तो-
प्यार लिखना चाहता हूँ
ठीक आदम जात सा
बेख़ौफ़ दिखना चाहता हूँ

थे कभी जो सत्य, अब केवल कहानी
नर्मदा की धार सी निर्मल रवानी
पारदर्शी नेह की क्या बात करिये
किस कदर बेलौस ये दादा भवानी

प्यार के हाथों
घटी दर पर बाज़ारों,
आज बिकना चाहता हूँ।"

वरिष्ठ कवि नईम की ये पंक्तियाँ मेरे सामने हैं। कवि का काव्य संसार वही संसार होता है, जहाँ जीवन का यथार्थ संवर्धित होता है। कवि जिसे परिवर्तित करता है वह समाज का नियामक औजार होता है। अत: कवि का सृजन मूलत: सृष्टि का सृजन है। इस सूत्र वाक्य का बीज कवि नईम को पढ़ते हुए अंकुरित होता है-

"किस कदर होकर निहत्थे
आ गये हम इस सदी में
फर्क ही जाता रहा है
आज तो नेकी-बदी में।"

आज कविता में इतने सारे विभाजन उपस्थित हैं कि अगर सबको ठीक से समझने की कोशिश की जाए तो कविता के नैसर्गिक रूप तक पहुँचते-पहुँचते हमारी ऊर्जा चुक जाएगी। दूसरी तरफ विघटन और वर्गीकरण का सामन्तवादी खेल भी समाज में पूरे चरम पर है। ऐसे समय में हमेशा ही मनुष्यता के महल में पूंजी ने सेंध मारी है। सेंध हमारे साहित्य में भी लग चुकी है और खोखलापन एक झीनी चादर के पीछे खड़ा अट्ठाहास कर रहा है।
मंच से उसी कविता को आना चाहिए जो पत्रिकाओं और पुस्तकों से भी आ रही हो। गीत, नवगीत, कविता तथा अकविता के बन्ध को तोड़कर सिर्फ कविता ही पाठकों के सामने आए और वह छंद में या गैऱ छंद में, सामने आने के लिये पूरी तरह से स्वतन्त्र हो। जिसमें पाठक बजाए विधाओं की भूल-भुलैया में फँसने के सिऱ्फ कविता का आस्वाद ही ग्रहण करे। अन्यथा नईम की ये पंक्तियाँ बेकार जाएंगी-

"हो न सके हम पूत ठीक से
पिता न हो पाए करीब से
रिश्ते भी क्या रिश्ते होते
महँगाई में इस गरीब के
मोल नहीं जाने वचनों के
अपने बोझ न हम ढो पाये ।"

मैं सीधे-सीधे कहूँ तो ऊपर की बातों के पीछे सिर्फ एक सवाल है। आज कविता के आकाश में गीत के बादलों की उपेक्षा क्यों है? अगर अपने समय का एक बड़ा आलोचक किसी विधा की उपेक्षा कर दे तो क्या सारे लोगों को भी मिलजुल कर उस विधा को धकिया कर हाशिये पर रख देना चाहिये? हिन्दी काव्य में आज गीत के साथ ऐसा ही हुआ है। अन्यथा आज केदारनाथ सिंह, त्रिलोचन, चन्द्रकान्त देवताले, मंगलेश डबराल, अरूण कमल तथा राजेश जोशी कविता की ज़मीन पर जिस महत्व के साथ खड़े हैं, उसी महत्व के साथ नईम, कुंअर बेचैन, कैलाश गौतम, माहेश्वर तिवारी, नचिकेता तथा यश मालवीय भी खड़े होते। अगर यह सब साथ-साथ होते तो पूँजी की क्या मज़ाल थी, कि वह कविता पाठ के मंच को खरीद लेती या फिर साहित्य के लिखे को अपने पक्ष में कर पाती। मैं उदाहरणों के साथ बात करना चाहता हूँ। पिछले दिनों साम्प्रदायिकता हिन्दी कविता के केन्द्र में रही। लेकिन गीत का एक भी उदाहरण किसी भी साम्प्रदायिकता विरोधी संग्रह, संकलन और आयोजन में उतनी महत्ता के साथ नहीं रखा गया। जबकि उन दिनों में नईम लिख रहे थे-

यज्ञों से बेहतर, युद्धों के द्वार सजे हैं
इनके छोटे राजन हैं तो उनके भी छोटे शकील हैं
भले राम का एक न हो पर रावण के सौ-सौ वकील हैं।"

यही नहीं नईम की लोकप्रिय पंक्तियाँ भी याद आ रही हैं-
"चिठ्ठी-पत्री, ख़तो किताबत के मौसम फिर कब आयेंगे
रब्बा जाने सही इबादत के मौसम फिर कब आयेंगे?"

या नईम की ही ये पंक्तियाँ-
"सिर पर ग्रन्थ जेब में गीता
हाथों में कुरआन
लिये हो सके न अब तक
हम बेहतर इन्सान
अब भी पशुओं सा आदम को
हम तुम नाथ रहे।"

फिर नईम की पंक्तियों को देखें-
"प्यार से मिलते हुऐ दिल ईद के उत्सव कभी
आज बल्लम बर्छियों से भेंटते मुझको सभी।"

"बातों ही बातों में" १९९५ में छपी थी और "लिख सकूँ तो" जो २००३ में ही छपकर आई है। नईम अपनी भाषा के प्रति उतने ही सचेत होते जा रहे हैं, जितने कि कविता के दूसरे प्रतिनिधि कर्मी। विज्ञापन के इस युग में कविता की भाषा को सुरक्षित बचा ले जाना आज के कवियों के लिये सबसे बड़ी चुनौती है।
इन दिनों विष्णु खरे, चन्द्रकान्त देवताले, हेमन्त कुकरेती एवं मोहन डहेरिया आदि की कविताओं के ताजे संकलनों को पढ़ा और इसके ठीक बाद नईम के गीतों का ताजा संकलन "लिख सकूं तो" हाथ लग गया। अत: कविता के समुद्र में इस नदी के मिलन को, दूसरी नदियों के मिलन से अलग करके देखने का प्रयास किया जैसा कि आज की आलोचना का संस्कार है। मुझे ऐसा कोई तर्क नहीं मिला जो समग्रता में गीत को कविता से अलग कर रहा हो। अलग थी तो सिर्फ पोषाक जो मिलन के समय उतर जाती है। मेरी बात के पक्ष में मैं पुन: नईम की पंक्तियाँ रख रहा हूँ-

"दिल्ली की क्या बात करें
देवास दूर है
दिल दिमाग की खुराफ़ात कोरा फितूर है।"

निष्कर्षत: मै हिन्दी आलोचना को आगाह करना चाहता हूँ कि कविता के समानान्तर गीत के मूल्याँकन का काम जो छठे-सातवें दशक से छूटा हुआ है, उसे पूरी गम्भीरता के साथ यथाशीघ्र पूरा किया जाना चाहिए।

अपने मिज़ाज़, कहन और भावों के स्थायी प्रभाव के स्तर पर नईम एक मात्र ऐसे कवि हैं जो अपनी अलग पहचान अर्जित करते हैं। इनके काव्य संसार में काव्य की संवेदना अत्यन्त सुरक्षित, नाजुक या भावातिरेक में डुबो कर नहीं रखी हुई है। वह समय के यथार्थ की तरह खुरदरी, ठोस, कर्मठ और नैसर्गिक है। छन्द की परम्परा में रहते हुए यह काम अत्यन्त कठिन हो जाता है। नईम के यहाँ कई बार इन ज़रूरी प्रवृत्तियों को संरक्षित करने में छन्दों का अतिक्रमण एवं व्याकरणगत समस्याएं दिखाई देतीं हंै। यहाँ पर वे हिन्दी ग़़जल के दुष्यन्त कुमार की परम्परा में मील के अगले पत्थर की तरह दिखाई देते हैं।

नईम उन कवियों में से हैं जो लिखते हैं तो इतना ठोक बजा कर कि उनके काव्यगत नैतिक अनुशासन में किसी भी गैर मानवीय तत्व को सेंध लगाने का मौका ही न मिले। इसलिये उनके पास में एक दो दर्जन किताबों की सूची नहीं है। कुल जमा तीन प्रकाशित किताबें और चौथी किताब प्रकाशन की प्रक्रिया में है। सिर्फ चार किताबों की पूंजी पर वे एक-एक दर्जन किताबों वाले रचनाकारों पर भारी पड़ते हुऐ दिखाई देते हैं तो सिऱ्फ इसलिये कि उनकी दृष्टि सम्पन्नता, राजनीतिक समझ और समाज की नब्ज़ का आकलन अपने समकालीन गीतकारों में अत्यन्त श्रेष्ठ है। यही कारण है कि उनके गीतों का श्रवण एवं पाठन, दोनो ही समान रूप से सम्प्रेषणीय है। यहाँ पर बादल जैसे प्राकृतिक प्रतीक को लेकर उनकी पंक्तियाँ रखी जा सकती हैं-

"नदी तलैया ताल के
ये बदरा बंगाल के
योद्धा सन्यासी से निर्मल
बिना खड्ग औ ढाल के
कद काठी से यूँ तो भारी भरकम हैं
धरती की दुखती छाती के मरहम हैं
गर्जन तर्जन में ये छैला अलबेले
रखने की मंशा हो तो फिर
रखना इन्हें सम्भाल के।"

इस संग्रह में नईम के कुल ८५ गीत संग्रहीत हैं जिनमें से लगभग सत्तर गीत पढ़कर आप गीत के साथ निकल पड़ते हैं। यह रचनाकार का सामर्थ्य है। इस संग्रह की ख़ासियत यह है कि बीच में नईम ने काष्ठ शिल्प पर भी अच्छा काम किया था। उनके द्वारा निर्मित काष्ठ शिल्प की प्रदर्शनी भी दिल्ली में आयोजित हुई थी। चर्चित काष्ठ कृतियों का छायाँकन इस संग्रह में कविताओं के साथ छपा है जो कविताओं के कैनवास को और विस्तृत करता है। कुल मिला कर एक संग्रहणीय पुस्तक के लिये नईम को अभिनन्दन।

-प्रदीप मिश्र

 
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