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आज सिरहाने


शायर
संजय ग्रोवर
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प्रकाशक
संजय ग्रोवर
एल ७६ ए, दिलशाद गार्डेन
दिल्ली ९५


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पृष्ठ ८४
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मूल्य ८० रूपये

 

खुदाओं के शहर में आदमी (ग़ज़ल संग्रह)

गज़ल हमेशा से ही लोकप्रिय काव्यरूप रहा है। फारसी, अरबी, उर्दू ही नहीं स्पेनिश समेत अनेक एशियाई भाषाओं में लम्बे समय से गज़ल लिखी जा रही है। हिन्दी गज़ल अभी विकासशील अवस्था में ही है। हालांकि तकनीकी तौर पर कबीर की 'हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या' – जैसी अच्छी गज़ल के कारण ऐतिहासिक दृष्टि से हिन्दी में प्रचलित प्राचीन काव्यरूप माना जा सकता है लेकिन आज की हिन्दी गज़ल की असली पहचान दुश्यंत कुमार सरीखे शायर की शायरी ने बनाई हैं। गीत–नवगीत जैसे सशक्त माध्यम प्रतिभाहीन गलेबाज़ तुक्कड़ों के कारण पत्र–पत्रिकाओं ही नहीं, मंच से भी अपदस्थ हो गए, वहीं हिन्दी गज़ल को कई प्रतिभाशाली शायर मिलने के कारण मुक्तछंद की कविता के साथ ही हिन्दी कविता की मुख्यधारा में गज़ल अपना स्थान बनाती जा रही है।

वस्तु में ताज़गी ढूंढ़नी हो और अलग किस्म के अंदाज़े –बयां की चाहत हो तो समकालीन हिन्दी शायरों में संजय ग्रोवर का नाम आसानी से याद रह जाता है। शोरगुल से दूर चुपचाप महत्वपूर्ण पत्र–पत्रिकाओं में छपी उनकी गज़लों ने खासा ध्यान आकर्षित किया है। संभावनाशील शायरों की कतार में उनके साथ सुलतान अहमद, राजेश रेड्डी, प्रदीप साहिल, संजय मासूम, महेश अश्क, बिल्ली सिंह चीमा जैसे कई शायर हैं। इन शायरों की विशेषता यह है कि इनका ज़्यादा ध्यान काव्यतत्व पर रहता है इसीलिए यह लोग गज़ल के फॉर्म में भी उन्हीं आशयों को व्यक्त कर लेते हैं जिसे मुक्तछंद की कविता कर रही है। यही युवा हिन्दी गज़ल के चरित्र की पहचान भी है।

संजय की कोशिश इंसानी तजुर्बात को शब्दबद्ध करने भर की नहीं बल्कि उसमें अर्थ की खूबसूरती को उजागर करने की अधिक रही है –
आज दिनभर आप गर रोए नहीं
यूं समझिए मुस्कुराना हो गया।

और इस काम को वे आम–जन की समझ में आ सकने वाली आसान जुबान में करते हैं –
वो महज़ इक आदमी है बस
और उसमें क्या कमी हैं बस।

न भारी–भरकम उर्दू न संस्कृतनुमां हिन्दी –
ज़िन्दगी की जुस्तजू में जिन्दगी बन जा
ढूंढ़ मत अब रोशनी खुद रोशनी बन जा।

गत्यात्मक शब्दों में व्यक्त सादाकथन सहज लयविधान में कवि–अभिप्राय को संप्रेषित कर देते हैं। ज़िन्दगी के असली खुरदुरेपन की परछाई भी उनके अल्फाज़ में कई जगह दिख जाती है। हर शब्द को सार्थक बनाने की ये जद्दो–ज़हद संजय ने संभवतः शहरयार, निदा फाज़ली, अहमद फराज़, बशीर बद्र, दुश्यंत कुमार, अदम गोंडवी, विज्ञानव्रत, ज्ञानप्रकाश विवेक, हरजीत सिंह, रामकुमार कृषक जैसे उर्दू–हिन्दी के वरिष्ठ और समकालीन शायरों से सीखी है। कह सकते हैं कि उन्होंने अपना मुहावरा हिन्दी–उर्दू की सांझी विरासत से ही ग्रहण और निर्मित किया है।

खामख्वाह की शिल्पबाज़ी उनके यहां नहीं है। उनके यहां मध्यमवर्गीय जीवन के पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक रूपक–बिम्ब–प्रतीक कई जगह मिलते हैं। पुराने औज़ारों का नया इस्तेमाल करने के अलावा उन्होंने नया लयविधान रचने की भी कोशिश की है –
ताज़ा कौन किताबें निकलीं
उतरी हुई जुराबें निकलीं।

मज़हबी कठमुल्लेपन और वैचारिक जकड़बन्दी का विरोध करने वाले ग्रोवर गज़ल की शिल्पगत विशेषताओं त्वरित–संवेग और अप्रत्याशित कथन–भंगिमा की ताकत को पहचानते हैं तथा आत्मीयता और हार्दिकता के साथ ख्याल को अफसाने में ढ़ालने का कौशल उन्हें आता है –
आग पानी को फिर डराती है
घर से जब दुलहिनें निकलती हैं

यहां शायर वातावरण को साक्षात उपस्थित करने के साथ ही अप्रस्तुत को व्यक्त कर देता है।
दौर कुछ एसा चला है धर्म की अभिव्यक्ति का
एकता ने खून पी डाला अकेले व्यक्ति का
जैसे शेर शायर के आधुनिक विवेक का सशक्त परिचय देते हैं। साथ ही यह भी बताते हैं कि कैसे धर्म आंतरिक भक्ति न रह कर अंधे उन्माद की शक्ल अख्तियार कर लेता है कि भक्ति के आशय भी बदल जाते हैं –
लूट, दंगे, अंधश्रद्धा, आपसी रिश्तों में फूट
कौन सा चेहरा है बाकी अब तुम्हारी भक्ति का।

भक्ति के वास्तविक स्रोत अल्लाह या ईश्वर में नहीं, व्यक्ति में मौजूद हैं –
आदमीयत, आस्था, संघर्ष, जीवट, उर्जा
इनसे बेहतर और क्या परिचय मिलेगा शक्ति का।

आस्थावादी शायर संजय ग्र्रोवर देश के इस भयावह दौर में भी मनुष्य की बेहतरी के सपने देखते हैं –
उन्हीं ख्वाबों में ही तो ज़िन्दा हूं
मेरी आंखों में जो भी पलते हैं।

संवेदनशील व्यक्ति की तरह उनका भी अंतिम शरणस्थल शायरी ही है –
जब भी लगती है ज़िन्दगी बेरंग
यूंही गज़लों में रंग भरता हूं।

वह भावुकता का शिकार नहीं होते और मनुष्य के साथ पशुवत् आचरण करनेवाली भ्रष्ट व्यवस्था के सच को ज़ाहिर कर देते हैं –
हाकिम हंस कर बोला तो
कितना बड़ा गज़ब होगा
बेमतलब वो आया है
कुछ–न–कुछ मतलब होगा।

विद्रूपित राजनीतिक परिदृश्य भी उनकी नज़रों से ओझल नहीं है –
भूखे बच्चे खुश्क जमीं पर बिलख रहे हैं
आसमान में बूढ़े ताकत परख रहे हैं।

पॉवर–स्ट्रक्चर पर उनकी यह टिप्पणी बहुत कुछ बताती है।

किताबी और उपदेशात्मक कथित प्रगतिशीलता पर व्यंग्य करते हुए संजय जहां यह कहते हैं कि –
छींक और बिल्ली से तो घबरा गए
आगे बढ़ने का सिखाते कायदा।

वहीं उनके यहां सच्ची आत्मालोचना भी मिलती है –
असलियत के साथ ज्यादा देर रह पाया नहीं
मैं कभी भी कोई अच्छी बात कह पाया नहीं।

मानवीय संबंधों के बदलते समीकरण संजय को पीड़ित करते हैं –
आदमी आंकड़ा हो गया
प्यार बिलकुल सिफर हो गया।

रिश्तों की गर्माहट का ठंड़ा पड़ जाना एक दुर्घटना है –
हो गए हम अनमने से कौन से पिंजरों में कैद
रिश्ते–नाते तो बहुत पर कोई अपनापन नहीं।

ऐसे संबंध टीस बन कर रह जाते हैं –
दूरियों के बीच भी संबंध इक पलता रहा
तुम उधर जलते रहे और मैं इधर जलता रहा।

अपनी गज़ल को 'हर किसी का बयान'
तुमको लगता है ये है मेरी गज़ल
हर किसी का बयान है यारो
बनाने की मंशा रखने वाले संजय ग्रोवर के यहां कुछ शिल्पगत कमियां हैं तो अपनी बात अपने अंदाज में कहने की बेजोड़ चाहत भी है जो उनकी शायरी को भीड़ से अलग करने वाला तथ्य है। उनकी पहली किताब उनके भविष्य के प्रति उम्मीदें जगाने के साथ–साथ यह भरोसा भी दिलाती है कि यह युवा शायर अभ्यास के द्वारा बेहतर मुकम्मल शिल्प भी अर्जित कर लेगा।

—हेमंत कुकरेती

 
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