कितने
पाकिस्तान (उपन्यास)
कमलेश्वर का महत्वपूर्ण
उपन्यास कितने पाकिस्तान हमारे समय पर इतिहास और संस्कृति
के माध्यम से अनेक जटिल सवालों से हमारा साक्षात्कार कराता
है। क्या इतिहास पुराण है? क्या भारतीय संस्कृति इकहरी ओर
धर्मविशेष से सम्बन्ध रखती है? इससे जुड़े हुए अन्य
महत्वपूर्ण सवाल हैं। यह उपन्यास इन प्रश्नों को हमारे
सम्मुख उठाता है। एक महत्वपूर्ण सवाल और है— धर्म का
इतिहास में सत्ता और अपने वर्चस्व के लिए इस्तेमाल।
कमलेश्वर इन सवालों की तह में जाने का प्रयास करते हैं।
"यह देवता लोग आलसी और अकर्मण्य हैं। ये उपजीवी हैं, ये
मनुष्य और परम सता के बीच स्थापित हो गए हैं ...तुम्हारे
सारे आचरण अवैथ हैं इसलिए तुम किसी वैध सभ्यता या संस्कृति
का निर्माण नहीं कर सकते हो ... तुम्हारे पास केवल
वासना है, प्रेम नहीं है। केवल वैयक्तिक श्रेष्ठता का
द्वेष है इसलिए मित्रता नहीं।" (पृष्ठ २७–२९)
संस्कृति के निर्माण में
सबसे महत्वपूर्ण तत्व श्रम है, श्रम के बिना किसी संस्कृति
और सभ्यता की कल्पना नहीं की जा सकती । देवता श्रम नहीं
करते इसलिए वे किसी संस्कृति का निर्माण भी नहीं कर सकते।
देवताओं(शासकों) ने अपने अस्तित्व और वर्चस्व के लिए युद्ध
का अविष्कार किया लेकिन मनुष्य ने श्रम के साथ कर्म और
शांति जैसे महत्वपूर्ण जीवन मूल्यों को खोज कर उन्हें
विकसित किया।
"मनुष्य ने जिन महाशक्तियों का अन्वेषण किया है, वे आपके
पास नहीं हैं। उसने अविष्कृत कर लिया है— जीवन, कर्म,
श्रम, प्रेम, मित्रता, और शांति जैसे जीवन मे महातत्वों को
...इसलिए अब उसकी अमरत्व की कामना अनुचित नहीं है।" (पृष्ठ
३१)
कमलेश्वर इस उपन्यास में बार–बार यह उद्घोषणा करते हैं कि
समाज में जब–जब अत्याचार होते हैं तब तब मनुष्य की चेतना
जाग्रत होती है। जो एक आक्रोश को जन्म देती है—
"जब जब अन्याय, अत्याचार और अनाचार होता है, तब तब मनुष्य
की चेतना और आत्मा को यह प्रलयंकारी झंझावात झकझोरते हैं।
और काली आंधियां चलती हैं ..." (पृष्ठ २१)
जिन्ना इतिहास में एक खलनायक की तरह दर्ज हैं। यह सही है
कि भारत–पाकिस्तान के विभाजन में उनकी जाने–अनजाने
में महत्वपूर्ण भूमिका थी लेकिन उपन्यास में इस तथ्य को
मजबूती से उभारा गया है कि ब्रिटिश साम्राज्य इस कुकृत्य
के लिए वास्तव में जिम्मेदार हैं, जिन्ना तो उसके शतरंज की
चाल के मोहरे बन गए।
"यही मोहम्मद अली जिन्ना की
विडम्बना और त्रासदी है! उन्होंने एक बार सार्वजनिक
तौर पर इंडिया का विभाजन मांग लिया तो फिर उनका मन चाहे
जितना पछताता रहे, पर वे उस मांग से पीछे नहीं हट सकते
...हटेंगे तो वे अपना नेतृत्व खो देंगे। ...एडविना! मैं
गवाह हूं ...यही जिन्ना के साथ हुआ है! उन्होंने बड़ी
शिद्दत से पाकिस्तान मांगा और जब तमाम विकल्पों को तलाशने
और खारिज करने की मुश्किल प्रक्रिया से गुजरने के बाद
मैंने उनके सामने पाकिस्तान और विभाजन का प्रस्ताव रखा तो
वे खामोश और उदास थे ...उन्होंने न हां किया, न ना किया।"
(पृष्ठ ५३–५४)
पाकिस्तान का निर्माण
सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सभी दृष्टिकोणों से एक
गलत फैसला था। इतिहास इस बात का साक्षी है कि गलत निर्णय
अनेक विद्रुपताओं को जन्म देता है –
"गलत फैसलों से हिंसा उपजती है और हिंसा से अपसंस्कृतियां
और रक्तपात ..."
(पृष्ठ ६१)
इस उपन्यास में इतिहास और
संस्कृति का गहन परीक्षण किया गया है। भारतीय इतिहास के
महत्वपूर्ण पक्ष शाहजहां का समय और उसके पश्चात् सत्ता के
लिए उत्पन्न होने वाले संघर्ष का जीवन्त एवं कलात्मक
चित्रण है। यह वही कालखण्ड है जिसके परिणामस्वरूप भारत को
बहुत दुःखद परिणाम झेलने पड़े।
"शाहजहां का शासनकाल
अन्तर्विरोधी खिंचावों का दौर है जहां कट्टर धर्मान्ध भी
हैं और उदार तथा न्यायवादी–जनवादी भी।"
(पृष्ठ १९४)
कुछ ऐतिहासिक घटनाओं की ओर
उपन्यासकार ने संकेत किया है । एक स्थान पर वह कहते हैं कि
दाराशिकोह को शाहजहां क्यों उत्तराधिकार सौंपना चाहता है?
तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उसके दिमाग में सत्ता
हस्तान्तरण की भारतीय परम्परा रही होगी जिसमें ज्येष्ठ
पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित किया जाता है, और यह
स्वाभाविक भी है क्योंकि उस समय तक मुगलसत्ता को भारत में
स्थापित हुए सौ साल से अधिक हो गए थे, वे भारतीय संस्कृति,
समाज, रीति–रिवाजों से परिचित एवं उसमें रच–बस गए थे।
हिन्दू–मुसलमान एक–दूसरे से सामाजिक–सांस्कृतिक मूल्यों का
आदान–प्रदान कर रहे थे।
औरंगजेब और दाराशिकोह के
मध्य सत्ता संघर्ष के लिए काफी सीमा तक शाहजहां भी
जिम्मेदार हैं कि वह अपने पुत्रों को सही मार्गदर्शन नहीं
उपलब्ध करा पाया। सही दिशा के अभाव में अनेक भटकाव आते हैं
जो अनेकों त्रासदियों को जन्म देते हैं –
"समझ में नहीं आता। इस सल्तनत की किस्मत में क्या लिखा हुआ
है ...गलती मेरी है बादशाह बेगम ... मैने अपने बेटों
को अच्छी और इल्मी तालीम नहीं दी।"
(पृष्ठ १९०)
अलगाव, विद्वेष और घृणा के
माध्यम से कोई समाज, मुल्क और संस्कृति तरक्की नहीं कर
सकते। एक–दूसरे के लिए कुछ त्याग और बलिदान करके ही साझी
संस्कृति विकसित की जा सकती है। दाराशिकोह के विचार इसी
साझी संस्कृति के द्योतक हैं।
"मोअज्ज़ज वज़ीरे आला वह
दौर और था ...अब हिन्दुस्तान की यह सरजमीं हमारा मुल्क भी
है और मादरे वतन भी! हम यहीं पैदा हुए हैं और यहीं दफन
होंगे।"
(पृष्ठ १९३)
दाराशिकोह और औरंगजेब के
बीच हुए उत्तराधिकार युद्ध में दाराशिकोह की पराजय वास्तव
में उदारवादी, साझी संस्कृति में विश्वास रखने वाले लोगों
की पराजय है, हिन्दुस्तान की आम जनता की हार है लेकिन
इतिहास इस बात का गवाह है कि धार्मिक एवं सामाजिक वैमनस्य
की नीव पर रखी गई सत्ता कभी फलदायक नहीं होती। वह लोगों की
पीड़ा बढ़ा तो सकती है, उसे कम नहीं कर सकती। यही हश्र
औरंगजेब की सत्ता का हुआ। कमलेश्वर हमें वर्तमान और भविष्य
के प्रति चेतावनी देते हैं कि यदि आज साम्प्रदायिक और
जातिवादी तत्वों की जीत होती और सत्ता पर उनका नियंत्रण
होता है तो वह समाज और देश के लिए घातक होगा और भारत के
इतिहास में एक नई त्रासदी का जन्म होगा। एक निष्कर्ष और
निकलता है कि बिना संगठित हुए और संघर्ष के अभाव में साझी
संस्कृति और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा नहीं की जा सकती। आज
के औरंगजेबों के चरित्र और उनकी कार्यप्रणालियों को समझकर
ही इस देश को फिर से संकीर्णता और वैमनस्यता की आग में
झुलसने से बचाया जा सकता है। इतिहास इकहरा नहीं होता, उसका
अध्ययन सम्पूर्ण सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवेश को
देखे बिना संभव नहीं। सही तथ्यों का उद्घाटन हमारा आजका
सबसे बड़ा दायित्व हैं।
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन
हमारी अनेक त्रासदियों के लिए उत्तरदायी रहा है। व्यापारिक
स्वार्थ, मानवीय गरिमा और राष्ट्रहित के विरोध में खड़े
होते रहे हैं। व्यापारिक समुदाय और संगठन का मुख्य
उद्देश्य मुनाफा होता है। जो भी शासक उनके व्यापारिक हितों
की रक्षा करता रहा है, व्यापारी उसकी भरपूर मदद करते रहे
हैं। यहां हिन्दू–मुसलमान का प्रश्न ही नहीं उठता। आर्थिक
हितों की संरक्षा ही मुख्य सवाल है।
एक बड़ा सवाल यह उपन्यास
हमारे सामने प्रस्तुत करता है कि क्या विदेशियों को बिना
किसी सुदृढ़ नियन्त्रण के खुली छूट दे देनी चाहिए? क्या यह
व्यापार और मुनाफा हमारी राजनीति को प्रभावित नहीं करेगा?
लेखक यह सवाल जहांगीर द्वारा अंग्रेज व्यापारियों को सूरत
में व्यापार करने की छूट से शुरू करते हैं। आज के संदर्भ
में यह बहुत महत्वपूर्ण है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां विशेष
रूप से अमरीका की कम्पनियों के माध्यम से आज के इस
परिदृश्य को समझना बहुत आवश्यक है। इनरॉन के संदर्भ मे
अमेरिकी राजदूत रिचर्ड की धमकी के बाद केंद्रीय सरकार ने
महाराष्ट्र सरकार के विरोध और देश की प्रभुसत्ता की परवाह
न करके उसकी तमाम शर्ते स्वीकार कर
लीं। देश में तीन गुने भाव पर यह कम्पनी उपभोक्ताओं को
विद्युत सप्लाई करेगी। आर्थिक गुलामी के रास्ते से ही
राजनैतिक गुलामी आती है।
"मलिका नूरजहां के जरिए
जहांगीर का इजाज़नामा पाकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने एक तरफ
तो अपनी जड़ें मजबूत करनी शुरू कर दीं, दूसरी तरफ वे
हिन्दुस्तानी हुकूमत की जड़ें खोदने के तरीके तलाशने लगे।
....मालगोदामों की चौकीदारी के नाम पर फौज खड़ी कर ली।"
(पृष्ठ २८७–२८८)
व्यापारिक साम्राज्य अपना
अर्थशास्त्र और बाजार ही नहीं लाते अपनी राजनीति एवं
संस्कृति भी लाते हैं। खुली बाजार व्यवस्था आर्थिक
साम्राज्यवाद की जीवनी शक्ति है, इनके रूप बदल सकते हैं।
वे प्रजातंत्र का वेष धारण कर सकते हैं, मानवता के हित में
आयोग बना सकते हैं लेकिन इन्हें हमेशा बाजारों की आवश्यकता
है जो मुनाफा दे सकें। इस सिद्धान्त को पालन करने वाली
व्यवस्थाओं के तीन नाम विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं –
उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और पूंजीवाद।
इक्कीसवीं सदी में इसके कुछ
और नाम हो सकते हैं। विकासशील देशों से ये कच्चा माल
प्राप्त करते हैं और भारी मुनाफे पर उन्हीं देशों को बेच
देते हैं। इनकी बाजार व्यवस्था विषमता की खाई को गहरा और
चौड़ा कर रही है। हमारी नई पीढ़ी को विचारविहीन बनाकर
कृत्रिम उल्लास और उत्सव के रंग में रंगने का प्रयास कर
रही है। हमारे देश में ६० प्रतिशत आबादी के पास स्वच्छ
पीने का पानी नहीं है वहां पेप्सी और कोकाकोला अपनी धूम
मचा रही है, करोड़ों के लाभ में मिनरल वाटर बिक रहा है।
शराब पान की दुकान में सस्ते दामों पर उपलब्ध कराई जा रही
है। इस महंगाई के बीच शराब दिन पर दिन सस्ती हो रही है।
भारतीय संस्कृति की आड़ में विदेशी संस्कृति का खुलेआम
समर्थन हो रहा है, इस व्यवस्था को संतों, महन्तों और धर्म
के ठेकेदारों का पूरा समर्थन प्राप्त है। प्रचार माध्यम एक
चकाचौंध फैला रहे हैं ताकि क्रियाकलापों पर सुनहरा पर्दा
डाल सकें। यह उपन्यास विकासशील देशों में घट रहे इन
दुष्चक्रों एवं षड्यंत्रों को कहीं विस्तार से तो कहीं
संकेतों में हमारे सामने प्रस्तुत करता है।
'कितने पाकिस्तान' उन
बिन्दुओं को भी रेखांकित करता है जो एकता के केन्द्र रहे
हैं। चाहे अठारह सौ सत्तावन का पहला स्वाधीनता संग्राम हो
या बीसवीं शताब्दी का मुक्ति संग्राम जिसमें सभी जाति और
धर्म के लोग मिल जुलकर स्वाधीनता के लिए लड़े थे। लेखक का
यह विश्वास है कि बड़े उद्देश्यों के लिए किए गए संघर्ष
लोगों को जोड़ते हैं तथा सत्ता प्राप्ति के लिए किए गए
प्रयास लोगों को तोड़ते हैं। देश दीन और धर्म से ऊपर है।
जब धर्म बड़ा हो जाता है तो देश छोटा हो जाता है और यही
विद्वेष का कारण होता है।
विद्या और सलमा की प्रेम
कहानी इस उपन्यास में आदि से अंत तक है। विद्या के साथ
बालापन की प्रीति है, उसका पाकिस्तान जाना विश्वास जन्य
नहीं है। सलमा का प्रेम प्रसंग भी कुछ अधिक रोमानी है,
इन्हें कम किया जा सकता था। नई कहानी का कुछ खुमार इस
उपन्यास पर भी दिखाई देता है। देश विभाजन की त्रासदी के
संदर्भ में सुरजीत कौर, बूटा सिंह, जेनिब के सवाल आज भी
उत्तर मांग रहे हैं, प्रेमचन्द की मुन्नी की तरह।
इस उपन्यास का फलक बहुत
विस्तृत है। विश्व की पांच हजार वर्ष पुरानी सभ्यताओं एवं
संस्कृतियों को इसमें समेटने का प्रयास किया गया है,
लेकिन इससे उपन्यास की रोचकता एवं उसके उद्देश्य पर कोई
प्रभाव नहीं पड़ता।
वर्तमान धार्मिक उन्माद,
वैमनस्य, विवेकहीनता, युद्ध लोलुपता, सारे मानव मूल्यों को
व्यापार बनाने का प्रयास आदि पर यह उपन्यास एक प्रश्नचिह्न
है। मैत्री, शान्ति और सद्भाव के आशा भरे संदेश के साथ यह
उपन्यास समाप्त होता है।
"लेकिन तुम वहां जाकर करोगे
क्या? तुम क्या कर सकते हो? मेरा मतलब है, वहां जाने का
मकसद?"
"वहां जाकर मैं वृक्ष लगाऊंगा।"
"वृक्ष!"
"हां बोधिवृक्ष ...मेरे इस झोले में उसी की पौध है।
बोधिवृक्ष की जड़ें नीलकंठ की तरह सारा विष पी लेती हैं
...पहला बोधिवृक्ष मैं पोखरन में लगाऊंगा, फिर सरहद पार
करके दूसरा वृक्ष मैं चगाई की पहाड़ियों में लगाऊंगा ...तो
मैं चलूं ...।"
—प्रो कुंवरपाल सिंह
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