देश बिराना (उपन्यास)
"हादसों के
बीच" (१९९८) के बाद‚ कथाकार 'सूरज प्रकाश' का दूसरा
उपन्यास है‚ "देस बिराना"। घर की तलाश यदि इस उपन्यास का
सैंट्रल–थीम मान लिया जाए तो स्मृति वह औज़ार है जिसके
आधार पर यह उपन्यास बुना गया है। इस उपन्यास में ऐसा कहीं
नहीं लगता कि लेखक किसी मुहावरेदार भाषा में पाठक को बहा
ले जाने के उपक्रम कर रहा है; फिर भी हमें लेखक की
अतिरिक्त सजगता का भान होता रहता है। साफगोई से दिए गए
ब्योरे एवं उनके प्रति चैतन्यता‚ इस उपन्यास का हासिल व
सीमा दोनो हैं। भाषा के प्रति लेखक का कोई अलग नज़र आता
मोह ठीक वैसे ही नहीं है जैसे कि इस कृति में किसी तरह का
घोषित वाद नज़र नहीं आता। पंजाबियत में रंगी कलम इस
उपन्यास के ज़रिए यक्सां‚ आत्मकथात्मक आनन्द तथा
संस्मरणात्मक वृत्तांत का जायका देती है। स्थितियों के
सम्मुख लाचारगी के स्थापत्य के बावजूद यह उपन्यास सिद्ध
करता है कि जीवन दरहकीकत जीने के लिए है।
जीवन–यथार्थ को प्रस्तुत
करने के लिए ही उपन्यास–विधा अस्तित्व में आई थी। राल्फ
फॉक्स तो इसे एक दार्शनिक कार्य भी मानते रहे हैं।
ज्ञातव्य है कि श्रेष्ठ रचनाकर्म के लिए हमेशा मनुष्य को
ही केंद्र में रखा जाना चाहिए और यह उपन्यास सिद्ध करता है
कि बिना किसी राजनैतिक–विमर्श में धंसे‚ आम निम्न
मध्यवर्गीय भारतीय परिवार के द्वंद्वों को किस तरह से
रेखांकित किया जा सकता है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए आप
वक्त को नंगी देह पर रेंगते महसूस करेंगे‚ उदासी आपको
बार–बार उकसाएगी‚ अंदर की ओर मुड़ती एक यात्रा दिखाई
पड़ेगी जो दरअसल नए आगाज़ खोल रही है‚ कथित दोस्तियां और
उनके जिरहबख्तर एवं अजनबी लोगों के अपनापे से साक्षात्कार
होगा‚ प्रेम के प्रति एक–साथ जिज्ञासा‚ खीझ व आत्मसमर्पण
के तेवर मिलेंगे। कई बार ऐसा भी लगेगा कि यह उपन्यास‚
औरत–मर्द की जात को बूझने वाली शायरी है।
सूरज प्रकाश मुंबई जैसे
महानगर में बसे हुए हैं। एक ऐसा महानगर जिसमें असंख्य
विरोधाभास हैं। हर रोज़ सैकड़ों की तादाद में अपना भविष्य
तलाशने यहां लोग उतरते हैं‚ रंडियां बनती औरतें हैं‚
भिखारी से लेकर जेबकतरे बनते बच्चे हैं‚ अंडरवर्ल्ड‚
फिल्मी–चकाचौंध‚ धन के मुंह बोलते अकूत भंडार।
'देस बिराना' में घर की
तलाश के पाठ के बावजूद पाठक का मन यदि बंधता है तो इसलिए
कि उसे कहीं आसरा मिलेगा; किंतु केंद्रीय पात्र की अनिर्णय
वाली मनःस्थिति एक शोकगीत की तरह हमसे टकराती है। बेहतर यह
है कि सूरजप्रकाश की भाषा को बूझना नहीं पड़ता। यहां न तो
चक्करदार ज़ीने हैं और न ही रहस्यमय वीथियां। मनःस्थितियां
पूरी तरह अपने को खोलती हैं। एक तरह से यह उपन्यास गगनदीप
(केंद्रीय पात्र) का रोज़नामचा है जिसमें विशुद्ध रूप से‚
पताका, प्रकरी कथाओं की टोन नहीं है। मूलकथा को बढ़ाने की
जो भी अंडरटोन यहां है वह भी एक बड़े मोनोलॉग में
परिवर्तित होती मिलती है। चिठ्ठियों के माध्यम से बात के
कहन को सूरजप्रकाश युक्ति की तरह इस्तेमाल करते हैं। अंत
में मालविका (निक्की नामक योग – प्रशिक्षक) की एक कहानी
(फ्लैशबैक) जरूर है‚ किंतु यह कहानी भी गगनदीप को ही सुनाई
जाती है। समय व स्थितियों की बर्बरता है यहां‚ वृत्तांत
हैं‚ अस्थिरता का ऊल–जुलूल है‚ संबंधों की अमानवीयता है‚
इस्तेमाल होने की पीड़ा है‚ लेखक के सायास हस्तक्षेप हैं।
सभी कुछ स्पष्ट है।
सूरजप्रकाश में बयानबाजी की मौलिक सूझ है। आसान रहते हुए
दुःख को मथना‚ दीर्घकालीन अभावों को याद करते हुए निरंतर
राहतप्रद फंतासियों में जाने से स्वयं को बचाए रखना‚
आंतरिक तरस को मूल्य का बदल बनने देने से वर्जित करना‚
सपनों को न तो काल्पनिक स्थानापन्न की वस्तु बनाना और न ही
उनसे मुक्ति मांगना; फिर यहीं थोड़े–थोड़े अंतराल से
इमैजिनरी सब्स्टिट्यूशन को उभारते रहना‚ संपूर्णता की
अवधारणा को चाक–चाक कर देना‚ किसी भी स्थिति को इतना
प्रभावी न बनने देना कि उससे जीत का आभास होने लगे
इत्यादि‚ लेखक की सजगता दर्शाने वाले फैक्टर हैं। "देस
बिराना" का अर्थ है छल‚ पीड़ा और समझौते न कर पाने की
बेचारगी। यहां यह बेचारगी अथवा लाचारगी लबालब है‚ लेकिन
छलकने के बावजूद स्थितियों को उघाड़ना नहीं भूलती। लेखक
जिजीविषा की प्रकृति को प्रवाहित करने के प्रति अधिक
उत्सुक नज़र आता है।
अपने एक साक्षात्कार में सूरजप्रकाश कहते हैं‚ "मेरी रचना की
पहली और आखिरी शर्त उसकी पठनीयता है। चूंकि मैं अपने
पात्रों से कोई बाजीगिरी नहीं कराता‚ उनके जरिए कोई
तिलिस्म नहीं बुनता‚ कोई अनूठी अनजानी बात नहीं कहना चाहता
यानी जो जीवन में जैसा है‚ जिस तरह से है और जैसा मैंने
उसे देखा‚ परखा‚ अनुभव किया‚ समझा‚ उसी रूप में सामने रखने
की कोशिश की है। इसीलिए मेरे पात्र सहज स्वीकार्य होते हैं
और अपने आसपास के ही होने का‚ जीवंत होने का अहसास देते
हैं। मैं अपनी रचनाओं के लिए किसी नकली भाषा को गढ़ने की
या किसी जादुई–शैली को विकसित करने की जरूरत महसूस नहीं
करता।"
सूरज बेहतरीन अनुवादक हैं‚
संपादक हैं‚ लगातार व्यंग्य और कहानियां लिख रहे हैं।
खुलासा करते जाना उन्हें प्रिय है। बतौर रचनाकार‚ एक साथ
कई समस्याओं से जूझने का मन बनाए रहते हैं। "देस बिराना"
में भी यदि निम्नमध्यवर्गीय पंजाबी परिवारों में
पिता–पुत्र के तनाव हैं‚ तो लड़कियों की उच्च शिक्षा के
आगे खड़ी होने वाली रूढ़ियां हैं‚ दहेज–प्रथा व इसकी
बलियां हैं‚ बच्चों का यौन–शोषण है‚ महानगर का दमघोंटू
माहौल है‚ भीड़ में स्थायी हो चुका अकेलापन है‚ रिश्तों
में फैलती अजनबियत है‚ स्त्री–पुरूष रिश्तों के दोहरे
मानदण्ड हैं‚ विदेशी जीवन की छद्मताएं हैं और शादी की आड़
में होने वाली प्रताड़ना है‚ कम्प्यूटर–युग में अचानक बढ़
आया व्यक्ति का खालीपन भी है‚ वगैरह।
इस उपन्यास की
रचना–प्रक्रिया को लेकर सूरज कहते हैं‚ "इसका मुख्य पात्र
भूपेंद्र सिंह (गगनदीप) है‚ जो चौरासी–पचासी में मिला था।
उस वक्त मैंने लिखना शुरू नहीं किया था। १९८६–८७ में अपना
लेखन शुरू करने से लेकर २००० में उपन्यास लिखे जाने तक यह
पात्र लगातार परेशान करता रहा और मैं उसके दबाव से तब तक
मुक्त नहीं हुआ‚ जब तक मैंने वह सब कुछ कह नहीं दिया था‚
जो मुझे इस उपन्यास के जरिए कहना था। "देस बिराना" उपन्यास
घर की तलाश को लेकर लिखा गया बेहद पठनीय‚ जेनुइन और कुछ हद
तक परेशान करनेवाला उपन्यास है। इसे लिखकर मैं इतना हलका
और खाली हो गया था कि लगभग एक वर्ष तक कुछ और लिख ही नहीं
पाया।"
इस उपन्यास को पढ़ते हुए कई बार लगता है कि दर्शन में लेखक
की विशेष रूचि है। प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है‚ यह
लगातार बदल रही है और नई बन रही है। यह उपन्यास इस तथ्य की
भी गवाही देता मिलता है कि आदमी अपने जन्म से ही आज़ादी का
वरण करता है। लेखक यहां चुपके से सवाल उठाता है कि जब
आज़ादी एक मूल्य है तो उसे किसी भी तरह का सुख बांध ही
नहीं सकता। यहां किसी के साथ आनंद के चरम का भोग भी बंधन
नहीं बन सकता। तो क्या आज़ादी से अभिप्राय ऐसी मुक्ति है
जहां कहीं ठहराव नहीं? क्या आज़ादी का प्रतिफल ऐसी क्रूरता
में निहित रहता है? क्या कहीं सुरक्षित शरण होती भी है?
बिना किसी रटी रटाई बहस को उभारे‚ बिना किसी फ्रेम में
स्थापित हुए‚ बिना किसी घोषित जागरूकता के‚ यह उपन्यास
मनुष्य की भौतिकवादी – दृष्टि‚ अर्थ की जड़ता और मन की
अस्थिरता की चिंदियां उड़ा देता है।
"देस बिराना" की कथा
सीधी–सादी है। गगनदीप नामक एक निम्न मध्यवर्गीय पंजाबी
सिक्ख परिवार (रामगढ़िया तरखान–बढ़ई) का लड़का अपने भयंकर
सिर–दर्द से परेशान होकर केश कटवा डालता है। इस घटना पर‚
घर के जबरदस्त विरोध व पिता की हड्डी तोड़ पिटाई के कारण
उसे अपना घर छोड़ना पड़ता है। वह गुरूद्वारों की सेवा करता
हुआ‚ ट्रस्टों व गुरूभक्तों के दान के फलस्वरूप अपनी पढ़ाई
जारी रख पाता है। पढ़ने के अतिरिक्त उसकी कोई व्यवहारिक
रूचि नहीं है और उसमें स्थितियों से टकराने का जुनून
जाग्रत हो चुका है। उसका यौन–शोषण भी होता है‚ किंतु सभी
तरह की लाचारियों को दरका कर अंततः यह लड़का आई•आई•टी•
कानपुर जैसे विशिष्ट संस्थान से पीएच•डी• तक की पढ़ाई करता
है और फिर मुंबई में एक अच्छी नौकरी पा जाता है। घर के
अहसास के सहारे अकेलापन काटते हुए उसकी भेंट एक ऐसे दंपति
(अलका/देवेंद्र) से होती है जहां उसे बड़ी बहन व मित्र का
स्नेह प्राप्त होता है। जीवन की पहली प्रेमिका (गोल्डी)
मिलती है।
गगनदीप चौदह वर्षों के
अंतराल के बाद अपने घर भी जाता है जहां उसके माता–पिता‚ दो
भाई‚ प्यारी सी छोटी बहन (गुड्डी) और मित्र संसार (नन्दू
इत्यादि) है। जमा पूंजी संग गगनदीप घर के प्रति अपनी आस्था
को सिद्ध करना चाहता है किंतु उसके पिता मध्यवर्गीय आर्थिक
तिकड़मों में बंधे मिलते हैं। उसे उलझा देने, फांस लेने
(शादी जैसे) के षड्यंत्र फिर शुरू होते हैं। यहां बहुत कुछ
बदल चुका है (जो लोग परिचित नज़र आ भी रहे हैं‚ वे उन
दुकानों पर बैठे नज़र नहीं आ रहे हैं जिन पर उन्हें देखने
की आदत थी मुझे। लोगों के चेहरों के साथ–साथ उनकी दुकानों
के चेहरे–मोहरे भी बदल चुके हैं); शादी के नाम पर होने
वाली अपनी नीलामी से घबराकर एक बार फिर अपना घर छोड़ता है
गगनदीप। बहन उच्च शिक्षा लेना चाहती है और गगनदीप भी अपनी
बहन के लिए कुछ सार्थक करना चाहता है। अपने दोस्त व बहन के
माध्यम से घर से राब्ता रखे गगनदीप का बार–बार पिता की
टुच्ची मानसिकता से साक्षात्कार होता है। एक छोटा भाई भी
मुंबई आकर‚ गगनदीप के ही पैसे पर ऐय्याशी करने के बावजूद
उसे दुत्कार जाता है। उसकी प्रेमिका भी उसे छोड़कर अपने
बॉस से विवाह कर लेती है।
निपट अकेले पड़ गए व ठगे गए
गगनदीप को एक ही दिशा दिखाई पड़ती है कि अपना देश छोड़कर
विदेश भाग जाए। अतः लंदन में एक हांडा – परिवार का वह
घर–जंवाई बनना स्वीकार करता है। हांडा – परिवार‚ गुपचुप व
नितांत मौलिक ढंग से अपने दामादों का शोषण करता आ रहा है।
यहां कई तरह के छद्म‚ झूठ व मक्कारियां हैं। हांडा–परिवार
के व्यापार में अपने विज़न (कम्प्यूटर ज्ञान इत्यादि) का
लाभ देने के बावजूद‚ बावजूद अपनी अणख (खुद्दारी) के‚ शिशिर
जैसे साढू–मित्र के बावजूद‚ पत्नी की देह में डूबने के
बावजूद‚ गगनदीप अपनी पत्नी (गौरी) से दूर होता चला जाता
है। इस बीच उसकी मर्जी के विपरीत उसकी बहन की शादी हो जाती
है तथा कालांतर में वह दहेज का शिकार होती है। गगनदीप को
फिर से पुराना सिरदर्द शुरू होता है। किसी इलाज से लाभ न
होने के कारण उसे योग–नेचरोपैथी की शरण में ले जाया जाता
है। यहां उसकी आत्मग्रंथियां खुलती हैं‚ लाभ होता है। यहां
अलग तरह का संश्लेषण है जिसे बुनने में लेखक ने पर्याप्त
मेहनत की है। इस बीच हांडा – परिवार के पास पड़े
पासपोर्ट–वीज़ा जैसे पेपर रिन्यूअल के लिए उसे वापस मिलते
हैं। वह लौटने का निश्चय करता है कि यहीं मालविका से
गगनदीप के संबंध बनते हैं। मालविका की भी एक अलग कहानी है
जिसके ज़रिए लेखक देह‚ भौतिकवाद‚ विदेशों में बसे देसी
युवकों की लंपटता को उभारता है। गगनदीप अपनी वापसी से
पूर्व मालविका से देह संबध स्थापित करता करता है। इसके
तत्काल बाद सबकुछ छोड़–छाडकर‚ गगनदीप की अपने देश की ओर
वापसी होती है।
"रहना नहिं देस बिराना है
यह संसार कागद की पुड़िया
बूंद पड़े घुल जाना है
यह संसार कांट की बाड़ी
उलझ–पुलझ मरि जाना है
यह संसार झाड़ और झांखर
आग लगे बरि जाना है
कहत कबीर सुनो भई साधो
सतगुरू नाम ठिकाना है।"
उपन्यास में ऐसा कथाक्रम यूं ही घटित नहीं होता है। उल्लिखित
कहानी मेरी सपाटबयानी है। सूरजप्रकाश इस उपन्यास में‚ अपने
रचनात्मक–कौशल संग सामाजिक‚ दैहिक व मानसिक समस्याओं को न
केवल उभारते हैं‚ उनसे जूझते हैं‚ बल्कि पाठक को तैयार भी
करते हैं। वे भारतीय मध्यवर्ग के द्वंद्व को
चीन्हते–चीन्हते‚ एन•आर•आई• की समस्याओं को खोलने लगते हैं
अथवा पैसे (पूंजी) के दुष्परिणामों की कलई खोलते–खोलते‚
विदेशों में दोयम दर्जे का जीवन जीने को अभिशप्त भारतीय
युवा–मानस की लाचारी को बुनने लगते हैं। अपनी जड़ों से
टूटती पीढ़ी के बरक्स उन्हें अपने देश की गलीज ज़िंदगी याद
हो आती है। जब वे गगनदीप के घर का भूगोल खोलते हैं तो
"गुरदयाल सिंह" की याद दिला जाते हैं और जब लंदन की बात
करते हैं तो ऐसा लगता है कि पाठक की अंगुली थामे‚ उसे अपने
साथ–साथ लंदन घुमा रहे हों।
इस उपन्यास की ताकत इसकी
नॉस्टैल्जिक चुभन में निहित है। शुरूआत में ही लेखक ने इस
तत्व को पकड़ लिया है। बाज़ार के मारक तेवरों का उभार भी
इस उपन्यास पर भरोसा जगाता है। हां! कभी–कभी गगनदीप का
इतना अधिक शहीदाना व्यवहार अखरता जरूर है और अंत में एकदम
से मालविका को छोड़कर आ जाना भी गगनदीप के अपने ही चरित्र
से मेल नहीं खाता‚ फिर भी यह उपन्यास पठनीय तो है ही।
इसलिए भी कि जब स्थापित हो चुके बड़े–बुजुर्ग साहित्यकार‚
अपनी आलीशान कुर्सियों से उठ–उठकर यह सिद्ध करने की फ़िराक
में नज़र आते हैं कि श्रेष्ठ साहित्य दरअसल वह होता है जो
सामाजिक सरोकारों से परे हो तथा जिसमें दुःख–सुख‚ इश्क
वगैरह का बड़ा संसार हो . . .तो सामाजिक सरोकारों के प्रति
समर्पित इस उपन्यास से विश्वास पुख्ता होता है कि दरअसल
लेखन तो सामाजिक प्रतिबद्धता के बिना हो ही नहीं सकता।
हिंदी–उपन्यासों के संसार
में "देस बिराना" का स्वागत है। बावजूद झटकेदार अंत के‚
लेखक‚ जीवन की आयरनी से पाठक का साक्षात्कार बखूबी करा
जाता है। गगनदीप का अंतिम संवाद है : "इतनी पढ़ाई‚ मेहनत‚
हर तरह के संघर्ष और तकलीफों और मानसिक तनावों के भीषण और
लंबे–लंबे दौर गुज़ारने के बाद मैं आज चौंतीस साल की उम्र
में इतना तन्हा‚ अकेला‚ गरीब और बेचारा बना हुआ हूं।
ज़िंदगी भर मुझे इस शब्द से चिढ़ रही और हालात ने मुझे
बेचारा बना के ही छोड़ा है”
और फिर
"ऐसी नगरिया में किहि विधि रहना
नित उठ कलक लगावै सहना
एकै कुंआ पांच पनिहारी
एकै लेजुर भरे नौ नारी
फट गया कुंआ बिनस गइ बारी
बिलग भई पांचो पनिहारी
कहै कबीर नाम बिनु बेरा
उठ गया हाकिम लुट गया डेरा।"
— मनोज शर्मा
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