लेखक
शैलेश मटियानी
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विभोर प्रकाशन
४९ बी हेस्टिंग रोड, इलाहाबाद
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पृष्ठ ६९४
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मूल्य ५०० रुपये
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शैलेश
मटियानी की इक्यावन कहानियाँ (कहानी संग्रह)
शैलेश मटियानी जैसे दिग्गज
कहानीकार की कहानियों पर लिखते समय सबसे बड़ी दिक्कत जो है
वह यह कि उनकी किस कहानी को छोड़ा जाए और किस पर सघनता से
विचार किया जाए। राजेन्द्र यादव, गिरिराज किशोर, पंकज
विष्ट जैसे न जाने कितने बड़े–बड़े नाम हैं जिन्होंने माना
है कि शैलेश मटियानी हिन्दी कहानीकारों में बड़े कहानीकार
हैं। जहाँ कहानीकारों के पास कुल जमा चार–पाँच कहानियाँ ही
उत्कृष्ट हैं वहीं मटियानी के पास एक दर्जन से ऊपर
कहानियाँ ऐसी हैं जो उन्हें प्रेमचंद से भी
बड़ा कथाकार बताती हैं।
‘शैलेश मटियानी’ की इक्यावन कहानियाँ’ के प्रथम संस्करण का
आमुख देखें तो प्रकाश मनु का कहना है– सच तो यह है कि
मटियानी हिन्दी कहानी के शीर्ष पुरुषों में से एक हैं
हिन्दी साहित्य को जितनी अच्छी कहानियाँ उन्होंने दीं उतनी
शायद ही किसी और लेखक ने दी हों। इस मामले में कमलेश्वर
और राजेन्द्र यादव जैसे कहानी के दिग्गज उनके आगे ठहर सकते
हैं और न ही रेणु जैसे बड़े लेखक...
सन् १९९६ में प्रकाशित मटियानी की कहानियों का यह
भारी–भरकम संग्रह निश्चित ही मटियानी–समग्र नहीं है।
लेकिन इतना तो ज़रूर किया है ‘विभोर प्रकाशन’ ने कि उनकी
लगभग सभी चर्चित कहानियों को संग्रह में जगह मिली है।
मटियानी के कथा–संसार को जानने के लिए उनके व्यक्तिगत
संसार को भी जानना कुछ ज़रूरी हो जाता है।
किसी रचनाकार की
रचनाओं की प्रामाणिकता उसका वह परिवेश होता है जिसे उसने
अपनी साँसों में जिया होता है। निश्चित रूप से मटियानी का
व्यक्तिगत जीवन बाल्यकाल से ही संघर्ष—गाथा रहा है। एक
ऐसा संघर्ष जो आख़िरी साँस तक चला। इस संघर्ष को कहीं
विराम मिला तो आख़िरी साँस ले लेने के बाद। अपने
आत्मकथ्यों में जो कि कई पत्रिकाओं में छपे, मटियानी ने जो
स्थितियाँ बयान की हैं वे तन और मन, दोनों में झुरझुरी
पैदा करने वाली हैं। |
आज के समाज में जहाँ शिक्षा सनदों से
पहचानी जाती है वहीं एक सनद–विहीन योग्य व्यक्ति की
सामाजिक उपेक्षा उसे कितना तोड़ती है, इस पीड़ा को उन्हें
समझना होगा जो लोग ऐसी जगहों पर हैं जो ऐसे रचनाकारों के
लिए कुछ कर सकते हैं जिनमें जान तो है मगर हालात उसे निचोड़
रहे हैं नीबू की तरह। मटियानी ज़िन्दगी भर निचुड़े जाते रहे।
मगर शायद इन्हीं
तनावों ने मटियानी से ‘इब्बू मलंग’ और ‘वृत्ति’ जैसी
कहानियाँ लिखवाईं।
जो लोग अलमोड़ा जैसी जगह के किसी कोने–अतरे में किसी कस्बे
या गांव में जन्मे हों या मुम्बई की नारकीय बस्तियों में
रहते हुए नरक भुगता हो या फिर इलाहाबाद में जमने की कोशिश
में उखड़ने का दंश झेला हो उन्हें शैलेश मटियानी की
कहानियाँ अपनी कहानियाँ लगेंगी। यह सही है कि उनकी
कहानियों में मानव–जीवन का वह नरक अपनी भयावह यथार्थता और
भयावह अर्थवत्ता के साथ उजागर हुआ है जिसे देखते और सुनते
तो प्रायः सभी कहानीकार हैं मगर उसपर कलम इस तरह चलाते हैं
जैसे कबड्डी का पाला भर छूना उनका उद्देश्य रहा हो। मटियानी केवल पाला भर नहीं छूते बल्कि उसमें धँसने की
कोशिश करते हैं। भले ही उनकी साँस उखड़ जाए। लगभग उसी तरह
जिसतरह ‘निराला’ पत्थर तोड़ती हुई औरत या फिर भिक्षुक को
देखते हैं। दोनों का यह देखना, देखना भर नहीं होता।
‘छाक’, ‘मैमूद’, ‘दो दुखों का एक सुख’, ‘शरण्य की ओर’,
‘अहिंसा’ ,‘पोस्टमैन’, ‘हलाल’, ‘वृत्ति’, ‘मिट्टी’,
‘अर्धांगिनी’, ‘माता’, ‘गोपुली गफूरन’, ‘सावित्री’, ‘इब्बू
मलंग’, ‘प्यास’ और ‘प्रेत–मुक्ति’ आदि कहानियाँ आम जीवन के
दैनिक नरक की कहानियाँ हैं। एक साथ मटियानी की इक्यावन
कहानियाँ पढ़कर उनके रचनात्मक संसार के कई पहलुओं से रूबरू
हुआ जा सकता है।
इन कहानियों में मटियानी ने स्त्री–पुरुष चरित्रों में
जिनको भी पात्र बनाया उनकी रूह बनकर वे उनमें उतर गए।
पात्रों की चाल–ढाल, बोली–भाषा और परिवेश के प्रचलित
मुहावरे जितने जीवन्त रूप में चित्रवत उभरते हैं उनसे
मटियानी का एक दूसरा रूप भी उभरता है। वे किसी कुशल
निर्देशक–से दिखते हैं। कभी–कभी आश्चर्य होता है कि क्या
कोई लेखक अपने पात्रों में इतना उतर सकता है कि कठपुतलियों
में जान फूंक दे। निर्जीव पात्रों का इतना सजीव चित्रण
करने के लिए बड़ी चौड़ी छाती चाहिए।
मटियानी के अधिकांश पात्र उसी निर्जीव–से समाज के हैं
जिसमें ज़िन्दगी का हर दिन ही नहीं, हर लम्हा भारी होता है। उस समाज में ज़िन्दगी गुज़रती नहीं, लिथड़ती है। मगर यह
कितना बड़ा सच है कि यह समाज हर युग में रहा है लेकिन इसे
देखा मटियानी ने। जिन गलियों से लोग नाक पर रूमाल रखकर
गुज़रते हैं उनमें से मटियानी साँस लेते हुए ठहर–ठहरकर
गुज़रे हैं।
मटियानी की इक्का–दुक्का कहानियों को पत्रिकाओं में पढ़ते
हुए पहले कभी अगर मैं दो–चार पलों के लिए रुका तो शायद इस
लिए कि किसी स्थिति विशेष ने चौंकाते हुए बांध लिया होगा। लेकिन इस संग्रह को पढ़ते हुए जब–जब मैं
रुका तो उन पलों
का वर्चस्व मुझे रोक सका जहाँ वीभत्स रस को मटियानी ने
ज़िन्दगी की सचाई से जोड़ दिया है। संग्रह पढ़ते हुए ऐसी
ज़िन्दगी और ऐसे पात्रों से कभी–कभी ऊब भी होने लगती है मगर
दोनों ही हकीकत हैं। हम इनसे भाग नहीं सकते। मटियानी की ये
कहानियाँ संग्रहणीय हैं।
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कृष्ण बिहारी
१६ जून २००३ |