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आज सिरहाने


लेखक
डा नवाज़ देवबंदी

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प्रकाशक
डायनेमिक प्लेजर सिरीज़
११, शिवाजी रोड
मेरठ, उ प्र

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पृष्ठ २३१

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मूल्य १०० रुपये
 

पहली बारिश (ग़ज़ल संग्रह)

'मेरे पैमाने में कुछ है उसके पैमाने में कुछ
देख साक़ी हो न जाए तेरे मयखाने में कुछ।'

यह बहुत खुशी की बात है कि हिन्दी और उर्दू के बीच की खाई को देवनागरी से पाटने की पुरज़ोर कोशिशें शुरू हो गई हैं। देर से ही सही यह सही बात समझ में तो आई कि दोनों ज़बानें बहनें हैं। उर्दू के बड़े–बड़े अदीब भी अगर केवल उर्दू लिपि में ही लिखते और छपते रहे तो उन्हें जन–मानस की ज़बान पर बसने की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। निश्चित रूप से देव नागरी ही आज वह लिपि है जिसे हिन्दुस्तान में पहचान मिली हुई है। यदि जन–भाषा में बात नहीं कही जाएगी तो वह व्यापक रूप से समझी नहीं जाएगी चाहे कितनी अच्छी बात ही क्यों न हो, चाहे कितने ही अच्छे ढंग से क्यों न कही गई हो।

मैं उर्दू से बहुत वाकिफ़ नहीं हूँ फिर भी शायरी मुझे आकर्षित करती रही है। ग़ज़ल खासतौर पर डॉ॰ नवाज़ देवबंदी की ग़ज़लों का संग्रह "पहली बारिश" मेरे सामने है और मैं चमत्कृत हूँ। एक ऐसी शख्सियत के अशआरों का उद्धरण दे रहा हूँ जिसमें खुद्दारी झलकती है।
'बादशाहों का इन्तिज़ार करें / इतनी फुरसत कहाँ फ्रक़ीरों को '

मुहब्बत को लेकर इतनी प्यारी बात कि—
'ये माना ख़ाक कर देती है लेकिन / मुहब्बत फूल है शोला नहीं है।

एक शेर यह भी है जो मोहब्बत को नई ज़मीन देता है—
'अबके बरस जो प्यार का मौसम न आएगा / बागों में भी बहार का मौसम न आएगा।"

डॉ॰ नवाज़ देवबंदी सेहतमंद सोच के शायर हैं और वह सोच हमें उनके इस क़ता में बखूबी उज़ागर होता दिखाई देता है—
राख–तले चिंगारी रख
इतनी पर्दादारी रख
अम्न ज़रूरी है लेकिन
जंग की भी तैयारी रख़
नवाज़ साहब का एक शेर है—
बद नज़र उठने ही वाली थी किसी की जानिब / अपनी बेटी का ख़याल आया तो दिल काँप गया।

स्व॰ अली सरदार जाफ्ररी ने नवाज़ साहब के बारे में कहा है कि यह ज़रूरी नहीं कि हर शायर अपने दौर का मीर,ग़ालिब या इक़बाल हो, बस नवाज़ देवबंदी होना काफी है, जिसका दिल दर्द आशना हो और लहज़ा बहार आशना।

यूँ तो डॉ॰ नवाज़ देवबंदी के बारे में बड़ी अपनाइयत से गोपाल दास 'नीरज', डॉ॰ बशीर बद्र, जावेद अख्.तर, जगजीत सिंह, फारूख़ शेख, डॉ॰अशोक चक्रधर और डॉ॰ कुँवर बेचैन के अलावा अन्य कई लोगों ने भी बहुत कुछ कहा है जो यकीनन सही है। मगर मैं यहाँ उनके कुछ शेर और कुछ क़तआत उद्धृत कर रहा हूँ जो इस शायर को मशहूरी ही नहीं मक़बूलियत भी देते हैं। डॉ॰ नवाज़ देवबंदी निःसन्देह वक्त की नब्ज़ को पकड़ने की कला
में माहिर शायर हैं। उनका एक शेर है—
जब बनाते हैं हम कोई तस्वीर / रंग भरते हैं आख़िरी हद तक।

एक और शेर उद्धृत करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ.—
उसी का माल तो बिकता है इस ज़माने में / जो अपने नीम के पत्तों को ज़ाफ़रान कहे।

कितनी तल्ख़ी और कितनी मासूम हक़ीक़त से मिलवाया है डॉ॰ नवाज़ ने। यही तो सचाई है। अगला शेर देखें, यह किस हक़ीक़त से कम है— मैंने हवा के शौक़ में खोली थीं खिड़कियाँ / सारी गली का शोर मेरे घर में आ गया।
कुछ और अशआर— ओ शहर जानेवाले ये बूढ़े शजर न बेच / मुमकिन है लौटना पड़े गाँव का घर न बेच।

इतनी हक़ीक़तों को बयाँ करते हुए डॉ॰ नवाज़ जब यह कहते हैं—
अगर मैंने तुझे चाहा न होता / तू अब जैसा है फिर वैसा न होता।

दिल के भीतर उतर जाने वाले शेर कितने गिनाऊँ? वक्त के पत्थर होते जाने का एहसास भी कितना भयावह है मगर वह भी कितनी मासूमियत से उन्होंने अपना डर व्यक्त किया है। यह तस्वीर आने वाले वक्त की नहीं बल्कि घर बना चुके वक्त की है—
नींद आती है सुनकर इन्हें अख्बार की ख़बरें /बच्चे मेरे परियों की कहानी नहीं सुनते।

आज के मौज़ूदा हालात में यह क़ता कितना मौजूँ है—
ज़मीन ख़तरे की है आसमान ख़तरे का / कि दोस्तों पे भी गुज़रा गुमान ख़तरे का
जो डूब जाता है अक्सर हमें बचाने में / बहुत बुलन्द है वो एक निशान ख़तरे का।

"पहली बारिश" से एक और क़ता और उसके बाद डॉ॰ नवाज़ की ग़ज़लों से कुछ बेहतरीन अशआर—
किसी साए किसी गुलज़ार के नीचे नहीं बैठा / मैं रस्ता छोड़ के मीनार के नीचे नहीं बैठा।
मेरे पैरों में छाले थे, बला की धूप थी, सर पर / मगर मैं ग़ैर की दीवार के नीचे नहीं बैठा।
यह बहुत बड़ी बात है। खुद्दारी के ऐसे पल ज़िन्दगी को मज़बूत आधार देते हैं।

डॉ॰ नवाज़ देवबंदी की ग़ज़लों में से कुछ मैं नीचे दे रहा हूँ मगर यह लोभ संवरण करने वाली बात ही होगी—
अगर मैंने कोई दुश्मन बनाया / तो अपने वास्ते दर्पण बनाया।
मेरे दुश्मन तो हैं मेरी कसौटी / इसी एहसास ने कुन्दन बनाया।
वो जिस दीवार के साए में बैठा / उसी दीवार को दुश्मन बनाया।
°°°

हरीफ़ों खूब उड़ाओ सरों पे ख़ाक अपने / मेरा चराग़ बुझाने को ये हवा कम है।
बिला सबब ही मियाँ तुम उदास रहते हो / तुम्हारे घर से तो मस्जिद का फासला कम है।
मैं अपने बच्चों की ख़ातिर ही जान दे देता / मगर ग़रीब की जाँ का मुआवज़ा कम है।

°°°
सच बोलने के तौर तरीक़े नहीं रहे / पत्थर बहुत हैं शहर में शीशे नहीं रहे।
वैसे तो हम वही हैं जो पहले थे दोस्तो / हालांकि जैसे पहले थे वैसे नहीं रहे।
ख़ुद मर गया था जिनको बचाने में पहले बाप / अबके फ्रसाद में वही बच्चे नहीं रहे।

डॉ॰ नवाज़ देवबंदी की यह पुस्तक देवनागरी लिपि को पढ़ने वालों और शायरी से मोहब्बत करने वालों के लिए निश्चित ही एक यादगार उपलब्धि है।

कृष्ण बिहारी
१६ मई २००३

 
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