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आज सिरहाने


लेखिका
रजनी गुप्त
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प्रकाशक
वाणी प्रकाशन,
२१–ए, दरियागंज,
नई दिल्ली–११० ००२
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पृष्ठ ३७०
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मूल्य ३५० रूपये
 

कहीं कुछ और (उपन्यास)

रजनी गुप्त इन दिनों कहानीकार और समीक्षक के रूप में पत्र–पत्रिकाओं में बराबर दिख रही हैं। बराबर लिख रही हैं। एक उठान है उनके लेखन में।मुझे हमेशा यह लगता है कि जो रचेगा, वही बचेगा। इस दृष्टि से रजनी गुप्त बराबर रचने में लगी हुई हैं।निरन्तरता लेखन के स्तर को प्राय : स्तरीयता ही देती है। बहुत लिखने से कोई बरबाद नहीं हुआ, हाँ, लिखना बंद करके या बहुत कम लिखकर बहुत–से रचनाकार गुमनामी में खो गए। ‘कहीं कुछ और’ लेखिका का पहला उपन्यास है। आज के यांत्रिक जीवन में जो बीमारी संक्रामकता की हदें पार करती हुई अधेड़ होने से पूर्व ही पति–पत्नियों को डंसने लगी है, वही इस उपन्यास की कथा है। आज के परिवेश को देखते हुए यह बेचैनी तो होने ही लगी है कि विवाह नामक संस्था का भविष्य बहुत तकलीफदेह है। अपने देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में।

प्रेम–विवाह के लिए जो तड़प होती है वह शायद प्रेम से भी ज़्यादा होती है। मनचाहे प्रेमी को पाने के लिए लोग किन हदों को पार नहीं करते। रचना, जो कि इस उपन्यास की नायिका है वह तो बुद्धिजीवी भी है। उसका प्रेम यदि समर्पण को प्राथमिकता देता है तो सम्पूर्ण समर्पण पाना भी चाहता है। वह एक व्यक्तित्व होना चाहती है। उसका अपना अलग वजूद भी है, यह बात उसके पूर्व—प्रेमी रजत और वर्तमान में पति को असहनीय लगती है।

उपन्यास में लेखिका ने जिस नज़रिये को सामने लाना चाहा है वह नया है। यही नयापन पाठक को बाँधे रखता है। उसे लगता है कि उसके साथ ही तो यह नरक भी जी रहा है। इस नरक को खाद–पानी उसके ही तिल–तिल सुलगते ज़िस्म और कतरा–कतरा जलते खून से मिल रहा है। अपने–अपने नरक और पीव की बहती बैतरणी में न जाने कितने पविार आकंठ डूबे हैं मगर जी रहे हैं। विडम्वना यह है कि यह जीवन उन्होंने बहुत उतावलेपन के साथ और सर्वश्रेष्ठ समझकर चुना। चुनाव ग़लत भी तो हो जाते हैं

एक समय का आतुर प्रेमी, अचानक या कि धीरे–धीरे ही सही स्त्रियों के खिलाफ विष–वमन में सीमाएं तोड़ने लगा है। रचना अपने पति में होते परिवर्तनों को न केवल ल्क्षित करती है बल्कि औरत होने के नाते हर हाल में घर को घर बनाए रखना चाहती है मगर उसके प्रयत्न...

उपन्यास पढ़कर देखिए। यह एक पठनीय कृति है। लेखिका का दूसरा उपन्यास भी प्रकाशन की दहलीज़ पर है। आगाज़ तो अच्छा है...

— कृष्ण बिहारी

 
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