चांदनी
हूं मैं (कहानी संग्रह)
चांदनी
हूं मैं अमरीक सिंह दीप का नया कहानी संग्रह है। इससे पहले
कहां जाएगा सिद्धार्थ", काला हांडी प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अलावा उनके पंजाबी से अनुवाद किए
गए तीन कहानीसंग्रह भी
प्रकाशित हुए हैं।
दीप
के इस नए कहानी संग्रह में अठारह प्रेमकहानियां हैं। प्रेम अठारह
बार ही नहीं उससे ज्यादा बार भी हो सकता है। इसमें संख्या कोई
महत्व नहीं रखती। इसका होना अर्थ रखता है।
दीप
की इन कहानियों में अगर ख़ासियत है तो ख़ामियां भी हैं।
ख़ासियत
यह है कि यदि इन कहानियों को एकएक करके एक अंतराल के बाद पढ़ा जाए
तो आलोचना के महर्षि आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में
साधारणीकरण जैसा आनंद आता है। लगता है कि हम ही इन
कहानियों के पात्र हैं। लेकिन अगर इन्हें एक साथ पढ़ लिया जाए तो
स्वाद बिगड़ जाता है। सबसे पहली बात जो स्वाद बिगाड़ती है वह यह
कि कई कहानियों के पात्र साहित्यकार हैं। इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी। प्रेम लेखकलेखिकाओं के अलावा और लोग भी करते हैं।
उनका प्रेम
रचनाकारों के प्रेम से कमज़ोर नहीं होता।
दूसरी
बात, दीप ने पत्नी के किरदार को बहुत छोटा बना दिया है। मैं मानता
हूं कि परकीया प्रेम ही ज्यादा पीड़ा देता हुआ दिखाई देता है लेकिन प्रेम
को केवल प्रेमिका के ही खाने में, उसके ही हिस्से में बांट देना
और उसको अपने अधिकारक्षेत्र में परोस देना ही नहीं, परोस लेना
भी कहीं से भी न तो समाजसंगत है और न न्यायसंगत . . . विवाहेतर संबंध आधुनिक समाज में मर्द और औरत के बहुत करीब आ
जाने का भी नतीज़ा है। एक ठहराव की वज़ह से ऊबे पतिपत्नी किसी की
ओर खिंच उठें और उससे यह शिकायत करें कि तुम मुझे पहले क्यों
नहीं मिले? अब नई बात नहीं रह गई। हालांकि, विवाहेतर
संबंधों का प्रेम भी सूखता है और जल्दी सूखता है। तब स्थिति और
भी हास्यास्पद और बदतर हो उठती है। उत्तर आधुनिक युग में और भी
बहुत कुछ हो रहा है जो पहले भी हुआ तो होगा मगर शायद परदों के
पीछे कई और परदों में।
जिस्म
चाहिए तो उसकी सीधी मांग करनी चाहिए। बेहया बनकर मांगना पड़े
तो भी। मैं मानता हूं कि ब्यूटी विथ द ब्रेन से भी मोहब्बत के
पीछे जिस्मानी ज़रूरत और भूख प्रमुख होती है। अशरीरी प्रेम पर मेरा यक़ीन नहीं है।
मैं इसपर
भी यक़ीन करता हूं कि विश्व सुन्दरी या ब्रह्माण्ड सुन्दरी के साथ दैहिक
स्तर पर जीनेवाले को भी उससे ऊब हो सकती है या एक सामान्य स्त्री भी
अपने हे जी से ऊब सकती है। मगर यह जो निभाते जाना है न
, बहुत बड़ी सज़ा है। मोहब्बत बहुत बड़ा ज़ज्बा है इससे इंकार
नहीं। किसी का साथ पाने की ललक कितना लालायित कर देती है इसे इन
पंक्तियों से जाना जा सकता है :
तुम्हारे साथ में कोई नयापन है तो वह यह है
बहुत तकलीफ देता है मगर छोड़ा नहीं जाता।
मगर छोड़ा क्यों नहीं जाता? जो अलभ्य जो दूर उसी को अधिक चाहता
मन है
मोहब्बत
में यही होता है। दीप की इन कहानियों की ख़ासियत ही यही है कि पढ़ते
हुए इन्हें छोड़ा नहीं जाता और ख़ामी यह है कि पढ़ने के बाद लगता है
कि पिछली कहानी में इसी कहानी को तो पढ़ा है।
समाज
में घटित को दिखाने से भी लेखकीय दायित्व पूरा होता है। दीप की
कहानियों में आज के अधेड़ मर्दों और औरतों की वह दुनिया है
जो वर्तमान में तनावग्रस्त सामाजिक और मानसिक हालातों में एक
सुकून की तलाश में है।
मगर
आशंका यह है कि एक सुकून के मिल जाने के बाद कई और तनाव तंग
करने लगें तो?
संजीव
ने कई वर्ष पहले कहीं लिखा था कि कहानी का भी फॉलो अप होना
चाहिए क्योंकि कहानी जहां ख़त्म होती है वहीं से दूसरी कहानी शुरू भी
हो जाती है। लेखक चूंकि पत्रकार नहीं होता अतः वह फॉलो अप की
जगह नई कहानी पर काम करने लगता है। दीप को तीर्थाटन के
फॉलो अप की ज़रूरत नहीं थी। एक ज़बरदस्त , मुकम्मल कहानी की कसावट
अपने में इतनी सघन थी कि वह दूसरे भाग की मांग से सर्वथा
परे थी।
बहरहाल,
अपने प्रेम को एक बार फिर, उसी शिद्दत से शब्दों में जीने के लिए
यदि आप में तड़प बाकी है तो चांदनी हूं मैं ज़रूर पढ़िए। संग्रह
की अठारह कहानियों में वही चांदनी तो बिखरी है जिसे समेटने की
कोशिश में इनसान के दोनों हाथ बेकार साबित हो रहे हैं और,
प्रेम है कि वह पारे के टुकड़ों की तरह छिटकछिटक जा रहा है।
कृष्ण बिहारी
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