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१२. ५. २०१४

इस सप्ताह-

1
अनुभूति में-
सौरभ पांडेय, अनिल मिश्रा, विनय कुमार, शशिकांत गीते तथा मनीष जैन की रचनाएँ।

- घर परिवार में

रसोईघर में- हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है- गर्मियों के मौसम में फलों का ताजापन समेटे कुछ ठंडे मीठे व्यंजनों के क्रम में- स्ट्राबेरी मिल्क शेक

गपशप के अंतर्गत- कहानियों-की-उपयोगिता-कभी-कम नहीं होती, यह-कला-है, हमारी-संस्कृति-का महत्वपूर्ण अंग भी है। जानें विस्तार से- सुनो कहानी...

जीवन शैली में- ऊर्जा से भरपूर जीवन शैली के लिये सही सोच आवश्यक है, इसलिये याद रखें-  सात बातें जिनके लिये झिझक नहीं होनी चाहिये

सप्ताह का विचार में- तृण से हल्की रूई होती है और रूई से भी हल्का याचक। हवा इस डर से उसको नहीं उड़ाती कि कहीं उससे भी कुछ न माँग ले। -चाणक्य

- रचना व मनोरंजन में

आज के दिन कि आज के दिन (१२ मई को) आध्यात्मिक विषयों के विद्वान जे. कृष्णमूर्ति, फिल्म निर्माता विजय भट्ट, चित्रकार सुकुमार बोस...

लोकप्रिय रचनाओं के अंतर्गत- उपन्यास अंश में- प्रमोद कुमार तिवारी के उपन्यास 'डर हमारी जेबों में' का एक अंश- चीजू का पाताल

वर्ग पहेली-१८४
गोपालकृष्ण-भट्ट
-आकुल और रश्मि-आशीष
के सहयोग से

सप्ताह का कार्टून-
कीर्तीश की कूची से

अपनी प्रतिक्रिया लिखें / पढ़ें

साहित्य एवं संस्कृति में-

समकालीन कहानियों में प्रस्तुत है भारत से शशिकांत सिंह शशि की कहानी- टोपियों वाला आदमी और बंदर

कथा वहीं से शुरू होती है। टोपियों वाला टोपियाँ बेचने जा रहा था। थक कर, पेड़ के नीचे सो गया। टोपियाँ लेकर बंदर पेड़ पर चढ़ गये। टोपियों वाले ने अपनी टोपी उतार कर उछाली तो बंदरों ने भी टोपियाँ चलाकर मारीं। इस प्रकार टोंपियों वाले को अपनी टोपियाँ मिल गईं। टोपियों वाला तो चला गया लेकिन जाते-जाते उसने बंदरों की ओर इशारा करके एक ऐसी बात कह दी जो उन्हें चुभ गई।
-"बंदर कहीं के। नकलची हो तुमलोग।"
बंदरो में विमर्श शुरू हो गया कि टोपियाँ क्यों वापस की गईं? बच्चे बंदरों ने लीडर बंदर से पूछा-
-"उस्ताद ! टोपियाँ वापस करके हमने अच्छा नहीं किया। हम पर नकलची होने का आरोप लग गया। यह कलंक कभी नहीं मिटेगा। आप तो अनुभवी हैं। आपको ज्ञात है कि आदमी किस प्रकार हमें बदनाम करने की मुहिम पर लगा रहता है। पहले ही उन लोगों ने उड़ा रखा है कि वे हमारे ही वंशज हैं। अब वक्त आ गया है कि हम आदमियों को मुँहतोड़ जवाब दें।"
लीडर मुस्कराया। उसने प्यार से... आगे-

*

महेशचंद्र द्विवेदी की व्यंग्य
अधिकार का असली मजा
*

रामचंद्र शर्मा का आलेख-
गौतम बुद्ध : क्रांतिदर्शी प्रवृत्तियाँ
*

योगेश पाण्डेय से जानें-
क्या आप फेसबुक के लती हो रहे हैं
*

पुनर्पाठ में- रोहित कुमार बोथरा
का आलेख- सा से सारंगी

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पिछले सप्ताह-


अभिरंजन कुमार का व्यंग्य-
शर्म शब्द अप्रासंगिक, शर्मिंदा होना गुनाह
*

अशोक उदयवाल की कलम से-
बड़ी तरावट वाली ककड़ी
*

कीर्ति शर्मा से रंगमंच में-
रंगभूमि पर रौशनी के हस्ताक्षर
*

पुनर्पाठ में- कलादीर्घा के अंतर्गत
चित्रकार मनसाराम से परिचय

*

साहित्य संगम में प्रस्तुत है गुररमीत कडियावली की पंजाबी कहानी का रूपांतर- संसारी

 ‘संसारी’ ज्योति ज्योत समा गया था। दिसम्बर की कड़ाके की सर्दी में सुबह लोगो ने उसके शरीर को सडक के किनारे देखा था। पल भर में ही यह खबर जंगल की आग की तरह कस्बे में और कस्बे से सटे हुए गावों में फैल गई थी।
अभी कल ही तो वह बड़े आराम से पेट पातशाह को रिश्वत देने के लिए सड़क के किनारे बैठ कर माँग रहा था। इसका अर्थ यह कदापि नहीं था कि वह पेशावर भिखारी था। पेशावर भिखारी तो आजकल सरकारी दफ्तरों, विधानसभाओं, और संसद में विराजमान हो गये हैं। वह तो जरुरत के अनुसार कभी कभी माँगता था। वह भी अन्य व्यापारियों, दुकानदारों और जुआरियों की तरह शहर का एक अंग था। रात में कहाँ चला जाता है, किसी ने ख्याल नहीं किया था। कई कई बार तो कई कई दिन गायब रहता था। उन दिनो में सबसे ज्यादा तकलीफ सट्टे वालों को होती थी। उनकी नजरें ‘संसारी’ को तलाशती रहती थीं, उनके चेहरे पर... आगे-

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"अभिव्यक्ति" व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है इस में प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है
यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।


प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

 
सहयोग : कल्पना रामानी -|- मीनाक्षी धन्वंतरि
 

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