इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
दिवाकर वर्मा, दिगंबर
नासवा, दिविक रमेश, कुँअर रवीन्द्र और विनोद कुमार की रचनाएँ। |
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साहित्य व संस्कृति में-
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1
समकालीन कहानियों में यू.के. से
कादंबरी मेहरा की कहानी-
जीटा जीत गया
सरकारी
स्कूलों में शिक्षा का स्तर मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में
बँटा हुआ था। उच्च श्रेणी में ' ओ ' लेवल (ऑर्डिनरी लेवल ),
मध्य में सी० एस ० ई० (सर्टिफिकेट ऑफ़ सेकेंडरी एजुकेशन) और
निम्न श्रेणी में रेमेडिअल यानि कमजोर जिन्हें सुधार की जरूरत
हो। मुझे तीसरे दर्जे के छात्रों से निपटना था। क्लासरूम क्या
था--- कबाडखाना! जितने शरारती, लफंगे, कम दिमाग छोकरे थे सब
जमा थे। न उन्होंने कभी पढाई की थी, न उन्हें पढ़ना था। मर्जी
से आते थे और मर्जी से उठ कर चले जाते थे। न समझ आये तो केवल
शोर मचा कर, समय काट कर चले जाते थे। इनको इम्तिहान तो देना
नहीं था। काम किया तो किया वरना परवाह नहीं। ऐसा नहीं था कि
उनमे कोई काबिलियत नहीं थी। अगर थी तो स्कूल के लिए नहीं थी।
फल तरकारी बेचने से लेकर जहाज पेंट करने तक, जमाने भर के धंधे
वह गिना देते थे। हट्टे कट्टे चौदह से सोलह साल के लडके--
अपने कामकाजी परिवारों की अर्थव्यवस्था की आवश्यक कड़ी।
पूरी कहानी पढ़ें...
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मनोहर पुरी का व्यंग्य
हो के मजबूर मुझे उसने उठाया होगा
*
कुमार रवीन्द्र के साथ पर्यटन
यात्रा एक कलातीर्थ की
*
शेर सिंह का संस्मरण
धारा के विपरीत
*
पुनर्पाठ में प्रेम जनमेजय का आलेख
व्यंग्य का सही दृष्टिकोण- हरिशंकर
परसाईं |
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पिछले
सप्ताह- |
1
संजीव सलिल की लघुकथा
निपूती भली थी
*
कैलाश बुधवार की चेतावनी
क्या हम नव-साम्राज्यवाद
के सामने घुटने टेक देंगे?
*
अजय ब्रह्मात्मज की कलम से
हिंदी फ़िल्मों में राष्ट्रीय भावना
*
पुनर्पाठ में सुनील मिश्र का आलेख
महेन्द्र कपूर : देशराग के अनूठे गायक
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समकालीन कहानियो में भारत से
नीलम राकेश की कहानी-
उनसे मिलना
महात्मा गाँधी के बजाये
क्रान्ति के बिगुल से हर दिल में स्वतंत्रता की ज्योति जल उठी
थी। एक अजब सा आलम था चारों ओर। कुछ कर गुजरने की तमन्ना हर
दिल में थी। क्या स्त्री क्या पुरुष हर एक के हृदय में
स्वतंत्रता की चिनगारी भड़क रही थी। हर इंसान बड़ी से बड़ी
कुर्बानी के लिये तैयार था।
यह बात सन १९४२ की है, इलाहाबाद में कर्फ्यू लगा दिया गया था।
परन्तु हमारे जोश और उत्साह में कोई कमी नहीं थी। हम
बीस-पच्चीस लोग एकत्र होकर सड़क पर निकल पड़ते और सूनी पड़ी सड़कें
हमारे बुलन्द नारों से गूँज उठतीं।
‘इंक्लाब...ज़िन्दाबाद...’
‘इंक्लाब...ज़िन्दाबाद...’
पुलिस तुरन्त हमारी ओर दौड़ती किन्तु उन्हें देखते ही हम
अगल-बगल की पतली गलियों में तितर-बितर हो जाते।
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