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दो पल

 

विदाई फिर एक बार
--अश्विन गाँधी

साल दो हज़ार, जुलाई महीने की दो तारीख, आज मैं फिर से एक बार मुंबई छोड़ रहा हूँ। इन दो महिनों में खासा तगड़ा हो गया। सब पतलूनें पेट को तकलीफ दे रही हैं। मैं यहाँ तंदुरुस्त लोगों को देख कर मज़ाक करता था, "वैसे तो हिंदुस्तान में पुरूष और स्त्री अभी भी समान नहीं पर इस तंदुरुस्ती के मामले में मैंने समानता देखी! " बहुत से लोगों को बाँके चलते हुए देखा । शायद स्थिर रहने के लिए, आगे के सामान का भार इंसान को थोड़ा पीछे झुका देता होगा। देखो! आज मेरी भी ऐसी ही हालत है !

पिछले दो दिनों में बहुत से संबंधी और दोस्त मिलने आए। टेलीफोन की घंटी भी बहुत बार बजी। मुझे सामान भी पैक करना था। मैं एक बैग के साथ आया, वापस लौटूँगा दो बैग के साथ। जब मैंने देखा कि किताबें, संगीत, उपहार, मिठाई और मसाला ले जाना है, तब दूसरे बैग की नौबत आ गई। घर में बहुत ही धमाचौकड़ी हो रही थी, फिर भी बीते हुए दो महीनों की याद आने लगी। मन एक दुनिया को छोड़ कर दूसरी दुनिया में जाने की तैयारी करने लगा।

मेरा समय अच्छा गुज़रा। यह यात्रा माता पिता, बहनों, संबंधियों और दोस्तों से मिलने के लिए थी। बहुत प्यार मिला मुझे। तकलीफ होते हुए भी मेरी मां ने रोज़ मुझे मेरी पसंद का खाना बना कर खिलाया। वह मुझे खिलाती रही और भाषण देती रही कि ज्यादा खाने वाले का शरीर बेडौल हो जाता है। पिताजी के साथ कई बार घूमने गया, जिन्दगी और दर्शन की बातें की। याद आ रहा है कि एक दिन पिताजी ने एक लेख मेरे सामने पढ़ा था जो अठारहवीं सदी के दार्शनिक सात्र के विचारों पर आधारित था। पिताजी ने विश्लेषण करते हुए बताया था कि 'पराश्रय' नर्क है। मतलब कि किसी भी चीज़ पर आधारित रहना पड़े तो वह सुख और स्वर्ग की प्राप्ति में बाधक होता है।

हिंदुस्तान की संस्कृति और यहाँ की रीति रस्में तो हर हिंदुस्तानी को जिंदगी और उसके मतलब के बारे में वैसे ही तत्व-ज्ञानी बनाती है। यह शहर की दौड़ धूप, यह पैसे के पीछे भागना, क्या किसी को तत्व-ज्ञान सोचने की फुरसत देता होगा? क्या तत्व-ज्ञान गरीब लोग ज्यादा सोचते होंगे? मैं तो खुशी से चकित रह गया था जब एक रिक्शे वाले ने बातों ही बातों में बताया , "यहाँ लोग दूसरों के सुख से दुखी होते हैं, अपने दुख से नहीं! "

यह दो हजार साल की मुंबई तो और भी भर-चक महसूस हुई। मुंबई का एक-एक भाग शहर जैसा दिखाई दिया। प्रगति देखी, और सुख सुविधा बढ़ाने वाले सामान भी देखे। हमेशा से हाज़िर गरीब और अमीर के बीच का फासला भी देखा। क्या यह फासला कभी कम हो सकेगा? बहुत सी नई ऊँची इमारतें देखीं, और यह भी सुना कि बहुत से कमरे खाली है। बहुत से लोगों को ऊँची इमारतों के बीच में कानून के खिलाफ बनी हुई झोपड़ियों में रहते हुए देखा।

मुंबई हमेशा से व्यापार का केंद्र रहा है, बस्ती हमेशा बढ़ती ही रही है और शहर की नगरपालिका कभी भी शहर के रहनेवालों को पूरी सुविधा नहीं दे पाई है। शायद यह नामुमकिन भी है । पानी की तंगी जो पचास साल पहले थी वह आज भी मौजूद है और शहर में सड़क के रास्ते सफ़र करना मुश्किल हो गया है। ऐसे ही एक सफर की बात याद आ गई।

"पिनाकिन, यह तो ट्रैफ़िक जाम हो गया। लगता है रास्ता चौड़ा करने का काम हो रहा है। क्या अभी भी वही पुराने तरीके इस्तेमाल हो रहे है? यह रास्ता कब से बन रहा है? देखो वहाँ ड्रम में कुछ रास्ता बनाने का सामान गरम हो रहा है, और मज़दूर लोग आजूबाजू बैठे हैं जैसे सर्दी के दिनों में ठंड दूर कर रहे हों !" पिनाकिन हँस दिया और बोला, "हाँ, लगता है यह सड़क बरसों से बन रही है। बहुत सी वजहें हैं उसकी। एक तो यह है कि नई मशीनें और नए तरीके आसानी से बरसों पुराने तरीक़ों से मिलाए नहीं जा सकते। बहुत से मज़दूर अनपढ़ है और नए तरीके नहीं सीख सकते। वैसे देखा जाय तो यह इनके लिए बेहतर है, खाने के लिए दो रोटी मिल जाती है और ये भगवान को दुआ देते हैं।
कोई भूखा न रहे यह बात मुझे पसंद आई। मैंने आगे पूछा , "और कौन सी वजह हो सकती है ?"
"जो भी काम शहर की नगरपालिका करती है उसके पैसे खत्म हो जाते हैं, और जब तक ज्यादा पैसे न मिलें तब तक काम अधूरा रहता है।"
"और पैसे कैसे खत्म हो जाते हैं ?" मैंने भले मानुस की तरह पूछा।
"यह यहाँ की रीत है। इस तरीके को हम अपनी जेब पहले भरो कह सकते हैं। इसमें ऊपर से नीचे तक जेबें भरी जाती हैं, और फिर असली काम के लिए पूरे पैसे नहीं बचते। मगर मैं यह कहूँगा कि यहाँ ऐसे इंसान भी है जिन्हें यह जेब भरना पसंद नहीं, और लाचारी महसूस करते हैं।"
"तो फिर पहले से इतने पैसे क्यों मंजूर नहीं करते जिस से जेब भी भरी जा सके और काम के लिए भी पूरे पैसे बच जाएँ।" मैंने सुझाया। जैसे कोई फरिश्ता मार्ग दिखा रहा हो।
"सुनो, बड़े भैया, आप को मालूम होगा कि पैसे का लालच कैसा है। बड़े पैसे से शुरूवात करो, जेब और भी भारी हो जाएगी।" मैं समझ गया और सोचा कि ज़्यादा बहस करना ठीक नहीं होगा।

मुझे मेरा कनाडा का गाँव याद आ गया। लम्बे ऊष्मा भरे गर्मी के दिन, और ठंडी सी शीतल रातें। पर्वत, सरोवर और झरने के साथ-साथ चलना। सोचा कि मुंबई में शांति से रहना एक चुनौती है। शायद मेरी गलती थी कि मैं मुंबई जैसे बड़े शहर की कनाडा के एक छोटे गांव के साथ तुलना कर रहा था। मेरी विचार धारा में रुकावट आ गई। पिताजी कुछ कह रहे थे।
"अश्विन , पांच साल के बजाय अगली बार तीन साल के अन्दर आना"
इतनी प्यार से भरी आवाज़ थी कि मैं तुरन्त बोल पड़ा, "जरूर, मैं अगले साल आऊँगा।"

 

15 अगस्त 2000`

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