हास्य व्यंग्य

बाम भोलेनाथ
नागार्जुन


कार्तिक पूर्णिमा को बीते तीन रोज हो गए थे। मैं किसी काम से सोनपुर उतरा था। मन में एक इच्छा उठी कि क्यों न चार घंटे बाबा हरिहरनाथ के इर्द-गिर्द चक्कर लगाया जाए। मेले के दिन थे। भीड़-भाड़, धक्कम-धुक्की के क्या कहने! मेला यद्यपि उतार पर था, तथापि लोगों की तादाद कम नहीं थी। पुल से कुछ इधर ही रेलवे बाँध के नीचे उतरा, सीधे शालिग्रामी की तरफ-दक्षिण पश्चिम दिशा में रुख किया। आगे बढ़ने पर, रास्ते से कुछ अलग एक भारी भीड़ दिखाई दी। झाँकने पर बम्भोला के दर्शन हुए। वह बीच की खाली जगह में घूम रहे थे। गति धीर और ललित ही थी...

यह बम्भोला और कोई नहीं, एक बैल थे। उनकी नकेल एक चंदन-तिलकधारी आदमी के हाथ में थी। वह आदमी नाना प्रकार के प्रश्न पूछता जा रहा था ओर भोलानाथ अपना भारी-सा माथा हिला-हिलाकर माकूल जवाब दे रहे थे। बैल क्या था, नाटे कद का एक अच्छा-खासा साँड था वह। किल्होर (ककुद) में से टंगरी निकल आई थी जो चिर रोगी बछड़े की सूखी टाँग-जैसी थी। गर्दन पर झूल, जिसमें हजारों कौड़ियाँ टंकी पड़ी थीं, बीच-बीच में अबरख के चमकीले टुकड़े भी। गले में पथरीली मोहनमाला। सींगों के बीच सतरंगी झालर। कपोलों पर लाल-काली-पीली रेखाएँ उरेही हुई।

बड़ा ही भव्य रूप था बम्भोले का।
अपने को रोकना मेरे लिए मुश्किल था। उस सर्वज्ञ में चमत्कार देखने के लिए आखिर मैं भी दर्शकों में शामिल हो ही गया।
"जय हो बम्भोला दानी ! केकरा उँगरी में चानी के अँगूठी वबा? दोहाई मालिक के, बताईं!"
शाबाशी और टिटकारी पाकर बम्भोला आहिस्ते से बढ़े और पूरब की ओर नीली धारियों वाले हॉफ-शर्ट पहने अधेड़ आदमी की बँधी मुट्ठी में अपनी नाक भिड़ा दी। सैकड़ों जोड़ी उत्सुक आँखें उस व्यक्ति के चेहरे की ओर लग गईं तो उसे मुट्ठी खोलनी ही पड़ी।
सचमुच चाँदी का छल्ला उसकी तर्जनी में था।
भीड़ में से उल्लास की ध्वनि उठी।

फिर तिलकधारी महाराज ने बम्भोले की पीठ थपथपाई, और पूछा, ‘‘सरकार! केहू बीड़ी पियऽ ताऽऽ, तनी देखाई!’’
बस क्या था, फिर पशुपतिनाथ बाएँ से दाएँ हुए और इधर आकर एक बुढ्ढे के पेट में हल्के-हल्के सींग छुआ दिया।
उसके हाथ में बीड़ी नहीं थी, मगर लोगों ने जब शंकित और दुहरी-तिहरी निगाहों से बुढ्ढे को देखा तो उसने कबूल किया, ‘‘जी, हमरा हाथ में हलइ एगो बीड़ी, बाकी भोला बाबा के डरे अबहिएँ बिग देलिअइ अऽऽ....’’
फिर उल्लास से लोगों की आँखें चमक उठीं।

तीसरी बार बम्भोला से पूछा गया, ‘‘केकरा पाकिट में फोल्टन पेन बा ?’’
अब तक उचकते-उचकते मैं भीड़ के आगे आ गया था और पाकिट मे यही पेन थी। देखा, मंद-मधुर गति से बाबा पशुपतिनाथ मेरी ही ओर बढ़े आ रहे हैं। थुथुन छुआ देंगे तो कुर्ते पर मुहर लग जाएगी, इसी डर से मैं पीछे हो गया।
लोगों को हँसी आ गई और साथ ही आवाज उठी, ‘‘धन्न हैं, धन्न हैं बाबा!’’

अपने नजदीक एक शहरू लड़के को पाया। उसकी मुट्ठी में इकन्नी गोजते हुए मैंने कहा, "मुट्ठी बंद कर लो और भीड़ के बाहर जाकर खड़े हो जाओ।’’
वह बाहर निकल चुका तो मैंने तिलकधारी पंडित से पूछा, ‘‘अच्छा महाराज, किसकी मुट्ठी में यहाँ इकन्नी है? बतलाएँ आपके ओढरदानी।’’
लेकिन आश्चर्य की बात है; भोलानाथ इस विकट परीक्षा में भी उत्तीर्ण रहे। हुआ यह कि मेरा प्रश्न सुनकर और सेवक की टिटकारी पाकर बाबा ने सींगों के इशारे से बाहर निकलने की इच्छा व्यक्त की। सामने वालों ने रास्ता छोड़ दिया। भीड़ से बाहर आकर उन्होंने लड़के को ढूँढ लिया, उसकी हाफ पैंट सूँघने लगे। लड़का निर्विकार और गंभीर बना रहा, भोलानाथ भी खड़े रहे। छोकरे ने इकन्नी पॉकिट में नीचे डाल ली थी।

तिलकधारी सेवक ने सामने आकर पूछा, ‘‘सांचहू सरकार! पहचानल जाता? इहे इकन्नी रखले बाड़न?’’
पशुपतिनाथ ने फिर लड़के की हॉफ पैंट से नाक भिड़ा दी। अब छोकरा भभाकर हँस पड़ा।
लोग तो आश्चर्य में डूब गए।

उत्तर की तरफ छोटा-सा चबूतरा था, उस पर पीली-पीली भारी-भारी जटाओं वाले एक साधू महाराज धूनी रमाए हुए थे। जरा हटकर मेहतर बैठा था।
अबकी पंडित ने अपने मालिक से पूछा, ‘‘बतावल जाए सरकार, केकर काम सबसे जब्बुर बा?’’
मैंने सोचा, सधुआई तो एक अच्छी-खासी तपस्या है। इससे भारी काम भला और क्या होगा? शायद इन्हीं बाबाजी की तरफ भोलानाथ का संकेत होगा।
परंतु ऐसा हुआ नहीं। हुआ यह कि बम्भोला आहिस्ते-आहिस्ते मेहतर के निकट पहुँचे। कूड़ा वाला कनस्तर से अपनी नाक वह सटाने वाले ही थे कि सेवक ने इधर नकेल खींच ली, ‘‘हो गइल मालिक, हो गइल, जान गइलीं!’’

आधा घंटा से भी ज्यादा समय गुजरा होगा। मुझे और बहुत सारी जगह देखनी थीं। दुअन्नी दक्षिणा देकर मैं खिसक आना चाहता थ। लेकिन बाबा के सेवक ने एक नया ही पैंतरा पकड़ा।
पीठ थपथपाकर उसने भोलानाथ से पूछा, ‘‘बताइए त मालिक ! यहाँ कौन बाबू हैं जो आपको एगो रुपैया देना चाहते हैं?’’
माथा ठनका। मेरी पाकिट में एक रुपये का खुला नोट अलग पड़ा था.....
पशुपतिनाथ मेरे सामने हाजिर थे।
चबन्नी देकर आखिर मैंने जान छुड़ाई और सृष्टि के इस अनोखे चमत्कार को नमस्कार किया।

 २४ फरवरी २०१४