हास्य व्यंग्य

विश्वस्त हैं विश्वासघाती
अरविन्द मिश्र


यह भी क्या जरूरी है कि जीवन भर किसी का विश्वासपात्र बनकर रहा जाए। इसमें कोई जोर-जबरदस्ती की बात नहीं है, सब राजी-खुशी का सौदा है। जब तक चल जाए तब तक ही चलाइये। जन्म से मरण तक विश्वास का पालन-पोषण करता रहेगा तो सामने वाले के बाजे बज जाएँगे। हमने यह भी नहीं कहा कि आप एकदम से अविश्वासी हो जाएँ। इसका निर्वाचन स्वयं करें। जमाना उतना अच्छा है भी नहीं जितना पहले हमारे जमाने में था। किसी के बीच में न पड़ो तो उत्तम है। पता नहीं कब कौन आपकी विश्वसनीयता पर अँगुली उठाने लगे ? विश्वास जैसी सूक्ष्म चीज न तो सब दूर पाई जाती है और न ही हर किसी को दृष्टिगोचर होती है। चूँकि विश्वास का भी बहुत मान होता है इस कारण से उसे मानना पड़ता है। यदि मानने के लिए गणितीय पद्धति का सहारा लेंगे तो अवश्यकर मानना पड़ेगा कि मूलधन सौ है, चाहे वह दस ही क्यों न हो। यदि सिद्ध नहीं कर पाए तो कोई नहीं मानेगा।

बे-एतबारी से प्रत्येक कार्य सफल नहीं होता इसलिए ‘मान परेखा’ करना पड़ता है। भरोसेमंद वस्तुओं पर ‘आई एस आई’ लिखा होता है। इससे उन चीजों की गुणवत्ता निर्धारित हो जाती है। जब से बाजार में मिलावट का बोलबाला हुआ है तब से असली-नकली पदार्थों की पहचान एक कठिन समस्या बन गई है। उत्पादक डुप्लीकेट माल को ओरिजनल से कहीं बेहतर बनाने का प्रयास करते हैं। ऐसे में ग्राहक की क्या हस्ती जो कार्बन कापी को मूल प्रति न समझे ? अखबार के संपादकों जैसे लैंस उपभोक्ताओं के पास नहीं होते। आम क्रेता को सेकिंड का सामान भी अप्रतिम नजराता है। दुकानदार अपने खरीदार को घटिया वस्तुओं के गुणों का इतनी संजीदगी के साथ बखान करता है कि वह उसे क्रय करने को मजबूर हो जाता है। वह बचकर जाएगा तो कहाँ जाएगा। सब एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं। कार्य कुशलता भी यही है कि अविश्वास की सड़ी मूँगफली को चाश्नी में ऐसा पागकर पेश किया जाए जिससे कि वह उत्कृष्ट किस्म की मूँगफली के साथ खप जाए।

सारे प्रतिष्ठानों में सामान्यतः ‘योर्स फेथफुली’ लिखकर चिट्ठियों को आगे बढ़ाया जाता है। कौन जाने वह सब नीचे के कर्मचारी कितने विश्वासपात्र हैं जो इस शब्द के इस्तेमाल के बावजूद काला-पीला करने से बाज नहीं आते। मैंने कभी किसी को आपका विश्वासपात्र लिखते नहीं देखा। स्थानांतरण संबंधी निन्यानवे फीसदी आवेदनों में फर्जी दलीलों पर सच्चाई का मुलम्मा चढ़ाकर पेश किया जाता है। ऐसी दरखास्तों में स्वस्थ माता-पिता अस्वस्थ होते हैं, वे वृद्ध एवं चलने-फिरने में लाचार रहते हैं, उन्हें कम दिखाई देता है, घर की देखभाल के लिए अन्य कोई सदस्य नहीं होता। आवेदनकर्ता ही परिवार में बड़ा हुआ करता है। पत्नी निरंतर बीमार रहती है, इत्यादि ढेरों एतबार करने योग्य समस्याएँ दर्शाई गई होती हैं। शासकीय कर्मचारी अवकाश के उपभोग हेतु कभी भी बीमार पड़ जाता है। बढ़ाई गई छुट्टियों का एकमात्र आधार स्वयं की बीमारी होता है। चूँकि यह सब लिखकर प्रस्तुत किया जाता है इसलिए अविश्वास करने की कोई गुंजाइश नहीं रहती। अधिकांश मुलाजिमों का विवाह चिकित्सीय अवकाश लेकर संपन्न होता है।

बाकायदा डॉक्टर द्वारा ‘कम्पलीट बेड रेस्ट’ की सलाह दी जाती है। ठीक इसी तरह प्रमाण-पत्र के आधार पर पलंग पर पड़े-पड़े लोग लंबी-लंबी तीर्थयात्राएँ कर लेते हैं। भगोड़ा प्रवृत्ति के सेवकगण माताश्री की तबियत ठीक न रहने से बहुत परेशान रहते हैं। इन्हें टेलीग्राम पाते ही घर जाना पड़ता है। सेवाभाव स्वीकारने से घर-बाहर एक-सी स्थितियों से गुजरना पड़ता है। इनके सेवापन पर संस्थाओं को गर्व होना चाहिए। छुट्टी लेना वैसे भी सेवाजन का अधिकार है किंतु ऊपर के अधिकारियों को कौन समझाए ? उन्हें तो हर किसी पर संदेह करने की आदत हो जाती है।

हमारे बुजुर्गवारों का कथन है कि विश्वास से ही दुनिया चल रही है। मैं यह सोचकर चिंतित हो उठता हूँ कि अगर ऐतबार नहीं होता तो संसार कैसे चलता, सबको यकीं रहता है कि हमारा देश तरक्की करेगा। यकीनन कहीं कोई गड़बड़ी जरूर हो जाती है जिससे कोई देश आगे नहीं बढ़ पाता। उसका फेथ कहीं से क्रेक हो जाता है। फेथ की प्लास्टरिंग बहुत मँहगा रोग है। इससे बचना चाहिए। बच्चे पढ़ने के लिए सजा-सँवारकर स्कूल भेजे जाते हैं। वे माँ-बाप के विश्वास की रक्षा करते हुए सिनेमाघर होकर घर लौट आते हैं। शिक्षकगण पालकों के भरोसा हेतु कक्षा में भरपूर चुटकला छोड़ना कभी नहीं भूलते। बहुतेरे श्रेष्ठ जनप्रतिनिधि जनता की भावनाओं की कद्र करते हुए वर्षों अपने क्षेत्र में नहीं घुसते। वे जानते हैं कि राजा को राजधानी में ही रहना चाहिए। आवाम की इच्छाएँ तो वैसे भी दीर्घावधि के लिए सीलबंद हो चुकती हैं ‘अपना भात जब पराए मंडप’ में खाने का शौक पालोगे तो मँडवा वाले का कुछ तो रौब रहेगा। सब जगह विश्वास साथ देता तो रामबोला क्यों लिखता-
‘पराधीन सपनेहु सुख नाहिं।’
लेकिन स्वाधीन होने पर चंद लोग सुख की परिभाषा जानते हैं शेष लोगों के खाते में विलोमवाची जमा है। वे स्वतंत्रतापूर्वक उसका उपयोग कर सकते हैं।

सभी के सुख भोगने से सुख की हैसियत का पता नहीं लगता। औरों के विश्वास का पालन करना ही तो आम नागरिक का कर्तव्य है इसी के लिए उसे नागरिकता का अलंकरण दिया जाता है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त मानव की सार्वभौम नागरिकताओं को खण्ड-खण्ड करके हम अखण्ड राष्ट्र के विश्वास को सींचते रहते हैं। इस जीवन की उपयोगिता भी अब क्या रह गई है ‘क्या भरोसा, काँच का घट है, किस दिन फूट जाए...।’ इसलिए एक झूठ को सौ बार नकारिए, सौ टंच का भरोसेमंद सच तैयार हो जाएगा। आप विश्वास कीजिए मैं कभी कोई गलत बात नहीं लिखता अतः पूरा बाँचकर सहयोग बनाए रखिए। अच्छे पाठकों को इतने विश्वास की रक्षा अवश्य करना चाहिए। शेष शुभ, आपका..।

१९ अगस्त २०१३