हास्य व्यंग्य

सखेद सधन्यवाद
आनंद पाठक


इधर कुछ दिनों से जब मेरी रचनाएँ ’सखेद सधन्यवाद’ वापस आने लगीं तो मुझे हिन्दी की ’दशा’ व ’दिशा’ दोनों की चिन्ता होने लगी। अब यह देश नहीं चलेगा। रोक देंगे हिन्दी के विकास रथ को ये सम्पादक गण। ले डूबेंगे हिन्दी को ये सब। जितने उत्साह और तत्परता से मैं अपनी रचना प्रकाशनार्थ भेजता था उसके दूने उत्साह से ये सम्पादक गण उसे ’सखेद सधन्यवाद’ कर देते थे। कहते हैं कुछ युवा सम्पादक तो अपनी प्रेमिका के प्रणय पत्र भी ’सखेद सधन्यवाद’ कर देते हैं और प्रौढ़ सम्पादक की प्रौढ़ पत्नियाँ तो ’सखेद सधन्यवाद’ मायके में ही पड़ी पड़ी अपने कर्म का रोना रोती रहती हैं।

वैसे रचनाएँ तो बहुतों की लौटती हैं मगर लोग स्पष्टत: प्रगट नहीं करते। यदि किसी ने पूछ लिया तो कहते हैं -’भईये ! मैं छपास में विश्वास नहीं करता, मैं तो बाबा तुलसी दास की तरह ’स्वान्त: सुखाय बहुजन हिताय’ लिखता हूँ। यदि मेरी रचना से इस असार संसार का एक भी प्राणी प्रभावित हो जाय तो अपनी रचना की सार्थकता समझूँगा। यही मेरा पुरस्कार है यही मेरा सुख।’ यह बात अन्य है कि यह हितकारी कार्य अब तक नहीं हुआ है। पत्रिका कार्यालयों के चक्कर तो हम सम्पादकों की आरती उतारने जाते हैं। अगर भूले-भटके ’फ़िलर मैटिरीयल’ के तौर पर यदा-कदा कोई रचना छप भी गई तो अति श्रद्धाविनत हो कहते हैं-’क्या करें। यह पत्रिका वाले मानते ही नहीं थे, बहुत आग्रह किया तो देना ही पड़ा।

फिर रचना की छपी प्रतियाँ बन्दरिया की तरह सीने से चिपकाए, गोष्ठी गोष्ठी घूमते रहते हैं। मैं उन लोगों में से नहीं हूँ। ’स्वीकारोक्ति’ में विश्वास करता हूँ। जब कोई रचना वापस आ जाती है तो भगवान से अविलम्ब प्रार्थना करता हूँ- ’हे भगवान ! दया निधान ! इन सम्पादकों को क्षमा कर। इन्हें यह नहीं मालूम कि ये क्या कर रहे हैं और हमें यह नहीं मालूम कि हम क्या लिख रहे हैं।

सत्य तो यह है कि मेरी कोई रचना आज तक छपी ही नहीं। ’सखेद सधन्यवाद’ की इतनी पर्चियाँ एकत्र हो गई हैं मेरे पास कि इण्डिया गेट पर बैठ कर आराम से झाल-मूड़ी बेच सकता हूँ। वैसे भी बहुत से लेखक यही करते हैं ज़रा बड़े स्तर पर। अपने अपने स्तर का प्रश्न है।
"मिश्रा ! अब यह देश नहीं चलेगा, हिन्दी भी नहीं चलेगी"- मैंने लौटी हुई समस्त रचनाओं की पीड़ा समग्र रूप में उड़ेल दी।“
"क्या फिर कोई तुम्हारी ’अमर रचना’ वापस लौट आई"?
"तुम्हें कैसे ज्ञात हुआ?’- मैंने आश्चर्य चकित होकर पूछा
“विगत पाँच-वर्षों से तुम यही रोना रो रहे हो। सच तो यह है बन्धु ! भारतेन्दु काल से लेकर इन्दु काल (कवि या कवयित्री यदि कोई हों) तक यह हिन्दी ऐसी ही चल रही है। सतत सलिला है, पावन है। सतत प्रवाहिनी गंगा है कैसे मर सकती है?’
मिश्रा जी अपने इस डायलाग पर संवेदनशील और भावुक हो जाया करते हैं और हिन्दी प्रेम के प्रति आँसू के दो-चार बूँद छलछला दिया करते हैं।
"परन्तु गंगा में प्रदूषण फैल तो रहा है न !”- मैंने समझाना चाहा
“ज़्यादा कचरा तो यह बनारस वाले डालते हैं।“- उन्होने मेरी तरफ़ एक व्यंग्य व कुटिल मुस्कान डालते हुए कहा।
“और इलाहाबाद वाले क्या कम प्रदूषित करते हैं?" मैंने भी समान स्तर के व्यंग्यबोध से उत्तर दिया।
’देखिए जनाब! मैं कहे देता हूँ, मेरे शहर को गाली मत दीजिये।"
’तो आप ने मेरे शहर की कौन सी आरती उतारी है?’
’आप ने इलाहाबाद को पढ़ा है? बिना पढ़े आप कैसे कह सकते हैं कि कचरा इलाहाबाद वाले डालते हैं?
"क्यों नहीं कह सकता? जिस ज्ञान से आप यह बनारस वालों को कह सकते हैं।“
"तुम्हारी इसी संकीर्ण मानसिकता से तुम्हारी रचना वापस आ जाती है। अरे मैं तो कहता हूँ कि वो सम्पादक भले हैं कि ऐसा कचरा लौटा देते हैं वरना तो तुम्हारा लेखन तो लौटाने योग्य भी नहीं है।“
मैं हिटलर की तरह फुँफकारने वाला ही था, फेफड़े में श्वास भरने ही वाला था कि मिश्रा ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया। वही सखेद सधन्यवाद वाली नस। मैं हिटलर से बुद्ध बन गया। कहा- "मिश्रा ! हिन्दी का भट्टा कचरे से नहीं बैठता। बैठता है हमारी तुम्हारी लड़ाई से” -मिश्रा जी ठण्डे पड़ गए। हिन्दी के साहित्यकार थे।

"मगर मिश्रा! इसमें तो हमें सम्पादकों का कोई बड़ा षड़यन्त्र लगता है। विदेशी मीडिया का भी हाथ हो सकता है। हो सकता है कि किसी पड़ोसी देश की राजनीतिक साजिश हो कि हिन्दी को पनपने ही न दो और आनन्द पाठक की सारी रचनाएँ सखेद सधन्यवाद वापस करते रहो। हमें इस के विरुद्ध एक सशक्त आन्दोलन चलाना चाहिए। एक बड़ा संघर्ष छेड़ना चाहिए। एक क्रान्ति करनी होगी।"
’मगर हिन्दी में तो संघर्ष खेमे से चलता है। बड़े संघर्ष के लिए बड़ा खेमा। बारह खंभे -चौसठ खूँटा।
’अरे! है न ! जुम्मन मियाँ से कह कर एक बड़ा खेमा लगवा देंगे।“
"और योद्धा?"
"है न! हम तुम और वो।"
"वो कौन?-मिश्रा ने सशंकित दृष्टि से देखा
"वो, अरे वो नुक्कड़ का पाण्डेय पान वाला। जब तक पान लगाता है मेरी कविता बड़े चाव से सुनता है। और जानते हो? असली योद्धा तो दो-चार ही होते हैं अन्य तो बस ’कमेन्ट्री पास करते हैं-मैंने मिश्रा जी की जिज्ञासा शान्त की।

आन्दोलन छेड़ने के लिए मैंने मानसिक धरातल तैयार कर लिया। कुछ अग्नि-शिखा से शब्द, कुछ विष सिक्त वाक्य रट लिया। आन्दोलन का प्रारम्भ स्थानीय स्तर से हो तो उत्तम। दुर्वासा बन कर एक स्थानीय सम्पादक के कार्यालय में घुस गया और फुँफकारते हुए कहा-
"आप लोगो ने सत्यानाश कर दिया है हिन्दी का"
"आप जैसे कितने कुकुरमुत्ते उग आए हैं आजकल ’-उक्त सम्पादक भी दूसरा दुर्वासा निकला।
"देखिए आप कुत्तों को गाली मत दीजिए।"-मैंने कुत्तों के प्रति समर्थन जताते हुए कहा
"क्यों न दूँ? यहाँ जो भी आता है अपने को प्रेमचन्द बताता है। चैन से सोने भी नहीं देते उस महान आत्मा को।“
"आप ने मेरी रचनाएँ पढ़ी हैं?"
"पढ़ी हैं! अरे, मैं पूछता हूँ कि हिन्दी में ’वात्स्यायन (कामसूत्र वाले) से आगे भी कुछ लिखा गया है कि नहीं?"
"जब तक आप अतीत से जुड़ेंगे नहीं...जब तक आप ’काम’ से जुड़ेंगे नहीं...इससे पूर्व कि मैं अपनी बातें खत्म करता, दो लोगो ने मुझे सशरीर उठा ’सखेद सधन्यवाद’ कर दिया।

अगले दिन मिश्रा जी सुबह सुबह आ गए।
’मिश्रा ! जानते हो? कल मैं एक सम्पादक से मिला था। खूब खरी खोटी सुनाई। और मैंने कहा कि आप लोगों ने हिन्दी का सत्यानाश कर रखा है।
"अच्छा? -मिश्रा जी उत्सुक हो सुनने लगे- “तो क्या कहा उसने?”
“यही तो रोना है। कहा तो उसने कुछ नहीं, सखेद सधन्यवाद वापस कर दिया अपने कक्ष से।“

अभी युद्ध वर्णन चल ही रहा था कि डाकिए ने आकर एक लिफ़ाफ़ा थमाया। खोला तो देखा, रचना प्राप्ति व प्रकाशन स्वीकृति पत्र था। मैं मन ही मन नतमस्तक हुआ उस सम्पादक के प्रति। उसके हिन्दी प्रेम के प्रति। अरे क्या हुआ जो उसकी पत्रिका वर्ष में एक बार छपती है। छपती तो है। ग्रामीण पृष्ठभूमि की, गाँव की सोंधी मिट्टी से जुड़ी जहाँ भारत की आत्मा आज भी बसती है।
"देखा मिश्रा! मैं कहता था न, अभी भी कुछ सुधि सम्पादक गण हैं।
"और वो खेमा? वह आन्दोलन?"
"छोड़ो यार! बाद में देखेंगे। अभी मुझे अगली रचना भेजनी है।"

और मैं अपनी कलम में स्याही भरने लगा।

२९ अप्रैल २०१३