हद हो गई आज तो, दूध के लिये
हाय-तौबा मचाते हुए जब पिंटू कमरे में दाखिल हुआ तो मैंने उसे पुचकारते हुए कहा,
“बेटा आजकल मँहगाई आसमान छू रही है, मँहगाई के इस जमाने में दूध नहीं मिलता बेटे,
पानी पीकर काम चला ले। मैं अभी देखता हूँ कहीं दूध मिले तो ले आऊँगा।” मेरे वाक्य
समाप्त करने से पूर्व ही मेरी प्यारी पत्नी जी बोलीं, “क्या खाक दूध ला दोगे! जेब
में अधेला तो है नहीं, चले हैं दूध लेने। मेरे माँ बाप ने भी मुझसे न जाने कौन से
जन्म की दुश्मनी निभाई कि मुझे एक कवि के पल्ले बाँध दिया। मेरे ही करम फूटे हैं तो
दुनिया का क्या दोष।”
“जब देखो तब भाषण, काम धाम कुछ नहीं करना, दूध नहीं तो पानी पियो, सब्जी नहीं तो
घास खाओ, कपड़ा नहीं तो टाट पहनो। अरे भाषण से कहीं पेट भरता है? घर में भूँजी भाँग
भी नहीं, खाने को क्या बनेगा इसकी चिन्ता नहीं है और जनाब लिख रहें हैं कविता,
‘कविता तो बस केवल कविता’ "धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का।” अचानक पिंटू को अपनी
तरफ खींचकर वे कड़कीं “चल रे इधर, जब जानता है कि तेरा बाप कवि है तो कुछ न
माँगाकर।” और कड़क–बिजली की तरह दो तमाचों का गोला पिंटू के नर्म–नर्म गालों पर
छोड़ दिया।
“कवि का मतलब निठल्ला होता है, और कुछ नहीं”– वे मेरी तरफ हाथ नचाकर बोलीं।
मुझे वो घड़ी याद आ गई जिस मनहूस घड़ी में इसका बाप मेरे यहाँ रिश्ता लेकर आया था।
उस दिन मुझे पहली बार यह एहसास हुआ कि कवि होना एक अवगुण है। ‘अतिथि देवो भव’ की
औपचारिकता के पश्चात मेरे पूज्य पिताजी ने मेरा ‘बायोडाटा’ कुछ इस प्रकार दिया–
“मेरा बेटा वैसे तो बहुत ज़हीन है, कक्षा एक से लेकर बारहवीं तक प्रथम श्रेणी में
उत्तीर्ण हुआ है। डिप्लोमा भी उसने विद–आनर्स पास किया है और अब इंजीनियरिंग का
छात्र है। स्वभाव से भी एकदम हीरा है।” कहकर वे रुके, एक लंबी साँस ली और बोले- “पर
….” फिर थोड़ा रुककर बोले- “पर कवि है”। इसपर मेरे भावी ससुर जी ने सांत्वना भरे
शब्दों में कहा- “कोई बात नहीं अब इस जमाने में पूरी तरह परफेक्ट लड़का कहाँ मिलता
है। कुछ न कुछ फाल्ट तो…….”
उस दिन कवि होने के गर्व से तनी मेरी गर्दन किसी पाकेट मारते हुये पकड़े गये
पाकेटमार की गर्दन की भाँति झुकी तो आज तक नहीं उठ सकी क्योंकि मेरे वही भावी ससुर
जी, मेरे वर्तमान ससुर जी हो गये और उनकी सुकुमारी लम्बी–चौड़ी सुपुत्री जी, मेरी
माँ….. सारी, धर्मपत्नी बन गईं। तब से वे मुझे मेरे कवि होने का एहसास लगातार करा
रही हैं। रोज मुझे मेरी औकात दिखा रही हैं और मैं सबकुछ सिर झुकाये सुन रहा हूँ,
क्योंकि मैं एक कवि जो हूँ।
वैसे तो एक ‘इंजीनियर’ लड़के की कीमत आज के ‘दूल्हा-सेल्स रेटिंग’में दस–बारह लाख
से कम नहीं है, किन्तु मुझमें एक अवगुण था कि मैं कवि था, जिसका खामियाजा मुझे
भुगतना पड़ा। अपने अन्य नौजवान क्वाँरे साथियों की तरह मैं भी लाखों के दहेज का
सपना देखता था मगर जब मेरे अमीर ससुर ने अपने ‘बुल्डोजर’ को मात्र मेरी ही दी हुई
साड़ी में विदा कर दिया तो मेरा वह सपना भी टूट गया। उस दिन मैं अपने कवि होने पर
कितना पछताया था, आपको कैसे बताऊँ।
आप सबको मेरी एक सलाह है कि अगर आप बेटियों के बाप हैं और दहेज नहीं दे पा रहें हैं
या फिर देने का इरादा ही नहीं है, तो कोई ऐसा लड़का ढूँढ़िये जो इंजीनियर कवि,
डाक्टर कवि अथवा अन्य कोई भी कवि हो। मुफ्त में शादी हो जायेगी। ऐसे लड़के मैं
चुटकियों में पेश कर सकता हूँ। इस शुभ कार्य के मुझसे सम्पर्क करें, हाँ कुछ
मेहनताना, चाय–पानी या गिफ्ट जैसा कुछ, आपको मुझे देना होगा – भई अब ४० रूपये किलो
प्याज, १५ रूपये किलो आलू और ८० रूपये लीटर पेट्रोल सिर्फ ईमानदारी के पैसों से तो
खरीदे नहीं जा सकते…., इसके लिये कुछ ऊपरी आमदनी तो होनी ही चाहिये। हम क्या सभी
लेते हैं, आप भी लेते ही होंगे, फिर देने में कैसा संकोच। देश के मंत्री राजा तक इस
लेन–देन की प्रथा में यकीन रखते हैं तो हम आप क्यों नहीं। आशा है आप मेरे इस
‘प्रपोजल’ पर गौर अवश्य फरमायेंगे।
एक दिन मैंने सुना- पिताजी अपने किसी मित्र से कह रहे थे कि मेरे दो लड़के तो बहुत
अच्छे हैं। एक आफिस क्लर्क है और अच्छा खासा कमा लेता है। दूसरा एक बड़े साहब का
चपरासी है वो भी मतलब भर का कमा ही लेता है किन्तु एक लड़का, है तो इंजीनियर, मगर
कवि है। कविता उसे बर्बाद करके ही छोड़ेगी। भगवान किसी को भी ऐसा कपूत न दे। कविता
से भला किसका भला हुआ है। भारतेन्दु इसके पीछे राजा से फकीर हो गये। निराला जन्म भर
फटीचर रहे और प्रेमचन्द कलम घिसते-घिसते घिस गये। वे लोग तो भला कुछ नाम ही कर गये
पर आज के जमाने में कवि होना…कौन पूछेगा।
मैं और ज्यादा नहीं सुन सका। मैने मन ही मन उस घड़ी को खूब कोसा जब १६ वर्ष की उम्र
में मैं एक बड़े कवि–सम्मेलन में जबरन अपनी कवितायें सुना आया था। तब वहाँ उपस्थित
एक अति प्रसिद्ध वरिष्ठ कवि ने मुझे मालायें पहनाकर आशीर्वाद दिया था कि तुम एक
महाकवि बनोगे। अब तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि उन कवियों ने मेरा सम्मान इसलिये
किया होगा कि चलो, एक और फँसा। अब तो मैं ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि वह
किसी को कवि न बनाये। मनुष्य भ्रष्टाचारी हो, व्यभिचारी हो, कुछ भी हो पर कवि न
हो…।
मैंने पत्नी जी का मिज़ाज ठीक करने के लिये उन्हें मनाना शुरू किया., “देखो मैंने
तुम्हारे लिये ये कविता लिखी है..”
“रहने भी दो, मुझे कविता नहीं बच्चों के लिये खाना चाहिए”
मैंने कहा, “सुनो तो…….”
"कोई शायर न लिख सका जो, वो अशआर हो तुम।
अनछुये चश्म के पानी सी पाक, प्यार हो तुम।"
यह शेर सुनकर वे कुछ पिघलीं। एक फीकी सी मुस्कान होठों पर लाकर बोलीं
“नहीं…”
‘आयल की जगह, वाटर से तड़का लगाइये।
सब्जियाँ महँगी हो गई हैं, घास खाइये।'
हम दोनों मुस्कराये, मगर नामुराद आँख से आँसू टपक ही पड़े। पुन: सहज होते हुये वे
बोलीं– “कविता लिखो तो ऐसी जिसमें सारी दुनिया का दर्द हो, गरीब की भूख हो, प्यासे
की प्यास हो, वरना लिखना ही छोड़ दो।” मेरे सामने संपन्नता में भी बड़े–बड़े गबन
कराती राक्षसी वृत्ति और इस भूख में भी सजग देवत्व दोनों कौंध गये..।
मेरा छोटा बेटा मुझे एकटक निहार रहा था। |