इधर हम बड़े आदमी बनने की कोशिश
में हैं। हर महान व्यक्ति कभी-कभी छोटों की सुविधा के लिए अपनी जिंदगी का सार्वजनिक
लेखा-जोखा करता है। हमने भी मुड़कर देखा और पाया कि अपना बचपन खासा घटना-रहित रहा
है। सब स्कूल जाते हैं, हम भी गये। सिर्फ इस फर्क के साथ कि हम हफ्ते में तीन-चार
बार बैंच पर खड़े हुए, एक-दो बार संटी-सुख भोगा और तकरीबन रोज बिना नागा अपने कान
उमेठे गये।
इसी का सुखद नतीजा है कि कान के कच्चे लोगों की भरमार में अपने कान पके और भरे-भरे
हैं। सोना भी तो तपकर ही खरा होता है। खिंचे हुए कानों का अपना फायदा है। बहुत गरमी
पड़ी तो हम अपने ही हाथ से कान हिलाकर पंखा झल लेते हैं। इस कान के सूप से सुना और
उस सूप से साफ। कभी-कभी चँवर-झुलते राजाओं की तसवीर देखकर हमें ख्याल आता है कि
दरबारियों को उनकी शक्ल जरूर गज-सूपों के बीच अपनी बौनी नाक-सी लगती होगी। यह हमारे
कानों की ही कृपा है कि बे-कार रहकर भी हम कार के एक अहम हिस्से से भली-भाँति
परिचित हैं। हमारे हर विषय के मा-साब ने हमारे कान को दिमाग का सैल्फ समझकर खूब
घुमाया है। दर्द तो हर बार हुआ पर वह कम्बख्त कभी ‘स्टार्ट’ ही नहीं हुआ।
इन मास्टरों ने हमें घर पर भी नहीं बख्शा। वह हमारे पिताश्री को मौके-बेमौके हमारी
बुद्धि-शून्यता और तिमाही-छमाही परीक्षा की सिफर-कारगुजारी के किस्सों से भड़काते
रहते। पिता होने के नाते उनका भी हरकत में आना लाजमी था। वह भी कान के सैल्फ को कभी
दायें, कभी बायें, कभी गोलाकार घुमाकर अपने दिल के गुबार निकालते। फिर माँ को
चेताते-
’’तुम्हारा लाड़ला तो पढ़ता-लिखता है नहीं। घास खोदेगा, घास। यकीनन, एक न एक दिन,
चोरी-चकारी में जेल जाएगा।‘‘
हम आज भी सोचते हैं तो हमारा सिर शरम और आत्म-ग्लानि से झुक जाता है। हम अपने पूज्य
पिताजी की एक भी भविष्यवाणी पूरी न कर पाये।
ऐसा नहीं कि हमने अपनी ओर से कोई कोर-कसर की। हम पूरी तैयारी से घास खोदने का
पिताजी का अरमान पूरा करने में जुटे रहे। हमने जासूसी-ऐय्याशी की किताबें पढ़ी। हर
इम्तहान के पहले हनुमानजी से प्रसाद का वादा किया। यह हमारी परीक्षा-प्रणाली की
आस्तिकता का ही सबूत है कि हम हर क्लास बिना प्रयास पास करते गये। वह भी ऐसे माहौल
में जब अपने अधिकारों के बारे में छात्र इतने जागृत न थे। नकल का चलन कम था। आज
अवसर की बराबरी का जमाना है। नकल का जोर ज्यादा है। इसे हम प्रभु के आशीर्वाद का
करिश्मा ही कहेंगे कि बी.ए. का हिमालय हम बिना परिश्रम की आक्सीजन के सफलतापूर्वक
चढ़ गये। वह भी जब कि अर्थशास्त्र के प्रश्न-पत्र में हमने, डिमांड-सप्लाई के नियमों
की जगह, अपनी सब्जी मंडी के भावों का विशद विवेचन किया। इतिहास में मुगल
आर्किटेक्टर के स्थान पर अपने घर की ढहती दीवारों और दीमक के संत्रास का बयान किया
और अंग्रेजी के परचे में शेक्सपीयर के ‘एज यू लाइक इट’ के सवाल में मिल्टन के
‘पैराडाइज लोस्ट’ का जवाब लिखा। पर वाह रे पवन-पुत्र! लगता है वह हमारी उत्तर
पुस्तिकाएँ जाँचनेवाले परीक्षकों की अक्ल को घास खाने सुमेरु पर्वत पर छोड़ आये थे।
यों हमें बाद में बताया गया कि उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन की प्रक्रिया का
सरलीकरण हमारे समय से ही चालू है। इसके अंतर्गत उत्तर पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
जिन परीक्षकों के पास पालतू कुत्ता होता है, वह कापियाँ उसके सामने पेश करते हैं।
अगर उसने दुम हिलायी तो प्रत्याशी पास। कुत्ता गुर्राया, प्रत्याशी फेल! जाहिर है
कि शिक्षाविद् तक मानते हैं कि जानवर इंसानों से अधिक निष्पक्ष है। इधर परीक्षकों
की अधिक पढ़ी-लिखी पत्नियाँ होने लगी हैं। बिना कुत्तेवाले, उत्तर पुस्तिकाएँ उनको
अर्पित कर देते हैं। उनसे वह या उनके बच्चे गिनती का अभ्यास करते हैं। जितने पन्ने
रँगे, उतने नंबर मिले। हमें यकीन है। हमारे सहयोगी पढ़ाई के सूरमा ऐसे ही सुखद
संयोगों से सफल रहे हैं। अब भले ही अपने को तीस मारखाँ बताते हैं।
ऐतिहासिक तरक्की
हाल फिलहाल देश ने और क्षेत्रों के साथ पढ़ाई में भी ऐतिहासिक तरक्की की है। अब कलम
का स्थान कटार ने ले लिया है। लैक्चरर या टीचर अहिंसक होने के नाते खुद ही हथियार
डाल देते हैं। वह अपनी ताकत लड़कों के साथ लड़ने में क्यों जाया करें? उनके अस्त्र
आपसी लड़ाई के लिए रिजर्व हैं। थोड़े दिनों में पुलिस-फौज के हाकिम स्कूल-कॉलेज
चलाएँगे और विद्यार्थी उन्हें अनुशासन सिखाएँगे !
हमारे पास होने की अनपेक्षित खबर से पिताजी का दिल बल्लियों उछला और फिर बैठ गया।
वह ऐसा लेटे कि फिर उठे ही नहीं। हम काफी दिनों तक अपराध-बोध से पीड़ित रहे। अब हमें
समझ आया है कि चौंकाने वाले नतीजे निकालना हमारी शिक्षा व्यवस्था की स्थायी और
मुसल्सल सिफत है। पिताजी के स्वर्ग सिधारने से उनके सरकारी विभाग पर सहानुभूति का
भयंकर दौरा पड़ा और उसने हमें बाबू बना दिया। हम अब भी बाबू हैं पर विभाग में
हमदर्दी का स्थान बे-अदबी ने ले लिया है। लोग फब्तियाँ कसते हैं, “देखो! चौबे के
कैसी चर्बी चढ़ी है। न खुद हिलता है न कागज को हिलने देता है”।
पिताजी की इच्छा पूरी करने हम घास छीलने के लिए कमर कसे रहे। पहले घास और गधे दोनों
की इफरात रही होगी। अब घास तो कोठियों में शिफ्ट कर गयी है और गधे सियासत में। फिर
भी हमने हिम्मत नहीं हारी। हम एक बँगले में खुरपी और हँसिया लिए घुस गये। वहाँ के
सुरक्षा गार्ड ने हमें देखा। हमने साहब से मिलने का इसरार किया। उसने लाठी दिखायी,
हमने हँसिया। इतने साहब अपनी वातानुकूलित कार में कहीं जाने के लिए अवतरित हुए।
चौकीदार ने विजयी हुंकार के साथ कॉलर-पकड़कर हमें उनके आगे कर दिया-
’’साब ! यह सुबह से अंदर जाने के लिए टोल ले रहा है।‘‘
’’क्यों‘‘, उन्होंने हमारी ओर घूरा।
“सर! हम अपने पिता की आत्मा की शांति के लिए घास छीलना चाहते हैं”।
“हमारा लॉन माली ‘मो’ करते हैं”।
“वह पैसे लेकर छीलते हैं, हम फ्री में घास छीलेंगे। दो-तीन दिन में पिताजी की बरसी
है। एक मौका दे दें”।
उन्होंने आव देखा न ताव। गार्ड की मदद से हम पिछली सीट पर ठूँसे गये और थाने छोड़
दिये गये। थानेदार ने चपत लगाते सवाल किया – “किस गैंग के हो?”
हमने सरकारी गैंग के होने के सबूत बतौर अपना परिचय-पत्र प्रस्तुत किया, उसने खुरपी
का मुआयना करते हुए सवाल किया-
“लगता है कि अपने बाबू-क्लास के साथियों की तरह तुम भी घास खाने की हालत में पहुँच
गये हो”।
हमने पिताजी की हसरत पूरी करने की जिद दोहरायी- “घास नहीं छीली न सही। आप जेल में
ही रख लो”।
“घर में दाल-रोटी नहीं जुटती तो जेल में मुफ्त की तोड़ोगे। हम कोई बेवकूफ हैं? चलो
चौबीस घंटे रख लेंगे। निकालो सौ रुपये”।
हम दस रुपये भी नहीं निकाल पाये तो उसने हमें थाने-बाहर कर दिया।
घास-अभियान में असफल होकर भी अपनी-जेल-प्रयाण की आकांक्षा बरकरार रही। इधर लाइसेंस,
परमिट, रेल की बर्थ जैसी हर सुखद चीज के लिए घूस का चलन है। जेल भी जरूर खास होगा
वर्ना थानेदार फकत चौबीस घंटों के लिए हमसे सौ के नोट जैसी नायाब दौलत की फर्माइश
क्यों करता। जेल के प्रति अपनी उत्सुकता, थोड़े दिनों बाद, और बढ़ गयी जबकि उससे मधुर
और मीठी यादें जुड़ गयीं। हमारे सरकारी कबूतरखाने के सामने कुछ धन्ना सेठों के निजी
मकान हैं। उनमें से किसी परोपकारी ने एक दिन पूरी कॉलोनी में लड्डू बँटवाये। हमने
लड्डू-वितरक कारिंदे से जिज्ञासा जतायी-“क्यों भैया! कोई नया मिष्ठान भंडार खुल रहा
है जो ‘सैम्पल’ बँट रहे हैं?”
“हमारे मालिक ऐसे घटिया काम नहीं करते हैं। उन्हें पुलिसवाले स्मगलिंग के जुर्म में
जेल ले गये थे। आज ही जमानत पर छूटे हैं और सबका मुँह मीठा करा रहे हैं”।
मिठाई खाकर जेल और जेल जानेवालों की नेकनीयती के बारे में अपनी आस्था और दृढ़ हो
गयी।
हमारे विद्वान मित्र आतताई भी बताते हैं कि अरस्तू, सुकरात, गेलीलिओ से लेकर नेहरू,
गाँधी और जयप्रकाश तक सारे महत्वपूर्ण चिंतक, विचारक और लीडर जेल की तीर्थ-यात्रा
अकसर करते रहते थे। कृष्णजी का तो जन्म-स्थल ही जेल था। हमें लगा कि जैसे ही हम
पिताजी की जेल जाने की इच्छा पूरी करेंगे, तत्काल साधारण से महान बन जाएँगे ! हमने
जेल-एक्सपर्ट आतताई से सलाह ली- “चोरी, डकैती, स्मगलिंग करके भी लोग जेल जाते हैं।
इस बारे में आपका क्या ख्याल है?”
“फर्क सिर्फ नजरिये का है। इनमें से कुछ समाज-सुधारक हैं, कुछ समाजवादी”।
“पर लोग तो इन्हें समाज का दुश्मन करार देते हैं”, हमने जिरह जारी रखी।
“स्मगलर, सोना, चोरी, ड्रग्स आदि लाकर मुल्क से जरूरी चीजों का अभाव दूर करते हैं।
चोर-डाकू संपन्न लोगों की दौलत उड़ाकर सामाजिक न्याय और समता की पताका फहराते हैं”।
“हमें जेल जाना है। हम क्या करें?” हम बुनियादी मुद्दे पर आये।
“बनने को तो आप लीड बनकर कभी जेल जा सकते हैं। पर नयी पीढ़ी के नेताओं-सी बदनामी का
माद्दा आपमें हैं नहीं। इसके मुकाबले स्मगलिंग शराफत का धंधा है। आप वही ट्राई
करें”।
सामान्य आदमी की जिंदगी दूसरों की सलाह, पड़ोसी के अनुकरण और विवशता के वशीकरण के
दायरे में घूमती है। हमने कई बार मिठाईवाले स्मगलर को फोन घुमाया। हर बार उन्हें
चुनाव के सिलसिले में व्यस्त पाया। तंग आकर एक दिन हम सुबह-सुबह दतौन करते उनके
दरवाजे पर धमक लिये।
वह बोले, ‘कहिए’।
‘हमें भी धंधे में लगाकर अपनी शरण में ले लें’।
‘नौकरी के लिए हमारे दफ्तर में पता करिए’।
‘हमें जेल जाना है’, हमने विनती की।
‘शौक से जाएँ। हम क्या करें’
‘हमें भी स्मगलिंग में शामिल कर लें’। हम घिघियाये।
‘बकवास बंद करिए’।
‘आप तस्करी में ही तो जेल गये थे’।
इतना सुनना था कि वह ‘चैपी’ – ‘चैपी’ करने लगे। एक भीमकाय एल्सेशियन ने ‘भौं’
–‘भौं’ कर हमें दौड़ा लिया। गनीमत यही रही कि पाजामे में पैर गेट के पास फँसा और हम
सीधे बाहर गिरे। मोहल्लेवाले हमें खुशी-खुशी घर ढो ले गये-
“भाभी! चौबे को समझाइये। सड़क पर औंधे पड़े थे”, एक ने हमदर्दी दिखायी।
“सबेरे से तो ठर्रा नहीं पीना चाहिए,” दूसरे ने सहानुभूति जतायी।
“और नाक कटाओ”, पत्नी ने डांट पिलायी। हमने उन्हें अपने श्रवणकुमार बनने का व्रत
सुनाया। उन्होंने हमारा ज्ञान बढ़ाया-
“छोटे लोग बड़े काम नहीं कर सकते हैं। सब ऊपरवाले की लीला है। इस बरसी में पिताजी की
आत्मा से माफी माँग लेना”। तब से हम रिकार्ड-रूम के कागज खोद रहे हैं। न घास खोदी,
न जेल गये। अपने महानता के सपने धरे के धरे रह गये। |