हास्य व्यंग्य

साहब का जाना
शरद उपाध्याय


साहब चले गए। सब कुछ अचानक ही हुआ। मुख्यालय से अचानक आदेश आया और हँसते-खेलते साहब चले गए। वे हँस रहे थे, ठहाके लगा रहे थे, अठखेलियाँ कर रहे थे, भक्तजनों की भीड़ में मगन थे, भक्तजन मुग्धभाव से उनकी लीलाओं को देख रहे थे। सामान्य जन, भक्त जनों द्वारा किए गए वर्णन को सुनकर धन्य महसूस कर रहे थे। कि अचानक साहब चले गए। साहब बहुत दिनों से थे व सबसे बड़ी बात लाभ के पद पर थे। लाभ के पद पर होने से उनकी महत्ता कई गुना बढ़ जाती थी। वैसे कार्यालय में कई तरह के साहब पाए जाते थे। बड़ा कार्यालय था, भाँति-भाँति के विभाग थे तो नाना प्रकार के साहब भी थे। पर उन सबमें उनकी बात निराली थी।

वे सरकार में थे। पर उनकी भी अपनी एक सरकार थी। सरकार के अपने नियम थे। तो उन्होंने भी समानान्तर रूप से एक सरकार चला रखी थी। सरकार अपने हिसाब से नियम बनाती, पर उनकी व्याख्या वे अपने हिसाब से ही करते थे। सरकार नियम पर नियम बनाती, वे तोड़ते चले जाते। सरकार जिस बात के लिए रोक लगाती। वे उसे खुले रूप से करते। उनकी दबंगता और बहादुरी के किस्से आमजनों के लिए चर्चा के विषय थे।

वैसे साहब कई तरह के होते हैं। पर उनकी बात निराली ही थी। चूंकि साहब थे तो स्वाभाविक रूप से उनके बहुत से चमचे थे। चमचों की कई किस्में थी। कोई खास था, कोई साधारण। कोई इन चमचों का भी खास था, कोई उपचमचा था, तो कोई सब-चमचा था। साहब के पास बहुत से काम थे। काम के कारण उनके पास समय कम रहता था। जो कम समय बचता था, उस समय को पाने के लिए भक्तजनों में कड़ी प्रतिस्पर्धा थी। साहब भी आधुनिक-युग के अवतार थे तो प्रसाद व सेवा से ही स्वाभाविक रूप से प्रसन्न होते थे। लोग भेंट-पूजाचढ़ाते व वे कार्य रूपी आशीष देते। इसी तरह ठीक चल रहा था कि अचानक साहब के जाने के आदेश आ गए।

अब जब आदेश आ गए तो एकदम माहौल बदल गया। जो अत्यधिक निकट थे, वे हतप्रभ रह गए। भवसागर में भगवान के अकेले छोड़ देने से व्यथित थे, इतनी मेहनत से प्रभु की निकटता हासिल की थी। अब क्या होगा,‘सब चमचों’ ‘उप चमचों व सामान्य जन पर कैसे रोब गांठेगे। प्रभु की लीलाएँ सुनने के लिए जिस तरह सामान्य जन चाय-नाश्ते का भोग लगाते थे, अब कोई पानी की भी नहीं पूछेगा। जो लोग विरोधी थे व इस कारण सताए गए थे, उनकी प्रसन्नता देखते ही बनती थी। चूँकि अब साहब चले ही गए थे, किसी बात का डर नहीं था। इसलिए उन्होंने इस भाव को छुपाने की कोशिश भी नहीं की। शाम तक इस भाव ने सामान्य भाव का रूप ले लिया।

साहब स्वंय भी इस स्थिति से हतप्रभ थे। जीवन भर से लाभ के पदों की आदत पड़ी हुई थी। जो प्रभा-मंडल उनके चारों ओर बना हुआ था। वो अब उन्हें स्वंय को भी धुंधला नजर आने लगा था। बहुत से लोगों ने आज ही उनके मलिन चेहरे को भली-भाँति देखा अन्यथा अत्यधिक तेज के कारण वे कभी ठीक से मुखमंडल को निहार भी नहीं पाए था। पर तमाम स्थितियों के बावजूद यह सत्य था कि वे जा चुके थे। चूँकि उनका जाना एक निरपेक्ष सत्य था। इसलिए वे चुप थे। उनके ग्रह, उपग्रह व सब-उपग्रह सभी मौन थे। विरोधी मुखर थे।

शाम को पार्टी थी। जिस अफसर के मुँह से बोल निकलते ही दहशत का माहौल छा जाता था, उसकी पार्टी में सबसे पहले आने वाला शख्स वो ही था। लोग धीरे-धीरे आ रहे थे। फिर पार्टी भी सम्पन्न हुई। उस पार्टी में सभी लोग एक ही विषय पर बात कर रहे थे कि यह अफसर कितना खराब था व आने वाला अफसर कितना दरियादिल है। आने वाले अफसर के संबंध किससे कितने मधुर है और उसका दूर-दराज का कौन रिश्तेदार यहाँ रहता था। अफसर की प्रशस्ति-चालीसा का विधिवत पाठ शुरू हो चुका था।

अफसर चूँकि साधारण से पद पर, साधारण-सी जगह जा रहा था। अतः रात को बस-अड्डे पर इक्का-दुक्का लोग ही इकट्ठे हुए। इतनी रात को अपनी नींद कौन खराब करता और फिर सभी लोगों को जल्दी सुबह उठना भी तो था। उठना क्यों था. . .अरे भई नया अफसर सुबह पाँच बजे वाली ट्रेन से आ जो रहा था। सभी लोगों को उन्हें टाइम से लेने जाना भी था। ऐसे स्वर्णिम अवसर को कौन मूर्ख भला छोड़ सकता था।

१३ फरवरी २०१२