अब मेरा निवेदन है कि भारत में
अँग्रेजी को कोसने का धंधा बन्द कर दिया जाय। ये कमेटियाँ, संघर्ष समितियाँ और
तरह-तरह के अनशन-आंदोलन सब पर रोक लगा दी जाय। हिन्दी से कह दिया जाय कि वह
अँग्रेजी को अपनी सौत न माने। हिन्दी को महत्त्व देने और जितना प्रगति करने के लिए
जितना प्रयास करना था वह सब संविधान ने कर दिया। जो कसर रह गई है वह नेताओं के
भाषणों और हवाई यात्राओं से पूरी हो जाएगी। हिन्दी को अब चाहिए कि वह अँग्रेजी के
साथ लड़ाई-झगड़ा खत्म करे। इस सनातन झगड़े में हिन्दी की अपनी सखी-सहेलियाँ भी चुटकी
लेने लगी हैं और विरोध करने लगी हैं। पर न जाने हिन्दी को क्या हो गया है कि वह सात
समुन्दर पार से आई सौत को कभी बख्शना ही नहीं चाहती।
हिन्दी का हठ देखकर उसके भोलेपन
पर तरस आता है। उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती
जा रही है। वह यह नहीं जानती कि सहानुभूति की अधिक मात्रा विष का काम करती है। लोग
जब उसकी तारीफ करते हैं और अँग्रेजी पर फब्तियाँ कसते हैं तो वह प्रसन्नता से गद्गद
हो उठती है। वह इस नीति से अनभिज्ञ है कि किसी को गहरी खाई में गिराने के पहले उसे
ऊँचे शिखर पर पहुँचाया जाता है। ऊँचे-ऊँचे मंचों पर उसकी प्रशंसा के पुल बाँधे जाते
हैं, उसे माता, जननी अथवा ममतामयी विशेषणों से सम्बोधित कर मालाएँ पहना दी जाती हैं
और वह इठलाने लगती है? हिन्दी दिवस जैसे समारोहों में तो उसका गर्व देखते बनता है।
अपनी प्रशंसा में वह यों फूली है कि आस-पास की सहेलियों की बात तो अलग दूर देशों की
सखियों को भी बुला-बुलाकर अपने गले लगाने लगी है। अरबी, फारसी,
लैटिन, फ्रेंच, चीनी, रूसी सभी के स्वागत में वह
पलक-पाँवड़े बिछाए रहती है। बस जलन है तो एकमात्र अँग्रेजी से।
कुछ लोगों का विचार है कि भारत में अँग्रेजी ने हिन्दी का स्थान हड़प लिया है। अब
बिना अँग्रेजी के काम नहीं बनता। प्यार में बोलें या गुस्से में बोलें, जुबान पर
अँग्रेजी जरूर होनी चाहिए। अँग्रेजी न बोलें, तो हमें कोई पढ़ा-लिखा मानता ही नहीं।
लेकिन ऐसे लोगों की धारणा भ्रमपूर्ण है। अँग्रेजी चाहे हमारी जुबान से जितनी सट
जाए, वह हिन्दी की ही भलाई में लगी है। जो भलाई में लगा हो उसका आदर होना ही चाहिए।
लार्ड मैकाले अपनी इस लाड़ली बेटी को हिन्दुस्तान में बहू बनाकर छोड़ गए। अब हमारा
धर्म यह नहीं कि इस विदेशी बहू का अपमान करते रहें। बेचारी अपने मैके में चाहे जो
करती रही हो, ससुराल में तो उसे सम्मान मिलना ही चाहिए। यह क्या कि प्लेकार्ड,
तख्तियाँ, काले बिल्ले और तरह-तरह के झंडे लिए नारेबाजी करते लोग इसको भगाने की
फिराक में हैं। पहले तो बेचारी को सम्मान मिला, अब जरा घर-गृहस्थी सँभालने योग्य
हुई और अपने अधिकारों के प्रति सजग हुई तो भाषा-भक्तों को ठेस पहुँचने लगी। लोग
लेटकर, सड़कों और दीवारों पर रंग पोतकर, अनशन कर, आंदोलनों के विगुल बजाकर डंडे लिए
गला फाड़कर इसको भला-बुरा कहने में लग गए और वह
चरमराने लगी।
लोग समझते क्यों नहीं कि अँग्रेजी भाषा के पास जो कोमलता है वह दूसरी भाषाओं में
दुर्लभ है। उच्चारणों की जो मनोरंजक आँख मिचौनी है वह मजा और कहाँ मिलेगा। दुनिया
की किसी भाषा को होंठ और जीभ बोलते भर हैं, चबा नहीं पाते। किन्तु अँग्रेजी इतनी
रसीली है कि उसे मुँह से निकलते-निकलते जीभ छिपा लेती है और कई शब्दों को होंठ दबा
लेते हैं। बेचारी अँग्रेजी कठोरता से हमेशा दूर रही है। लड़ने-झगड़ने के लिए कुछ
शब्दों का इस्तेमाल कर लेती है वरना आपद धर्म से उसकी रक्षा कैसे हो? ऐसे ही अवसरों
के लिए उसके पास डैम, इडियट, नानसेंस, ब्लडी फूल, स्कांड्रल आदि अस्त्र हैं। हिन्दी
का अबे मूर्ख उतना असरदार नहीं होता, जितना यू ब्लडी फूल। यू ब्लडी फूल पढ़े-लिखे का
तो खून गरमा देता है और अनपढ़ को हँसा देता है। साहब हमको अँग्रेजी में कुछ कह रहे
हैं, ऐसा एहसास कर बेचारा बेपढ़ा हिन्दुस्तानी धन्य-धन्य हो उठता है। ट्रेन में जगह
न मिले, भीड़ में रास्ता न मिले, जरा मुस्कुराकर कह दीजिए-प्लीज। आपका काम
बन जाएगा। बनिये से धनिया खरीद कर कह दीजिए-थैंक्यू।
देखिए वह मुस्कुराकर किस प्रकार आपके प्रति कृतज्ञ हो उठता है। वहीं उसके बदले
धन्यवाद या शुक्रिया कहकर देख लीजिए। सुनने वाले को लगेगा उसकी खिल्ली उड़ाई जा रही
है। हिन्दी इस सत्य को समझ नहीं पा रही है।
देश के विकास में अँग्रेजी का जो योगदान है उसे भूल पाना कठिन है। अँग्रेजी के
सान्निध्य में पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलती चली जा रही है। हिन्दी ने क्या बदला?
धोती-कुर्त्ता तब भी था, आज भी है। नमस्कार-प्रणाम तब भी था आज भी है। भाषा का
महत्त्व इस बात में है कि नित नूतन उसमें विकास के लक्षण प्रकट होते रहें। मेरा
बेटा स्कूल से लौटकर अपनी टीचर की बात सुनाता है। पापा, आज मेरी मैम ने मुझसे यह
पूछा, वह पूछा। मेरे कान मैडम तो सुनते थे, अब मैम भी सुनने लगे हैं। किसी से मिलकर
प्रसन्नता में आप ’अहा!‘ कहकर देख लीजिए, उतना प्रभाव नहीं पड़ेगा। वहीं यदि आप बोल
पड़े-’हाय!‘ फिर देखिए चेहरे पर खुशी छलक आती है। इस तरह अँग्रेजी ने हमें तात-मात
के लोक से डैड की दुनिया में ला बैठाया है। कितना भला किया है!
इस कामिनी का स्वागत हम कैसे न करें। अँग्रेजी कामिनी के लिए ब्यूटी पार्लर का काम
ये पब्लिक स्कूल करते हैं। इस सुन्दरी का मेकअप यहीं होता है। यहाँ पोशाक से लेकर
हेयर स्टाइल, होठों की चमक, आइलिड, स्कीन स्पंजिग, नेलपॉलिश आदि सबकी कायापलट हो
जाती है। अँग्रेजी ने भाषा का ही नहीं देह का भी सौंदर्य बढ़ाया है।
कुछ लोग हिन्दी के प्रति इतने मोहान्ध हैं कि
अँग्रेजी के सद्भाव का सत्य दर्शन नहीं कर पा रहे हैं। अँग्रेजी बाधक नहीं है। वह
तो हिन्दी का ही भविष्य उज्जवल कर रही है। यह जो आज अँग्रेजी का क्रैज है वही एक
दिन हिन्दी को अँग्रेजी का स्थान दिला देगा। जब हिन्दुस्तान का सारा बाजार अँग्रेजी
के सौदे से भर जाएगा तब हिन्दी दुर्लभ हो जाएगी। हिन्दी की किमत तब इतनी बढ़ेगी कि
हिन्दी सीखने के लिए धड़ाधड़ पब्लिक स्कूल खुलने लगेंगे। विज्ञापनों में आप
पढ़ेंगे-यहाँ हिन्दी माध्यम से पढ़ाई होती है। फिर हमें और चाहिए क्या! जिस दिन अपने
बेटे के हिन्दी ज्ञान का मुझे आभास मिला उसी दिन से मैं हिन्दी के सुखद भविष्य की
प्रतीक्षा कर रही हूं।
बेटे से मैंने पूछा-’’सप्ताह के सातों दिन के नाम बता जाओ।‘‘
उसने झटपट उत्तर दिया-’’संडे, मंडे, ट्यूज़डे...‘‘
’’शाबास बेटे ! अब हिन्दी में बोल जाओ।‘‘
’’हिन्दी में ?‘‘ वह चौंका।
’’हाँ!‘‘
’’हिन्दी में ही तो बताया है।‘‘
’’नहीं बेटे, संडे-मंडे तो अँग्रेजी दिन हुए। हिन्दी में जैसे सोमवार, मंगलवार।‘‘
बेटे ने कोशिक की-’’सोमवार, मंगलवार, रविवार।‘‘
इससे आगे नहीं बढ़ा।
मैं प्रसन्नता से लहर उठा। पब्लिक स्कूल वालों ने मेरे बेटे की ही कायापलट नहीं की
है, हिन्दी का भी मार्ग प्रशस्त कर दिया है। ये रविवार, मंगलवार, शुक्रवार आदि
हमारी जुबान पर एक दिन दुर्लभ हो जाएँगे। दुर्लभ होते ही हिन्दी महत्त्वपूर्ण बन
जाएगी।
डाकखाने में एक ने किसी पढ़े-लिखे से आग्रह किया-’’जरा यह पता लिख दीजिए।‘‘
’’पता ?‘‘ वे ऐसे चौंके जैसे कोई अटपटा शब्द सुन लिया हो।
’’जी, एड्रेस।‘‘
एड्रेस सुनते ही उनकी कलम चल पड़ी।
अर्थात धीरे-धीरे वह समय आ रहा है जब आम व्यवहार से हिन्दी विलुप्त हो जाएगी। टाटा,
हाय, हेलो, बाय-बाय, ओ.के., सॉरी, ओ माइ गुडनेस आदि पद कितने आम हो गए हैं। तब देश
में हिन्दी सीखने की एक क्रांति आएगी। हिन्दी सीखने वालों को हिन्तुस्तान में
सरकारी अनुदान मिलेंगे। स्कूली किताबों से डौग, कैट और समर, रेनी सीजन सम्बन्धी गीत
हट जाएँगे और उनकी जगह चैत-बसन्त के गीत गाए जायेंगे। हेलो डैड डेड हो जाएगा।
पिताजी नमस्कार पुनर्जीवित हो उठेगा। विदेशों में हिन्दी के उत्थान पर और अधिक
ध्यान दिया जाएगा। सरकारी शिष्टमण्डलों को हवाई यात्राओं से फुर्सत नहीं मिलेगी।
इन बातों पर अभी शायद आपको विश्वास न हो रहा
हो। समय आने पर आप विश्वास करेंगे और हंसेंगे नहीं। अपनी संस्कृति और भाषा जब
विलुप्त होने लगती है और अनुकरण का नशा चढ़ जाता है तब अपने ऊपर ही हँसी आती है।
मेरा आग्रह उन लोगों से है जो डंडा लेकर अँग्रेजी के पीछे पड़े हैं। भाइयों, इस तरह
अँग्रेजी को मत भगाओ। इसके प्रेमियों के दिल पर क्या गुजरेगी, यह भी तो सोचो। कहीं
चोट खाकर अँग्रेजी पागल हो उठी तो तुरन्त काट खाएगी। फिर कहाँ जाओगे दवा कराने ? उन
दवाखानों में भी अँग्रेजी का ही बोलबाला है। गांधीजी भोले थे जो खादी दे गए। देश ने
आज उसका महत्त्व समझा है। मूल्यवान विदेशी सिल्क की न जाने कितनी बंडियाँ,
कुर्त्ते-बनियान इस खादी के नीचे छिप जाते हैं। हिन्दी भी ऊपर से खादी-सी ही दिखती
है। पनाह लेने वाली अँग्रेजी को भला वह अपने दिल से कैसे निकाल दे। पधारे अतिथि को
भारत ने कभी जोर-जुल्म से नहीं भगाया। हम भी अँग्रेजी को नहीं भगाएँगे। वह जब तक
चाहे हिन्दुस्तान की थाली में नाना पकवान का भोग करती रहे। अँग्रेजी के समर्थक उसकी
रक्षा में लाठी लिए खड़े हैं। लाठी उठाने में हिन्दी अभी लज्जा का अनुभव कर रही है।
अपने शील और संकोच के ही कारण बेचारी आदर नहीं पा रहीं है। जिस दिन वह लाठी लेकर डट
जाएगी उस दिन उसका सम्मान लौट आएगा। क्योंकि यह रहस्य उसे भी मालूम है कि लाठी से
सांड और संसद दोनों डरते हैं। |