शहर में समाजसेवी गणेशीलाल की कि पहचान उनका गमछा है जो हमेशा उनके कंधे पर शोभित
रहता है। गमछे के बिना उनका व्यक्तित्व आधा-अधूरा है। लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि
इस परिधान का आविष्कार उनके लिए ही हुआ है। हर मौसम में आप उन्हें गमछे के साथ देख
सकते हैं। यों तो उनके पास तरह-तरह के गमछे हैं पर वे जिस एक का प्रयोग करना
शुरू कर देते हैं, उसे तब तक रगड़ते हैं जब तक कि वह मधुमक्खी के छत्ते की तरह छिद्रमय नहीं हो जाता। गमछे का प्रत्येक छेद उनसे विनती करता है कि हे प्रभु, मुझ
पर
तरस खाओ कि अब मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि आपको गर्मी, ठंड और बरसात की मार से
बचा सकूँ। गणेशीलाल को भी अपने
दो-तीन साल पुराने साथी की बात में सच्चाई दिखती है और वे शहर में किसी
बूढ़े या बीमार व्यक्ति के मरने की प्रतीक्षा
करने लगते हैं। वे अपने नए गमछे का उद्घाटन किसी शवयात्रा में शामिल होकर
ही करते हैं, शुभ मुहूर्त में।
गमछावाले गणेशीलाल छोटे शहर की बड़ी चीज हैं। गर्मी के मौसम में धूप से
बचने के लिए वे सिर पर गमछा बांधे रहते
हैं तो ठंड के दिनों में भी वे सिर पर मफलर गमछे का ही प्रयोग करते हैं ताकि
ठंडी हवा कानों में न घुसे और बरसात के
दिनों में शहर के शोहदों ने उन्हें अपने आपको पानी का बौछार से बचाने के लिए
छाते की जगह गमछे का प्रयोग करते हुए देखा है। इनमें यह खाक सार भी शामिल है।
गणेशीलाल रूमाल का इस्तेमाल नहीं करते। वे इसे अमीरों का चोंचला मानते हैं। बेकार
का खर्च। मुँह और नाक पोंछने का काम वे गमछे से ही लेते हैं। कई लोगों ने उन्हें
अपनी साइकिल की सीट गमछे से साफ करते हुए और फिर उसी से चप्पल चमकाते हुए भी पकड़ा
है। इसके बाद स्वाभाविक है कि उन्होंने चेहरे का पसीना भी पोंछा होगा।
प्लेटपफार्म पर जब टेªन लगने को होती है तब
दूसरे दर्जे के साधरण डिब्बे में जगह बनाने के लिए खिड़की के रास्ते किसी बर्थ पर
गमछा रखने की वे कोशिश करते हैं।
असफल रहने पर भी निराश नहीं होते।
डिब्बे में चढ़ते हैं और संडास के पास की
खाली जगह पर गमछा बिछाकर आराम से
बैठ जाते हैं। दाढ़ी बनाते समय और नहाते समय भी गमछा। तौलिया खरीदने की फिजूलखर्ची से वे बचते हैं। गमछा उनके
गले की शोभा है चाहे वे राष्ट्रीय पोशाक कुरता-पाजामा पहनें या पेंट-टीशर्ट। यहाँ
तक की ठंड में जब वे कोट पहनते हैं तब
भी सामने की जेब में इस तरह गमछे को
तहाकर रख लेते हैं कि वह लोगों को
दिखता रहे और वे उन्हें भूलें नहीं। तौलिया में
में ऐसी सुविध कहाँ!
गणेशीलाल का कहना है कि तौलिया बहुत मोटी खाल की होती है और शरीर को रगड़ती है जबकि
गमछा किसी प्रेमिका के मधुर स्पर्श-सा सुख देता है।
गमछे की अनुपस्थिति में गणेशीलाल
अस्तित्वहीन हैं।
उन्हें इस बात का दुख है कि वे ब्राह्मण नहीं हैं। यदि ब्राह्मण होते ता पुरोहिताई
करते। तेरहवीं के ब्राह्मण भोज म शामिल होते और दक्षिणा में ग्यारह रुपए के साथ जो
पांच वस्तुएँ मिलतीं, उनमें एक गमछा भी होता। गमछों का ढेर लग जाता और तब उनके
कंधे पर हर दिन एक नया गमछा होता। यूँ वे चुनाव के समय कुछ गमछों का जुगाड़ तो कर
ही लेते हैं। उन्हें
किसी भी राजनैतिक पार्टी से कोई परहेज
नहीं। वोट डालना, न डालना उनके मूड पर
निर्भर करता है। उनकी चले तो वे सभी
उम्मीदवारों को वोट दे दें- न काहू से
दोस्ती, न काहू से बैर।
गणेशीलाल हर प्रत्याशी के चुनाव
कार्यालय में जाकर हाजिरी देते और चाय
पीते। और अब ससुरा ऐसा समय आ गया है कि साला कोई न कोई चुनाव होता ही रहता है। पंचायत-जनपद चुनाव, नगरपालिका-नगर
निगम चुनाव, विधनसभा-लोकसभा चुनाव।
दल-बदलुओं ने करिश्मा दिखलाया या साथी पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया तो मध्यावधि चुनाव और यदि कोई जर्जर-बूढ़ा नेता पाँच वर्ष पूरे किए बिना बीच में ही टें बोल
गया तो भी चुनाव। पार्टी कार्यकर्ताओं की तो बल्ले-बल्ले होती रहती है। हर पार्टी अपने कार्यकर्ताओं को गमछे बाँटती है जिसमें पार्टी का चुनाव चिन्ह भी छपा रहता है। इन्हें गले में डालकर वे चुनाव प्रचार के लिए निकलते हैं और शहर में यहाँ-वहाँ घूम कर, सिनेमा देखकर, लड़कियों को छेड़कर और
कभी-कभी पिट-पिटाकर रात को कार्यालय
वापस आते हैं और चुनाव प्रभारी को अपनी
रिपोर्ट देते हैं कि इस गमछे में दो-तीन सौवोट बंधे हैं। बदले में उन्हें कार्यालय
के
पीछे कहीं भेज दिया जाता है जहाँ गमछे की
तरह दारू भी बँटती है।
इज्जतदार आदमी हैं गणेशीलाल। हर
अरथी को कंध देने के लिए तैयार। अब
तक एक हजार मुर्दों को निपटा चुके हैं। बुजुर्ग कहते हैं कि जो व्यक्ति एक हजार
मृतात्माओं को कंधा देकर मरघट पहुँचाता
है, उसके लिए मरने के बाद स्वर्ग के दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं तो वे उस द्वार
की ओर कभी नहीं बढ़े जो दारू के अड्डे
पहुँचाता। वे किसी प्रत्याशी का प्रचार कर अपनी इज्जत पर आँच नहीं आने देते। वे तो
गमछा-प्रेमी ठहरे। गमछा प्राप्त किया और
चलते बने। उनके पास पंजा छाप, कमलछाप, हाथी छाप, साईकिल छाप तथा कुछ
और भी आलतू-फालतू छाप गमछे इकट्ठे
हो गए हैं जिन्हें वे कभी भी कंधे पर नहीं डालते। लेकिन शहर के लोगों का मुँह बंद
नहीं किया जा सकता। वे कहते हैं कि
गणेशीलाल जो चड्ढी पहनते हैं, वह इन्हीं चुनावी गमछों की होती है। दो पार्टियों के
दो
गमछों से उनकी समझदार पत्नी एक चड्ढी
सिल देती है। यदि चार पार्टियों के चार गमछे भी वे प्राप्त कर लेते हैं तो दो चड्ढी
के मालिक हो जाते हैं। एक पाँयचे पर पंजा
तो दूसरे पर कमल, एक पाँयचे पर हाथी तोदूसरे पर साइकिल। यह तो अच्छा है कि
कैंसर की बीमारी की तरह चुनाव भी होते
रहते हैं और गणेशीलाल को दो चड्ढी दे जाते हैं। इस देश के चुनाव गरीबी की रेखा
से नीचे का जीवन निर्वाह करने वालों को
इससे अधिक कुछ देते भी नहीं हैं।
गणेशीलाल का अद्भुत चरित्र उभरता
है मरघट में। वे समाजसेवी हैं सो उस
व्यक्ति की शवयात्रा में भी शामिल होते हैं जिससे उनकी नाम मात्रा की पहचान होती।
इसके लिए दो बार की जैरामजी ही काफी
है उनके लिए। वे परिवार के लोगों को धीरज बँधाते, अरथी तैयार कराने में सहयोग
देते और मृतक को कंधा भी देते। ऐसे
अवसर पर वे कंधे पर नया गमछा डालते। घर का धुला कुर्ता-पाजामा पहनते। मृतात्मा
के साथ आदमी को शुद्ध होना चाहिए।
लेकिन लोग फुसफुसाते कि नया गमछा दिखलाने के लिए मिट्टी में शामिल हुआ है
गणेशीलाल। पर वे मरघट में लकड़ी की
चिता तैयार करते रहते और गमछे से बदन का पसीना पोंछते रहते। दाह क्रिया सम्पन्न हो
जाने के बाद परिवारजनों के साथ नदी के
घाट पर जाकर नहाते। वे पूरे कपड़े पहने हुए ही नदी में उतर जाते और तीन-चार डुबकियाँ
लगाते। फिर बाहर निकलकर गीले कपड़े
उतारते और गमछा लपेट लेते। एक बार फिर
उन्हें नदी में उतरना पड़ता, उतारे हुए कपड़ों को धोने और निचोड़ने के लिए। जब वे घर
वापस जाने के लिए मुड़ते तो उनके बदन
पर गीले कपड़े और कंधे पर गीला गमछा होता। घर आकर वे नया गमछा सुखाते और
उसे तहकर संदूक में रख देते और पुराना
गमछा कंधे पर डाल लेते।
लावारिस लाशों को मृत्युलोक तक पहुँचाने के दायित्व का निर्वाह भी गणेशीलाल ही
करते। पुलिसवालों और नगरपालिका के कर्मचारियों की तरह वे लाश को ठिकाने नहीं लगाते
बल्कि यथासंभव विधि पूर्वक ही उसका उद्धार करने का प्रयास करते। इस हेतु वे कुछ
चंदा भी उगाह लेते और लोगों की आँखों में खटकने लगते। कई बार तो उन्हें कफन की जगह
लाश को अपने गमछे से ढकना पड़ता है। ये कुछ ऐसे घंटे होते हैं जब उनके कंधे पर गमछा
नहीं होता।
गणेशीलाल के गमछे पर शहर के कुछ मंचीय कवियों ने क्षणिकाएँ भी रची
हैं-
‘गनेशीलाल का गमछा
सबसे अच्छा
करता है उनके
नंगेपन की रक्षा’
या
‘वे होते यदि भिखारी
और माँगते भिक्षा
सबसे कहते फिरते
भैया दे दो गमछा।’
लेकिन एक दिन गणेशीलाल ने मरघट में बड़े मजे की बात कह दी। वे किसी गुमनाम व्यक्ति
की लाश को लेकर आए थे। साथ में उनके ही जैसे आठ-दस लोग और भी थे। चिता ने पूरी तरह
से आग नहीं पकड़ी थी। वे साथियों के साथ मैदान में बैठे थे। आदत के अनुसार गमछा नीचे
बिछा लिया था जो नया था। कुछ देर तक सब शांत बैठे रहे फिर गणेशीलाल का श्मशानी
वैराग्य जागा और वे बोल पड़े, ‘तुम लोग मेरी बात पर ध्यान दो। जब मैं मरूँ तो मेरा
कफन गमछा ही हो। दो-तीन मिलाकर काम चला लेना। इतनी पूँजी मैं छोड़कर मरूँगा। पर यह
भी ध्यान रखना कि किसी भी राजनैतिक दल का चुनावचिह्न गमछे पर न छपा हो। इनसे तो हम
अपने पिछवाड़े को ढकते हैं।’
चिता धू-धू कर जल उठी। गणेशीलाल ने पहले बालों का फिर चेहरे का पसीना अपने गमछे से
पोंछा, उसे कंधे पर डाला और नदी की ओर कदम बढ़ा दिए। |