हास्य व्यंग्य | |
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आग तापने का सुख |
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पराई आग तापने के अपने ही मजे हैं, भले ही यह आग मई-जून की प्राणलेवा गर्मी में ही क्यों न लगी हो। जो लोग दिसंबर जनवरी में भी अपनी अँगीठी इसलिए नहीं सुलगाते कि उसमें महँगा कोयला जलता है, प्रदूषण पैफलता है, वे दूसरों की आग का मजा लेने चिलचिलाती धूप में निकल पड़ते हैं। कोई कहता है आह! क्या आग है! कोई
कहता है वाह! क्या आग है! अगर कोई यह कहता है कि हाय! क्या आग है! तो उसके मन के
किसी कोने में यही छुपा रहता है कि वाह, क्या सीन है! ऐसा मंजर तो आज तक नहीं देखा।
होलिका दहन और दीवाली के पटाखे भी ऐसा विराट और प्रभावी दृश्य कहाँ उत्पन्न करते
हैं जो सर्वनाशी पराई आग करती है। होली में माँगे हुए कंडे और दीवाली में खरीदे हुए
पटाखे जलते हैं तो मन चाहे ठाकुर हो या बनिया थोड़ा सकुचाता तो है, पर जब अपना छटाँक
भर घासलेट न लगे और दूसरा देखते ही देखते चुटकी भर राख में बदल जाए तो क्या कहने।
पराई आग बसंत। बिना टिकिट हालीवुड की सबसे ज्यादा भव्य फिल्म का मजा। जब संवेदनाएँ
मर जाएँ तो क्या फिल्म और क्या असलियत। हाथों में कोकाकोला की बोतल और आँखों में
दिखावटी आँसू। सामने ऐतिहासिक और रोमांचक दृश्य। चौकीदार दरावाजा पीटता रहा और
पुलिस सोती रही। वह बेफिक्र थी क्योंकि शहर में अमन चैन था और उसकी दिहाड़ी पक चुकी
थी। रात में टेलीफोन सिर्फ चौकी में उपलब्ध था, और पुलिस की नींद में खलल डालना
देशभक्ति और जनसेवा के मार्ग में बाधा पहुँचाना था। टेलीफोन को छूना कानून अपने हाथ
में लेना। लिहाजा दूकानें धू धू कर जलती रहीं, दुकानदार दहाड़ें मारकर रोते रहे।
सुबह होते होते प्रशासन की नींद टूटी, वह घटनास्थल पर पहुँची और उसने राख हो चुकी
लगभग डेढ़ सौ दूकानों और ऐतिहासिक इमारत के भग्नावशेषों को सुरक्षित रखने में अपनी
पूरी ताकत झोंक दी। इतने में एक बड़े नेताजी प्रकट
होते हैं। जो अब तक गायब थे। वे महान हैं। महान अवसरों की तलाश में रहते हैं और
समयानुसार पहुँचते हैं। वे पहले तो फूट-फूटकर रोने लगे, उसके बाद अपने कुर्ते की
बाहें चढ़ाने लगे, उनके विरुद्ध जो पीड़ितों के पुनर्वास की कोशिशें कर रहे थे।
नेताजी ने सरकारी अनुदान को अपर्याप्त बताया और नई जगह को अव्यावहारिक। ‘अब मैं आ
गया हूँ’ की मुद्रा में ऐलान किया कि बस दो दिन का समय मुझे दीजिए। मैं आपको यहीं
बसाऊँगा। लाखों का अनुदान दिलवाऊँगा। नहीं मिला तो भीख माँगूगा आपके लिए। वे अपने
समर्थ हाथों को अपनी जेब में डालने की बात नहीं करते। जिनकी जिंदगी भर काटी हैं
उन्हीं की जेबों पर निगाहें हैं। लुटे-पिटों के कमजोर हो चुके हाथ जोरदार तालियाँ
बजाने लगे। चमचे जय-जयकार करने लगे। किसी भी अन्य स्थान पर जाने से अग्नि-पीड़ितों
ने इंकार कर दिया। लेकिन दो दिनों का आश्वासन दो हफ्तों में पूरा नहीं हुआ। दो
महीनों में हो जाएगा, इसकी भी उम्मीद नहीं है। लोग ढूँढ रहे हैं, लेकिन नेताजी
लापता है। सुना है उन्हें डी-सेंट्री हो गई है। डीसेंट लोगों को ऐसे मौकों पर हो ही
जाती है। जहाँ वे बैठे या लेटे हैं, वहाँ कोई जा भी नहीं सकता। मजबूरी है। |
३० जनवरी २०१२ |