हास्य व्यंग्य

इस हमाम में
-कृष्णकुमार अग्रवाल


मेरा मित्र दब्बू कब सरकारी खसम बना और कब सरकार ने उसका जिंदगी भर का ठेका लिया, यह सब कुछ इतना जल्दी हुआ कि क्या कहें। दब्बू आजकल बड़ा ही खुशी जीवन व्यतीत कर रहा है। पास तो उसने भी एम. ए. किया है लेकिन एक एम. ए. किए हुए नौजवान की तरह उसे बेरोजगार होने का गम नहीं है। लगा तो वह सरकारी स्कूल में चपरासी है। क्या हुआ अगर ५० हजार रुपये की रिश्तव देनी पडी हो, रिश्वत देकर भी लगना आजकल कहाँ आसान है। उसके ठाट-बाट किसी प्राइवेट कम्पनी में लगे मैंनेजर से कम नहीं है।

मैं हूँ बब्बू, एक न चलने वाला खोटा सिक्का, यूँ ही फालतू भटकता प्राणी। कई बार तो उसके नौकरी लगने पर मुझे ईर्ष्या होने लगती है लेकिन बचपन की कच्ची दोस्ती अभी-अभी तो पक्की हुई है तो भला उससे क्यूँ बिगाडूँ। और ऐसा करने से कौन सा मुझे नौकरी मिल जाएगी। उसके नौकरी लगने से ज्यादा नहीं तो कभी-कभार दो-चार रसगुल्ले मुझे भी खाने को मिल जाते हैं।

अभी इसी रविवार के दिन वो मिला, कह रहा था बड़ी परेशानी में हूँ। अब रिश्तव देकर लगा है तो रिश्तव लेना तो शयद गलत नहीं है, और अपना पैसा पूरा करना कोई जुर्म तो है नहीं। इसी चक्कर में एक विद्यार्थी से उसने ३०० रुपये उसके पे
पर में नकल का इंतजाम करने के लिए ले लिए। लेकिन उसे नहीं पता था कि डयूटी पर तैनात अध्यापक उसका भी बाप निकलेगा।

जब वह पकडा गया तो मुश्किल से ५०० रुपये देकर उस अध्यापक की जीभ पर पिन ठुकी। अब बेचारा दब्बू तो २०० रुपये गवांकर अपने आप को सुरक्षित महसूस करने लगा जैसे उसका तो किसी खून के जुर्म से पिण्ड छूटा हो। लेकिन उस सेन्टर के सुपरइन्टेंडेंट को जैसे ही इस बात की भनक लगी वह कुत्ते की तरह उस अध्यापक की ओर लपका। अध्यापक को तो वह किसी जंगली भेडिये की तरह अपनी ओर आता दिखाई दिया, सो उसने पहले से ही अपनी जेब से हरी कन्नी वाले 1० नोट निकाल लिए थे यानि १००० रुपये। सुपरइन्टेंडेंट को तो जैसे हड्डी मिल गई और लगा उसे चबाने। चलो अध्यापक की भी हुई रिहाई।

सुपरइन्टेंडेंट हड्डी चबाने में इतना मस्त था कि कब फलाईंग ने उसे हड्डी चबाते देखकर लात लगाई कुछ पता ही नहीं चला। डी. ई. ओ. साहब स्वयं अपने काफिले के साथ उसके सामने प्रकट थे। देखकर भौचक्का-सा रह गया सुपरइन्टेंडेंट अब हड्डी को छुपाता भी तो कहाँ। ‘बरखुरदार! क्या चल रहा है इस सेन्टर में, सुना है बड़े अच्छे परिणाम निकलवाने की तैयारियाँ चल रही हैं।’ कड़ाकेदार आवाज में डी. ई. ओ. साहब बोले। अब मरता क्या न करता, कहीं जाकर दस हजार में
बख्शा उसका ताज।

डी. ई. ओ. साहब रात को घर जाते हुए अपनी बीवी के लिए एक साड़ी साथ लेकर चले। बहुत दिनों से नाराज धन्नों आज तो उन पर जान छिड़कने वाली है सोच-सोचकर डी. ई. ओ. साहब की हृदयगति मैट्रो-सी गति पकड़ रही थी। कुछ ही दिनों में यह खबर घसीटते-घसीटते राज्य के शिक्षा मंत्री तक पहुँची। शिक्षा मंत्री हैरान थे यह सब सुनकर और प्रसन्न भी। क्योंकि अब उनकी लाटरी निकलने में भी ज्यादा वक्त नहीं बचा था।

दूसरे ही दिन डी. ई. ओ. साहब के कार्यालय में मंत्री जी का आगमन बड़े ही शोर-शराबे के साथ हुआ। डी. ई. ओ. साहब को भी हैरानी थी, अब ये हरामी यहाँ क्या करने आया है। थोडी देर फुसफुसाहट के बाद तय हुआ कि पचास हजार में सौदा पक्का। कार्यालय के सभी कर्मचारियों को कहा गया कि अब वह दिन दूर नहीं जब अपना जिला शिक्षा के आँगन का गुलाब बन जाएगा, चारों ओर खुशबू ही खुशबू होगी। शिक्षा मंत्री होर्नों की भयंकर ध्वनियों के साथ शहर से विदा हुए।

लोगों में भी उत्साह नजर आ रहा था अगले दिन समाचार पत्रों में इस खबर को पढ़कर। अभी शिक्षा मंत्री अपने कार्यालय
पहुँचे भी नहीं थे कि अज्ञात सूत्रों द्वारा केन्द्रिय शिक्षा मंत्री तक यह जानकारी प्रेषित की जा चुकी थी। राज्य के शिक्षा मंत्री की तो जैसे जान ही निकल कर सामने खड़ी हो गई हो, जब उन्होंने केंद्रीय शिक्षा मंत्री को अपने कार्यालय में पहुँचते ही पाया। ‘सर! आप यहाँ बिना सूचना।’ राज्य शिक्षा मंत्री ने सहमते हुए पूछा। अगर सूचना करके आता तो तुम्हारे इन कारनामो को कैसे जानता ? निकालो ५०+५० यानि एक लाख रुपया और दफा हो जाओ मेरी नजरों के सामने से, ऐसी घिनौनी हरकतें करते जरा भी नहीं सोचते देश धर्म के बारे में तुम लोग। रिश्वतखोरी के नाखून इस कद्र पैने और बडे हो चुके हैं कि जंगल का राजा शेर तक खौफ खाये।

दब्बू ने यह सारी घटना इस तरह से सुनाई जैसे परियों की कोई मनमोहक कहानी हो। हालाँकि मुझे भी इस कहानी में बड़ा आनंद आ रहा था, लेकिन साथ ही मैं सोच रहा था कि अगर मैं शिक्षा के क्षेत्र में केंद्रीय शिक्षा मंत्री से भी बड़ा अधिकारी होता तो मुझे इतने रुपये मिल जाते कि मेरी तो बल्ले-बल्ले। इसी कल्पना में डूबा मैं कहीं खो गया हूँ।

५ दिसंबर २०११