हास्य व्यंग्य

देशभक्ति और सरसों का साग
-रमाशंकर श्रीवास्तव


भारत एक बड़ा देश है। इसको आजाद कराने में बहुत मेहनत लगी है। सैकड़ों नेताओं ने कुर्बानियाँ दी हैं। आज के लाखों स्वतंत्रता सेनानी उस त्याग के गवाह हैं। इसलिये यहाँ देशभक्ति की परम्परा अटूट है।

सुबह का अखबार पढ़ा तो अपने देश के प्रति भक्तिपूर्ण चिंतन और बढ़ गया। समाचार था कि सरकार के एक बड़े सचिव अपने पोते का जन्मदिन मनाने सरकारी खर्च पर न्यूयार्क गए हैं। वे अपने साथ सरसों का एक किलो साग भी लेते गए हैं।

उतना बड़ा अपसर तीन रुपये का भारतीय साग उतने बड़े देश में लेकर गया, यह सोचकर मेरा मन प्रशंसा भाव से गद्गद् हो उठा मैंने उसकी देशभक्ति को धन्यवाद दिया। एक हम हैं जो मातृभूमि का बोझ बने यहीं पड़े हुए हैं। भारत भूमि पर उगने वाला बेचारा सरसों का साग भला क्या जानता कि उसको भी हवाई जहाज से कई हजार किलोमीटर यात्रा करनी पड़ेगी। अमेरिका में कभी कहीं न कहीं साग तो उपजता ही होगा। उस सरसों के साग को वहाँ के सागों ने साश्चर्य देखा होगा और उसके भाग्य की सराहना की होगी। धन्य हो तुम जो न्यूयार्क तक आगए। हम तो दिल्ली नहीं पहुँ सके। सत् संगत का फल है संगत पाकर ही कोई आकाश में उड़ता है और कोई गड्ढे में डूबता है।

मेरी इच्छा हुई कि उस अफसर के दर्शन करूँ। फोन पर मालूम हुआ कि वे अभी न्यूयार्क से लौटे नहीं हैं। कुछ कंपनियों की दावत में शामिल होने में कुछ दिन और लगेंगे। मैं उनके बंगले पर उनकी बीवी नौकर और कुत्ते से भी मिल आया। साहब अभी नहीं लौटे थे।

इस देश का अब तक कबाड़ा निकल गया होता यदि ऐसे देशभक्त अफसर इसे नहीं मिले होते। उनकी कोई फोटो होती तो मैं उसकी ही पूजा करता। जाकर मैंने नौकर से पूछा, अपने साहब की कोई फोटो मुझे दे सकते हो, वह पहले चौंका। जब मैंने आत्मीयता दिखाते हुए उसे विश्वास दिलाया कि मैं भी उसके ही गाँव के आस पास का हूँ। मैं भी पेट लेकर नौकरी करने दिल्ली आया हूँ। तब नौकर थोड़ा पिघल गया। अंदर गया और पाँच मिनट में उदास चेहरा लिये लौट आया। बोला बीवी जी पलंग पर लेटी नावल पढ़ रही हैं वहीं साहब की एक फोटो टेबुल पर रखी है। बीबी जी जब नींद की गोली खाकर सो जाएँगी तब वह फोटो मिल सकती है।

बिना फोटो लिए मैं लौट आया फिर सोचा, कल्पना की आँखों से भी तो उनका दर्शन किया जा सकता है। मैं जब ध्यान में था तभी एक मित्र आ गए। मेरा भी कैसा खोटा भाग्य है कि जब भी मैं किसी का ध्यान लगाए बैठता हूँ तभी कोई न कोई मित्र आ टपकता है। मित्र से भी मैंने उस अफसर की देशभक्ति की चर्चा की। सुनते ही मित्र तुनक पड़ा, भावुकता इस देश में पागलपन का नाम है। भवुकता में तुम उस सचिव को पूज्य मान बैठे हो। पता है, उसका एक किलो साग इस देश को कितना महँगा पड़ा है। वह तीन रुपये का साग बारह सौ रुपये में पड़ा है। हवाई शुल्क के कारण और वह बारह सौ हमारे तुम्हारे ऊपर टैक्स है। ये अफसर और नेता जो बड़ी-बड़ी यात्राएँ करते हैं उसकी कीमत देश को चुकानी पड़ती है। ऊपर से तुम्हें उसकी फोटो चाहिये।

मुझे तो जैसे लकवा मार गया। अब किस देशभक्त का ध्यान करूँ!

अफसर जब स्वदेश लौटे तो हवाई अड्डे पर संवाददाताओं ने घेर कर पूछा, “सर आपका सरसों का सैग कैसा रहा?”
साहब खुश होकर बोले, “अमेरिका में उसक बड़ी सराहना हुई।“

“स्वयं खा गए या दूसरों को भी खिलाया?”
“नहीं उन्हें भी चखाया। इस पर उन लोगों ने मुझे बड़ी बड़ी दावतें दीं। एक ने पूछा क्या आपके यहाँ साग खूब होता है, इस पर भरोसा कर क्या भारत में हम फूट प्रोडक्ट का कारखाना लगा सकते हैं?”

एक संवाददाता नें बीच में टोका, “लेकिन सर उन्हें साग के साथ मकई की रोटी भी तैयार करनी पड़ेगी।“
“वे मकई की रोटी के लिये तैयार न हों शायद।“

“सर आप यह महसूस नहीं करते कि आपका एक किलो साग इतनी दूर ले जाना, इस देश को कितना महँगा पड़ा।“
“संवाददाता के प्रश्न पर अफसर की आँखें तन गईं वह बोला आप यह क्यों नहीं कहते कि छोटी छोटी चीजों को विदेश पहुँचाकर हम एक प्रकार से देश सेवा ही करते हैं। हममें देशभक्ति न हो तो हवाई जहाज में हम पाँव तक न रखें। जान को जोखिम में डालकर विदेश जाना पड़ता है। मेरी इस देशभक्ति का क्या मूल्य है। आप तीन रुपये के साग के पीछे पड़े हैं। देशभक्ति को पैसे से मत तोलिये समझे। साग तो इंटरनेशनल फोरम हमने पहुँचाया है। छोटो मोटे टैक्स की चिंता कीजियेगा तो यह देश कभी आगे नहीं बढ़ेगा।“

अफसर आगे बढ़ गए संवाददाता खड़ा का खड़ा सोचता रहा क्या देशभक्ति देश को खाने के लिये बनी है।

२४ जनवरी २०११