हास्य व्यंग्य | |
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गया मेंढक
कुएँ में |
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इन दिनों वोट ऋतु छाई हुई है। बहुत मनमादक बहार है। राजधानी में गुलाबी सर्दी दस्तक दे चुकी है। पर चुनावों ने तो बुरी तरह खड़खड़ा दिया है। जिनको टिकट नहीं मिले वे बुरी तरह लड़खड़ा चुके हैं। फिर भी हड़बड़ा नहीं रहे हैं। यही प्रत्याशियों का प्यार है। चाहे टिकट न मिले फिर भी उनकी विकेट जमी रहती है। मौसम कोई भी आए, कोई भी जाए परन्तु यह विकेट न स्टंप होती है, न हिलती है यह दृश्य इस विकेट का स्थाई भाव है। क्रिकेट वाले सचिन भी चर्चा में हैं। उनकी चर्चा जिसके लिए होती है, बस होती ही जाती है और वे रिकार्ड बनाने में जुटे रहते हैं। कभी उनकी करारी (बैटिंग) के चर्चे होते हैं तो कभी फरारी (कार) के। इधर हरभजन यानी भज्जी अलग तरह के रिकार्ड बना रहे हैं, उन्हें फरारी की ज़रूरत नहीं करारी (थप्पड़) ही काफी हैं, उनको सुर्खियों में लाने के लिए। सुर्खियाँ भी ऐसी वैसी नहीं, ब्रेकिंग न्यूज। इससे कम कभी नहीं। वोट की ऋतु में सर्दी जुड़ चुकी है हाँलाँकि अभी सामान्य है, कुछ दिनों में घमासान होगी। चुनाव भी बरसात से कम नहीं हैं। सर्दी को अगर हाड़ तोड़ने हैं तो बरसात की ज़रूरत स्वयंसिद्ध है। चुनाव बरसात है तो उम्मीदवार मेंढक माने जाएँगे। बरसात में मेंढक न हों तो बारिश बेमज़ा हो जाएगी। राजनैतिक पार्टियों और उम्मीदवारों को काली करेंसी मिल रही है। सभी की चाहत है कि ये बरसात घनघोर हो, चाहे आंधी ही क्यों न आ जाए और दाता बंधु उद्योगपतियों के नोट बहकर इनके पास आ जाएँ जिसके ज़रिये ये अधिक से अधिक वोट बटोरने में सफलता हासिल कर सकें। बरसात के बाद नून, तेल, लकड़ी यानी रोज़मर्रा की ज़रूरत की सभी वस्तुएँ महामहँगी हो जाएँगी क्योंकि साठ पार कर चुके मेरे प्यारे स्वाधीन देश में यदि किसी चीज़ पर अंकुश नहीं है तो वो है महँगाई और अंग्रेज़ी। मंदी में भी अटकलों का बाजार गर्म है। मंदी के बुरी तरह पसरने के बाद भी कटौती करने की किसी की नीयत नज़र नहीं आ रही है। बरसात (चुनाव) के बाद मेंढक (उम्मीदवार) तो कुएँ में छलांग लगाकर छिप चुके होंगे और जनता मेंढक नहीं हो सकती कि वो भी पानी में उतरने का साहस करे। वो दिल्ली का वो मेट्रो पुल भी नहीं हो सकती जो पिछले दिनों अल्लसुबह सड़क पर पसर गया और कइयों को पसरा दिया। जनता जनार्दन को वैसे भी भेड़ माना गया है, जनता यानी भीड़ ने भी इसे भेड़ भाव से अंगीकार कर लिया है तो मैं इस पर आपत्ति करने वाला कौन? चुनाव की नाव में सवार कितने होते हैं पार और कितने डूबते हैं, यह सब जानते हैं। जो हो जाते हैं पार, वो तो ठीक, बाकी हो जाते हैं तनाव की नाव में सवार। फिर से चलता रहता है सरकार का चुनावी व्यापार। इधर मतदाता अगर जाग भी रहा है तो भी फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि उसे तो हर हाल में खोना ही है। पोस्टर छपेरे अपने कार्य को अंजाम दिया ही चाहते हैं। नोट छप रहे हैं, काम में खूब तेज़ी है। सब तरफ़ लगन है, तन्मयता है। जो दीवारों को इन पोस्टरों से भरेंगे, क्या उन्हें नोट नहीं मिलेंगे? कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि कमाई के इस स्वर्णिम वातावरण में हर तबका कमाई करने में तल्लीन है, सिवाय सरकारी कर्मचारियों के क्योंकि वो बेचारा तो किसी भी गिनती में नहीं आता। एक कतार में वैसे सिर्फ़ वो ही वो है, ईमानदारी से आयकर देने वालों में, वो ही सर्वोपरि है। छुटभैये बीच में ही खा रहे हैं, लेकिन इतने विस्तार में जाने की फ़ुर्सत नहीं है और वोटर कुछ समझदार तो हैं ही। आखिर वोट देने का पुराना अनुभव है। आप भूले तो नहीं, हमने इस चुनाव रूपी बरसात में
उम्मीदवार नेताओं को मेंढक माना है। अब इन मेंढकों का ही राज होने वाला है बल्कि
यों कहना अधिक समीचीन होगा कि हो गया है। ये टर्राये जा रहे हैं, टर्राये जा रहे
हैं। केवल अपने ही क्षेत्र में, मोहल्ले में, मोहल्ले की गलियों में इन्हीं का
हल्ला है, गली के प्रत्येक घर पर इन्हीं की नजर है। हर द्वार पर ये अपनी अभिनय कला
का प्रदर्शन करते दिखलाई दे रहे हैं, सबके सामने हाथ जोड़े खड़े हैं, बुजुर्गों के
चरण छूकर आशीर्वाद ले रहे हैं, हाथ मिला रहे हैं, बच्चों को प्यार से दुलार रहे
हैं, गोद में उठा कर अपने स्नेह को सार्वजनिक कर रहे हैं। वे कूप मंडूक हैं उनकी
नज़र कैमरे पर है लेकिन आतंकवादियों पर नहीं है। लोग जान से जा रहे हैं और मेंढक
सिर्फ़ टर्रा रहे हैं।
८ दिसंबर २००८ |