हास्य व्यंग्य | |
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कवि कालिदास का
जन्म-स्थान |
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इतना तो लगभग निश्चित हो ही चुका है कि कवि कालिदास नाम के सज्जन कभी न कभी हुए ज़रूर थे। क्यों कि किसी और देश ने उनके बारे में अपना कोई दावा अभी तक दायर नहीं किया है, इस कारण यह स्वीकार करना भी न्यायसंगत ही होगा कि कालिदास मात्र हुए ही नहीं थे वरन भारत में ही हुए थे। अब सिर्फ़ दो मुद्दे बाकी रह जाते हैं : एक तो यह कि वे कब हुए थे और दूसरा यह कि उनका जन्मस्थान कहाँ था। पहला मुद्दा श्रीलाल शुक्ल ने हल कर ही दिया है, उनकी खोज के अनुसार कालिदास का जन्म चौथी शताब्दी में (क्यों कि वे विक्रमादित्य के समकालीन थे) और मृत्यु दसवीं शताब्दी में (क्यों कि राजा भोज दसवीं शताब्दी में राजा थे) मानना शास्त्र सम्मत है। छह सौ वर्ष की आयु कालिदास जैसे कवि के लिए ज़्यादा नहीं है, क्यों कि रससिद्ध कवीश्वरों की काया तो ज़रा और मरण दोनों से मुक्त होती है। अब मात्र मुद्दा क्रम संख्या दो बचता है सो उसे मैं हल करता हूँ। 'हावड़ा पंडित समाज' के अनुसार कलिदास बंगाली थे। इस मत के पीछे काफी तर्क दिए गए। पहले तो 'ऋतु-संहार' में वर्ष का प्रारंभ ग्रीष्म ऋतु से माना गया जो कि बंग देश की प्रथा रही। दूसरे 'मेघदूत' में आषाढ़ के पहले दिन की ही चर्चा क्यों की गई दूसरे या तीसरे दिन की क्यों नहीं? महीनों के प्रथम दिन की चर्चा करना भी बंग देश में ही प्रचलित था। तीसरे कालिदास ने ग्रीष्म ऋतु के गुण इतने गाए कि देश के किसी और भाग का निवासी वैसा कर ही नहीं सकता। शेष भारत में तो सिर्फ़ गधे को छोड़कर, गरमी इतनी नहीं भाती। चौथे, कालिदास ने यह कहा कि पके आम बड़े मधुर होते हैं और पाँचवें, उनकी कृतियों से यह भी पता लगा कि उसने ऐसे प्रदेश का वर्णन किया जहाँ झीलें, तालाब और नदी-नाले काफ इफ़रात के साथ पाए जाते थे। इन ढेर सारे प्रमाणों के सामने अगर कालिदास खुद भी खड़ा होता तो शायद यही कहता, ''हाँ भाई, मैं बंगाली हूँ, एकदम बंगाली। सफ़ेद रसगुल्ले खाओ और मेरा पीछा छोड़ो। मुझे इसी हफ्ते महाकाव्य लिखना है। राजा विक्रमादित्य का जन्मदिन अगले बुधवार को है और मैंने अभी तक उस सुमुखी वेश्या के कारण एक भी पंक्ति नहीं लिखी।'' प्राचीन इतिहास के अधिकारी डॉ. गोविन्द चन्द्र पाण्डेय ने बंगवासियों का दावा स्वीकार नहीं किया। उनकी वाणी के अनुसार कालिदास को सारी ऋतुएँ बराबर पसंद थी और वह सारे भारत के हें किसी एक प्रदेश विशेष के नहीं। उन्हें हिमालय की उतनी ही जानकारी है, जितनी कि दक्षिण के समुद्रतटों की। डॉक्टर पाण्डेय के अनुसार जो कुछ भी सबूत मिलते हें उनके अनुसार कालिदास पश्चिम भारत के निवासी थे। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार कालिदास ने पश्चिमी भारत के नगरों और ऋतुओं का विवरण दिया है, उससे साफ़ जाहिर है कि वे पश्चिम भारत के थे, कश्मीर, बंगाल, केरल, तमिलनाडु या राजस्थान के नहीं। डॉक्टर पाण्डेय के अनुसार आम तो गालिब भी खाया करते थे मगर वैसा करने से वे बंगाली तो नहीं हो जाते। अन्त में उन्होंने कहा कि अभी और खोज होनी है और सच्चाई का पर्दाफाश तब होगा। बंगाल के जिन विद्वज्जनों ने कालिदास को बंगवासी सिद्ध करने की चेष्टा की है, मेरे विचार में वे एक काफी बड़ा तर्क देना भूल गए ओर वह तर्क है कि कवि का नाम। चण्डीदास, गोविन्ददास और देवदास- इन महान नामों पर यदि ध्यान दिया जाए तो जाहिर होता है कि कालिदास भी बंगाल के ही वासी रहे होंगे। मुझ दासानुदास की राय के मुताबिक यदि यह तर्क अपनाया गया होता तो कुछ दिनों बाद सूरदास, केशवदास और तुलसीदास को भी बंगाली घोषित किया जा सकता था। खैर, जो हो गया सो हो गया। वैसे भी यह संभव है कि कवि का असली नाम कालिदास न होकर कुछ और ही हो। मैंने विमलराय की 'देवदास' देखी और बाद में पता चला कि देवदास का असली नाम दिलीप कुमार था। यह बात मैंने जब एक बुजुर्गवार से बताई तो वे बोले कि जो तस्वीर उन्होंने कभी देखी थी उसमें देवदास का असली नाम कुन्दनलाल सहगल था। मैं चुप हो गया। खैर, परदा जो था उसे फ़ाश करता हूँ। वर्षों की निरंतर खोज के बाद मैं इस ऐतिहासिक और भौगोलिक निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि कालिदास उत्तर प्रदेश के थे और उस प्रदेश में भी मेरे ज़िले के थे। दक्षिण के सुधिजनों ने एक बार कहा था कि 'शेक्सपियर' जो था वह 'शेशप्पा अय्यर' नाम का एक मद्रासी ब्राह्मण था जो पुराने जन्मों के पापों के प्रभाव से मलेच्छ भाषा में लिखने लगा था। पंजाब के बुद्धिजीवियों ने तुरंत घोषणा की थी और साबित किया था कि दक्षिणपंथियों का दावा सारहीन था, क्यों कि शेक्सपियर दरअसल जिला गुजरांवाला का रहने वाला था और उनका नाम 'शेख पीर' था। 'शेख पीर' से वह 'शेख प्यारा' हुआ और उसके बाद अँग्रेज़ी उच्चारण में वह 'शेक्सपियर' कहलाया। मैं पूछता हूँ कि यदि शेक्सपियर जिला गुजरांवाला में प्रकट हो सकता है तो कवि कालिदास मेरे ज़िले बिजनौर का निवासी क्यों नहीं हो सकता? अब मैं मज़ाक का मूड छोड़ता हूँ और बात को गंभीरता शुरू करता हूँ। कवि कालिदास सूबा आगरा और अवध, कमिश्नरी रुहेलखंड ओर जिला बिजनौर के निवासी थे- इस मत की पुष्टि के लिए जो न्यायसंगत तर्क मुझे प्राप्त हुए हैं वे इस प्रकार हैं :
तो मैंने वर्षों के सतत परिश्रम से सिद्ध कर दिया कि कालिदास का सही जन्मस्थान कहाँ था। मेरे जो तर्क हैं वे 'विक्रमोर्वशीयम्' की इस पंक्ति की याद दिलाते हैं - 'कूजितं राजहंसानां, नेदं नूपुरशिंजितम्' यह राजहंसों का कूजन है, कोई नूपुर-ध्वनि नहीं। आपको उचित होगा कि मेरी सम्मति को स्वीकार करें। यह कवि की इच्छा के अनुकूल होगा। 'मालविकाग्निमित्र' में कालिदास कहते हैं ''मूर्ख लोग जो हैं, वे दूसरों के विश्वास से अपना मत निश्चित करते हैं।'' क्या आप कवि की वाणी की अवहेलना करेंगे? अब तो बस एक बात बचती है और सोचता हूँ कि उसे भी बोल दूँ। प्रशासन को उचित होगा कि वह मुझे काफी बड़ी धनराशि दे ताकि मैं अपने ज़िले में कहीं सही जगह पर 'कालिदास-भवन' का निर्माण करा सकूँ। इस भवन में शकुंतला का बंदोबस्त भी होगा, मृगया का भी और सपरिवार मेरे रहने का भी। विदूषक का पार्ट दर्शक लोग अदा करेंगे। ज़ायक़ा बदलने के लिए कालिदास की पुस्तकें भी एक छोटे-से कमरे में रख दूँगा। गोवर्धनाचार्य ने कहा था, ''साकूत मधुर कोमल विलासिनी कण्ठकूजितप्राये, रतिलीला कालिदासोक्तिम्।'' जो लोग गोवर्धनाचार्य के मत के होंगे, वे कालिदास पढ़ेंगे; जो समझदार होंगे वे प्रियंवदा के साथ बीयर पिएँगे। |
(साभार : पूरब खिले पलाश, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली) ३ नवंबर २००८ |