हास्य व्यंग्य

हाफ़ पैंट में मॉर्निंग वॉक
--मनोहर पुरी


सुबह-सुबह 'हाफ़ पैंट' पहनकर झुंड के झुंड बुड्ढों को पड़ोस के पार्क में सैर करते हुए आपने भी देखा होगा। कभी-कभी आपको उसमें अपना भविष्य नज़र आया होगा। छड़ी से होड़ लेती उनकी टाँगे नृत्य की मुद्रा में डगमग-डगमग डोलती 'क्विक मार्च' करती देख कर आपका मन बाग-बाग हो गया होगा। आपने एक नज़र अपनी पुष्ट जाँघों और पिंडलियों पर भी डाली होगी और आपको लगा होगा अभी तो मैं जवान हूँ। मुझे नहीं लगा था ऐसे। मेरी स्थिति लगभग वैसी ही थी जैसी इन बूड्ढों की दिखाई दे रही है। उनका जोश देख कर मेरा मन बल्लियों उछलने लगा था। उनको देख कर मुझे लगा कि जीवन उतना नीरस नहीं है जितना मैंने उसे रिटायर होने के बाद समझ लिया था। पहले तो अपने को बुड्ढ़ा समझा अब इनको समझ रहा हूँ।

वास्तव में यह तो दूसरी पारी खेल रहे हैं और बीती ताहि बिसार कर जीवन को ठेल रहे हैं। गाँव के जीवन से ऊब कर कुछ ही दिन पहले मेरा आगमन हुआ था इस महानगर में। अपने बेटे के घर रंगीन तस्वीरें दिखाने वाली मशीन पर मैं यह दृश्य देखकर अटक गया था और मेरा मन भी 'मार्निग वॉक' के लिए मचल गया था। कहाँ गाँव में सुबह-सुबह कान पर जनेऊ लपेट कर दिशा मैदान को जाना और लोटे को कुएँ पर माँजते हुए वापस लाना। रास्ते में अपने चारों ओर केवल गहरा हरा रंग देखना मुझे खिन्न कर देता था। लगता था कि जीवन की सारी रंगीनियाँ कमबख्त इस हरे रंग में सिमट कर रह गई हों जैसे। मुँह अन्धेरे उठ कर सब से पहले यह सब निपटाना विचारों को छिन्न भिन्न कर देता था। यहाँ शहर में अपनी मर्ज़ी से जब चाहे जाओ, जब चाहे मौज मनाओ। कोई बंधन ही नहीं था।

गाँव कीं सीधी सादी मंद-मंद चलती हवा में कुछ जीवन ही नहीं होता था। न जाने वह कौन-सा कवि था जिसने लिख दिया था, ''आह! ग्राम्य जीवन भी क्या है।'' क्या ख़ाक जीवन है कहीं किसी प्रकार का मनोरंजन ही नहीं। चारों ओर धरती से उठती मिट्टी की दुर्गन्ध। यहाँ पर अनेक प्रकार की गन्धों और सुगन्धों से रची बसी शहरी हवा महक-महक कर हर एक का मन मोह लेती है। उसी महक का आनन्द उठाने के लिए ही शायद इतने सारे लोग शैय्या का मोह त्याग कर सुबह-सुबह जिस पार्क में सींग समायें उसमें घुस जाते हैं। जब वे घर से निकलते हैं तभी उनके नथुने सुगन्ध पान करना शुरू कर देते हैं। पार्क में पहुँचने से पहले नगर निगम के कर्मचारी इस सुगन्ध को बड़े-बड़े ट्रकों में भर कर ले जाते दिखाई देते हैं। सारा राजपथ कैसे महक-महक उठता है, इसका आनन्द तो कोई भुक्त भोगी ही बखान कर सकता है। एकाएक पार्क में वातावरण का बदलाव लोगों को निराश न कर दे इसे ध्यान में रखते हुए नगर निगम ने प्राय: हर पार्क के साथ एक कूड़ा घर भी बना रखा है। रही सही कसर वे लोग पूरी कर देते हैं जिनकी मुँह अन्धेरे डिब्बा ले कर बाहर जाने की आदत अभी छुटी नहीं होती। आखिर बचपन से बुढ़ापे तक की कुछ आदतें जाते-जाते ही तो जाती हैं।

गाँवों में कभी कभार कुम्हार का एक आध भट्टा वहाँ की हवा को सुवासित करता है। यहाँ पर करोड़ों रुपए के मूल्य से निर्मित कारखानों की चिमनियों से निकलता हुआ धुआँ पूरी हवा को मूल्यवान बना देता है और वह धुआँ मिश्रित पवन शहरियों को बिना किसी शुल्क के बाँट दी जाती है। इसे देहातों की पूर्ण उपेक्षा का सबसे बड़ा उदाहरण माना जा सकता है।
गाँवों में धुएँ सरीखी मूल्यवान वस्तुओं का पूरी तरह से अभाव था, अब मुझे शहर के जीवन की कीमत समझ में आने लगी थी। जहाँ प्रतिदिन करोड़ों रुपए मूल्य के लाखों वाहन अपना धुआँ मुफ्त में ही हवा में मिला देते हों और सांस लेने वाली हवा पर भी कोई भी टैक्स न हो, इस बात की मुझे हैरानी थी। सनातन काल से हम अनेकानेक यज्ञों एवं हवनों द्वारा हवा में धुआँ मिलाते आए हैं परन्तु इसके लिए हमेशा हमें पंडित जी को भेंट पूजा में दक्षिणा देनी ही पड़ी है। उस धुएँ के आसपास बैठने वालों को भी प्रसाद रूप में कुछ न कुछ कर चुकाना ही पड़ता है। फिर कहाँ वह देसी घी मिश्रित सामग्री का दकियानूसी धुआँ और कहाँ आधुनिक चमत्कारों और आयातित रसायनों का कार्बनमोनोडायोक्साईड युक्त शुद्ध वैज्ञानिक धुआँ, दोनों में कहीं कोई मुकाबला ही नहीं। मेरा मन यहाँ आ कर बहुत प्रफुल्लित हो उठा था।

खैर! मैं हाफ पैंट पहनकर किसी पार्क में मार्निंग वॉक करने की बात कर रहा था, जिसके लिए मेरी पहली आवश्यकता थी कि किसी भी प्रकार से एक अदद हाफ़ पैंट का जुगाड़ करना। ढीली-ढाली धोती सुबह-सुबह की तेज़ हवा में इधर उधर फहराती तो हमें कभी कभार गाँव में भी लज्जित कर देती थी, शहर की तो बात ही क्या। सुबह-सुबह चलने वाली तेज़ हवा में कभी-कभी यह धोती किसी राजनीतिक पार्टी का झंड़ा बन जाया करती थी। इसीलिए यहाँ की महिलाएँ भी साड़ी को त्याग हाफ़ पैंट में सैर को प्राथमिकता देती हैं तो हम क्यों कर धोती को अपनी टाँगों से चिपकाए रहते। हाफ़ पैंट की खोज में हमने अपने पोतों की अलमारियों को उथल-पुथल कर डाला जैसे कस्टम विभाग के लोग विदेशी सामान की खोज में प्रवासी भारतीयों की अटैचियों को मथ डालते हैं। परन्तु हमें यहाँ भी निराशा ही हाथ लगी। हमें वैसी कोई ढंग की नेकर दिखाई नहीं दी जैसी हमारी टेनिस स्टार सानिया मिर्ज़ा पहन कर खेलती हैं। बहू की अति स्थूलकाय कमरे के नाप से बनी नेकर हमारी कमर पर कैसे टिकती यह सोचकर हमने उस ओर झाँकना तक मुनासिब नहीं समझा। झक मार कर हमें कडुवा घूँट पीते हुए बाज़ार से नेकर सिलवाने के लिए कपड़ा ख़रीदना पड़ा। कपड़ा ख़रीदते समय हमने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि वह उसी मिल का बना होना चाहिए, जिसकी चिमनी का शहरी वायुमंडल को महकाने में, सर्वाधिक योगदान हो। स्वाभाविक था कि ऐसी मिल का कपड़ा भी महँगा होता। पेंशन का एक भाग इस हाफ़ पैंट के रूप में मार्निंग वॉक के यज्ञ में स्वाहा करते हुए हमें तनिक भी हिचकिचाहट नहीं हुई, जैसे हमारे देश में ऊपरी कमाई करने वाले सरकारी महकमों के अफसरों को होटलों में भारी टिप देते हुए नहीं होती।

घर की गली के आस-पास बहुत सिर पर पटका एक भी दर्ज़ी आस पास ज़मीन पर बैठा दिखाई नहीं दिया। बहुत झक मार कर हमने दर्ज़ी की दुकान की खोज कर ली। दर्ज़ी की एक दुकान के सामने पहुँचकर मैं ठिठक गया। कपड़े के उस छोटे से पैकेट को मैंने अपनी बगल में वैसे दबा रखा था जैसे सुदामा चावलों की पोटली छिपाए श्री कृष्ण के महल के द्वार पर पहुँचे थे। जैसे कृष्ण का महल देख कर सुदामा भौंचक्के रहे होंगे मैं भी उस दुकान को देख कर हैरान हो गया। बड़ी ही लंबी चौड़ी दुकान थी। वहाँ पर औरतों और मर्दों को एक साथ शीशे की बड़ी-बड़ी अलमारियों में सुन्दर-सुन्दर पोषाकें पहना कर बन्द करके रखा गया था। मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि ये सभी बुत बने क्यों खड़े हैं। उनकी पलकें तक नहीं हिल रहीं थीं। बाद में पता लगा कि वे वास्तव में बुत ही थे। मुझ जैसे हाफ़ पैंट सिलवाने वाले बड़े-बड़े ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए ही उन्हें वहाँ ला कर सजाया गया था और एक से एक बढ़िया सुन्दर सूट पहनाया गया था।
आज तक सिलाई के नाम पर हमने केवल कुर्ता ही सिलवाया था, जो हमारे गाँव का दर्ज़ी मशीन कंधे पर उठा कर लाता और हमारी ही बैठक में सिल कर हमें शानदार ढंग से पहना कर जाता। कुर्ता सीते समय हम उसके सामने के तख्त पर किसी राजा की तरह से विराजते और वह प्रजा सरीखे नीचे बैठा प्रशंसा के दो बोल सुनने को तरसा करता।

हाफ़ पैंट सिलवाने में मुझे बड़ी शर्म आ रही थी, परन्तु जब सिलवाना था तो सिलवाना ही था। शर्म हया को आजकल की छोकरियों के दुपट्टे की तरह पेड़ पर टाँग कर मैंने छाती फुलाने का प्रयास किया तो कमबख़्त पूरा दम ही फूल गया। मैंने अपने आपको कोसा भला क्या ज़रूरत थी ऐसे समय में दम फुलाने की। खैर साहब। बहुत हिम्मत जुटा कर जब मैं दुकान के भीतर गया और वहाँ एक लम्बे चौड़े काउन्टर पर बैठे आदमी के सामने शान से कपड़ा पटकते हुए कहा, ''हाफ़ पैंट सिलवानी है मियाँ।'' उसने फटे जूते सरीखा बुरा-सा मुँह बनाया, मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा, मेरी सिलवटों से भरी पीली पड़ी धोती पर नज़र डाली और इधर उधर झाँकने के बाद लापरवाही से कहा, ''लगता है बच्चे को तो आप साथ नहीं लाए, शायद उसे घर पर ही भूल आए। घर जा कर पहले बच्चे को लाएँ और सामने वाले काउन्टर पर उसका नाप दे जाएँ। तत्काल आपको मिल जाएगी, तीन चार महीने में सिल जाएगी। बहुत रश का है ज़माना, पिछले साल के वायदों को भी तो है निभाना।'' जब मैंने कहा कि मुझे अपनी ही हाफ़ पैंट सिलवाना है और कल ही पहन कर पार्क में सैर करने के लिए जाना है तो वह भी भौंचक्का रह गया।

अब कुछ कहने की बारी उसकी थी, बोला, ''क्या पार्क में बारात आएगी जो इसे ही पहन कर जाना है। इतनी जल्दी तो दूल्हा दुल्हन लाने में भी नहीं करता जितनी आप नेकर सिलवाने में कर रहे हो। यह नेकर है कच्छा नहीं है कि झट से सी कर पहना दिया, इसे सिलना है, यह नहीं कि गोंद से चिपका दिया। हमारे हुनर की कद्र करो, जब आ ही गए हो तो सब्र करो। अभी तो नाप दे जाओ। तीन चार महीना ज़िंदा रहे तो ले जाना, परन्तु सिलाई एडवांस में दे जाना।''
मैं कुछ और बोलता इससे पहले ही उसने आर्डर बुक निकाली और एक नौकर को हमारा नाप लेने को पुकारा। मेरे लिए यह दूसरा झटका था। यहाँ के तो दर्ज़ी भी नौकर रखते हैं एक नहीं कई-कई। उसने फुर्ती से हमारा नाप बोलना शुरू किया जैसे किसी ढाबे का 'वेटर` किसी नए ग्राहक को मीनू सुनाता है। नौकर का बोलना बंद होते ही उसने एक पर्ची मेरी ओर बढ़ा दी। कपड़े के मूल्य से पाँच गुनी ज़्यादा सिलाई के दाम देखकर हमारा हिसाब किताब गड़बड़ाने लगा। हमें कुछ-कुछ अपना बचपन याद आने लगा जब यह सिलाई का झंझट ही नहीं था, नंगे घूमने पर भी कोई बंधन नहीं था।

२ जून २००८