हास्य व्यंग्य

चुनाव में हार
आशीष अग्रवाल


ऐसी गरमी में चल रही ठंडी-ठंडी पुरवाई भी अच्छी नहीं लग रही थी, आस-पास घेरा बनाए उसके अपने आदमी ऐसे लग रहे थे कि जैसे सारे के सारे उसके लुटने का मज़ा ले रहें हों हालाँकि सभी आदमी उदास थे या यों कहिए मायूस और उदास दिखने का सफल अभिनय कर रहे थे, कम से कम उसे तो ऐसा ही लग रहा था। बात भी कोई छोटी-मोटी नहीं थी चुनाव की हार की थी वो भी विधायक के, कल तक जो कार्यकर्ता उसे विधायक जी-विधायक जी कहकर खुश करते थे अब उसके लिए कोई उपयुक्त संबोधन नही तलाश पा रहे थे। कुछ लोग जो उनके बहुत निकट के थे, पूरे चुनाव के कर्ता-धर्ता थे, सलाहकार थे या कारपोरेट भाषा में उनके पास चुनाव का सी एण्ड एफ था, उसे उसके नाम में सिर्फ़ अतिरिक्त रुप से भाई लगाकर बुला रहे थे।

हर किसी के अफ़सोस जताने पर वो स्वयं सबको ढांढस दे रहा था। कार्यकर्ताओं में चाय-समोसे पहले की तरह बाँटे जा रहे थे, जीत की संभावना में पहले से मँगाए गए लड्डू भी योंही डिब्बों में बंद पड़े थे, समोसा चाय खाने वाले उन्ही डिब्बों को घूर रहे थे मानो जैसे खा जाएँगे। गुलाल के बोरे, आतिशबाजी की पेटी किनारे पर जगह घेरे थीं। आने वाले कार्यकर्ता जिन्हे उचित बैठने का स्थान नही मिल पाया था इन्हीं पर बैठ गए थे कोई इसका विरोध भी नहीं कर रहा था। फूल-मालायें इस तरह से छुपा दी गईं थी कि उसकी नज़र के सामने न आएँ जबकि वे थीं वहीं पर। वो बहुत सुस्त हो गया था फिर भी खुश दिखने का प्रयास कर रहा था उसने अपनी जीत के बाद का भाषण तो तैयार कर रखा था पर हार के बाद क्या कहना है उसने सोंचा भी नहीं था और उसके सलाहकारों ने कभी इस बात के लिए उसे कोई सलाह भी नहीं दी थी, उसका अपना ज्ञान भी कोई ख़ास नही था वो तो उन्हीं लोगों की भाषा बोल पाता था, उन्हीं के बनाए समीकरणों से, हथियारों से वो इस समर को जीतने निकला था। वो था तो व्यापारी, नफ़े नुकसान जोड़ भी सकता था पर उसे नफ़े के ही सारे सूत्र रटाए गए थे। जीतने के बाद क्या-क्या करना है, उसे सब बता दिया गया था उनमें से वो क्या-क्या नहीं करने वाला था वो सिर्फ़ उसी के दिल में था। वो भीतर से इतना दुखी था जितना वृद्ध पिता के मरने पर कोई नाती-पोते वाला बेटा जो परिपक्वता दिखाने के लिए चेहरे से दुख: प्रकट नही करता, ऐसा गंभीर हो गया था उसका मुँह।

वो किसी से बात भी नहीं करना चाहता था पर इतने सारे हमदर्दों, अपनो, पार्टी कार्यकर्ताओं से अपने को अलग नहीं कर पा रहा था हालाँकि वो इन सब से मुक्त करने वाली सभी गालियाँ जानता था, कभी-कभार बकता भी था पर ऐसे संवेदनशील मौके पर वह खुद इनका प्रयोग अच्छा नहीं समझता था इसलिए विरोधियों को दी जा रही गालियों के लिए वो कार्यकर्ताओं को मना कर रहा था, गालियाँ देकर तो वो खुद पूरी भीड़ को हटाना चाहता था पर इन्हीं के कंधों पर चढ़कर ही तो उसने राजनीति के चाँद को पाने की कोशिश की थी, उन्हें एकदम से नहीं भगाया जा सकता था वो यह भी समझ रहा था कि ये भीड़ बहुत देर तक नहीं टिकने वाली है क्योंकि उनमें से तमाम लोगों को जीते प्रत्याशी को बधाई भी देने जाना है पर इक्के-दुक्कों को छोड़कर ज़्यादातर लोगों के बारे में वो ऐसा अनुमान नही लगा पा रहा था।
वो बार-बार सहज होने का प्रयास कर रहा था, उसे पेट में गैस भी महसूस हो रही थी जो सीने की तरफ़ प्रेशर डाल रही थी, चेहरे पर आए पसीने को वो पार्टी के रंग वाले गले में पड़े गमझे से पोंछता जा रहा था। चुनाव से पहले यही गमझा बहुत साफ़ और कलफ़दार हुआ करता था पर पराजय का पसीना पोंछते-पोंछते गमझे की भी अकड़ चली गई थी, पसीना आ भी कुछ ज़्यादा रहा था कुछ पसीना तो खैर गैस की वजह से भी था पर मौजूद कोई भी आदमी उससे इस पसीने के कारण को नहीं पूछ रहा था, कारण शायद सभी को मालूम था। किसी के नहीं पूछने पर उसे खुद कहना पड़ा कि लगता है "गैस चढ़ गई"। लोग उसे आराम की सलाह देने लगे। वो बहुत थका हुआ दिख भी रहा था जबकि उसने पिछले पन्द्रह दिनों से ऐसा कोई थका देने वाला काम नही किया था, शायद भविष्य की दुश्चिंता ने उसके ओजस्वी चेहरे पर यह मलिनता पोत दी थी।

वो सावधानीपूर्वक आने वाले का अभिवादन स्वीकार कर रहा था और उन्हें ऐसी नज़रों से देखता था कि जैसे हर आने वालों की गिनती कर रहा हो कि कोई आना रह तो नहीं गया, जो नहीं आ सके थे उनके बारे में अपने सलाहकारों से बहुत धीरे-धीरे पूछ रहा था। उसे लग रहा था कि सभी हमदर्दों को आ जाना चाहिए था, न आने वालों की निष्ठा पर उसे संदेह हो रहा था उनके पाला बदल लेने का एहसास एक क्षण के लिए उसे विचलित करता परंतु दूसरे ही क्षण हर नए आदमी के आने पर उनके भी आने की संभावनायें भी उसे दिखने लगतीं थीं।

मतगणना स्थल से वापस कार्यालय आने तक वह अपने को इस बात के लिए तैयार कर रहा था कि उसके हार जाने पर प्रचारित अफ़वाहों को वह अपने आचरण से झुठला देगा। वो कुछ-कुछ देर बाद थोड़ा मुस्कुरा भी देता था ऐसा करके वह अपने को अन्य हारे प्रत्याशियों से श्रेष्ठ प्रदर्शित कर रहा था पर कार्यकर्ता नही हँस रहे थे, उन्हें तो अपने को मायूस दिखाना ही था, उसकी हार पर वे इसके अतिरिक्त अन्य किसी तरीके से अपनी भावनायें व्यक्त नहीं कर सकते थे क्योंकि विरोधियों को गाली देने पर उसकी अपनी झुंझलाहट प्रकट हो सकती थी जो वो दिखाना नहीं चाहता था, अत: यह मायूस चेहरा ही कार्यकर्ताओं का निष्ठा दिखाने का एकमात्र उपाय था।
सामने सड़क से गुज़रते लोग भी उसके कार्यालय के सामने मायूस दिखने लगते थे थोड़ा आगे जाकर वो सामान्य हो जाते थे, इससे उसको संतुष्टि मिल रही थी उसे अपने आस-पास का सारा वातावरण गमगीन नज़र आ रहा था, उसे ऐसा लग रहा था कि सारा इलाका उसकी हार से दुखी है। विजयी प्रत्याशी के कार्यालय से ढोल-नगाड़ों व पटाखों की हल्की-हल्की आवाज़ें आ रहीं थी इसलिए कार्यकर्ताओं ने उसके कमरे का दरवाज़ा उड़का दिया था पर उसने अपने विशाल हृदय का परिचय देते हुऐ दरवाज़ा खुला रखने का निर्देश दिया। आवाज़ें फिर सुनाई देने लगीं।

वो अपने कार्यकर्ताओं के बीच बैठा था, उसी जगह पर जहाँ हार से पहले बैठा करता था, इस स्थान पर बैठ कर न जाने क्यों उसे अपने लीडर होने का एहसास होता था, जिस तरह अपनी गाड़ी में ड्राइवर के साथ आगे अकेले बैठे होने पर होता था, गाड़ी में पीछे बैठने वालों की संख्या जितनी ज़्यादा होती थी उसे अपने बड़े नेता बनने का एहसास उतना गहराता जाता था। वो खुले दरवाज़े से बाहर खड़ी गाड़ियों पर उचटती-सी निगाह भी डाल लेता था, उसकी गाड़ी से फूल-मालायें उतारी जा चुकीं थी लेकिन कुछ फूल ऊपर की लाइट पर बँधे धागों से लटके रह गए थे जिन्हें हटाना किसी ने ज़रूरी नहीं समझा और उसने भी उन्हें ऐसा करने को नहीं कहा। गाड़ियाँ थोड़ी गंदी हो चुकीं थीं कोई उन्हें साफ़ भी नहीं कर रहा था, ड्राइवर भी समझ चुका था कि भैया अब कहीं नही जाएँगे।

विजयी प्रत्याशी के यहाँ से आ रही पटाखों और बैंडबाजों की आवाज़ कुछ कम हो गई थी तो सामने के मंदिर से घंटियों की आवाज़ें आने लगी थीं उसने रोज़ की तरह मंदिर जाने का कोई उपक्रम नही किया शायद मन ही मन उसने भगवान के हाथ जोड़ लिए थे और आज न आ सकने की माफी भी माँग ली थी।
लोग अब कुछ कम होने लगे थे लगभग हर मिलने-जुलने वाला आ चुका जो नही भी आए थे उन्होंने ठोस कारण बताते हुए उसके मोबाइल पर अपना दु:ख प्रकट कर दिया था जिसे उसने अनमने मन से उनकी उपस्थित के रुप में दर्ज़ कर लिया था।

बाहर हवा थोड़ी तेज़ हो गई थी, आँधी आने के आसार थे, उन लोगों ने जो कमरो में अरजेस्ट नही हो पाए थे आँधी पानी से पहले घर जाने की तैयारी करने लगे थे वे एक-दूसरे से धीरे-धीरे कहलवाने लगे थे, "आँधी पानी तेज़ हो रहा है घर नही चलना क्या।'' काफी लोग आकर जा चुके थे वो अपने सलाहकारों से धीरे-धीरे बात कर रहा था बीच-बीच में नए आने वालों का अभिवादन भी उदास दिखकर लेता जा रहा था। अब नए आने वाले बस शक्ल दिखा कर खिसक रहे थे, भीड़ काफी कम हो गई थी, सलाहकार भी एक ही बात कहते सुनते ऊबने लगे थे अब वे हार से ज़्यादा खराब हो रहे मौसम की चर्चा कर रहे थे, आखिरी चाय के बाद सभी सलाहकार उसे आराम करने की सलाह देकर जाने का उपक्रम करने लगे।

चायवाला सैंकड़ों चाय-समोसे खिलापिलाकर अपने पैसों के लिए उनके सामने खड़ा सोच रहा था कि शायद वो उससे उसके पैसों के बारे में खुद पूछ लें। उसने सलाहकारों से उनके सहयोग का आभार व्यक्त किया तो सलाहकारों ने भी विराधियों को देख लेने का उसे वचन दिया तो वो गंभीर रुप से मुस्कुरा दिया। अब वो सबसे विदा लेकर मोबाइल ऑफ करके आराम करने चला गया। चायवाला भी हारे प्रत्याशी की तरह उदास मन से अपनी दुकान की तरफ़ चल दिया।

३१ मार्च २००८