हास्य व्यंग्य | |
प्रवासी से प्रेम |
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एक समय था जब विदेशी विद्वानों के मुँह से हिंदी सुनकर हम भक्ति भाव से भर जाते थे। विदेशी विद्वान क्या बोल रहे हैं और क्यों बोल रहें हैं, इस ओर हिंदी के भक्तों का ध्यान नहीं जाता था, बस उनके मुखारविंद से हिंदी सुनकर ही मन गुदगुदाए जाता था। जैसे माँ अपने बच्चे का तुतलाना सुनकर ही मरी जाती है वैसे ही गोरी हिंदी के उस युग में हिंदी की अनेक माँएँ न्योछावर हो गईं। उन माँओं का बलिदान भी व्यर्थ नहीं गया, सात समुंदर पार तक हिंदी की सेवा का सुनहरा अवसर मिला। गोरी हिंदी को देखकर लगता था कि हमारी भाषा कितनी समृद्ध है। ये दीगर बात है कि इस प्रक्रिया में गोरी हिंदी के भक्त तो समृद्ध हो गए पर भाषा विपन्न ही रही। इस विपन्न भाषा का उत्थान करने वाले कहाँ के कहाँ पहुँच गए और भाषा वहीं की वहीं कदमताल करती रह गई। आज समय बदल रहा है। अनेक मामलों में हम आत्मनिर्भर हो गए हैं। जबसे हमारे प्रवासी भारतीय भाई समृद्ध हुए हैं तथा इस कारण उनका साहित्य भी समृद्ध हुआ है तबसे हमने विदेशी विद्वानों की ओर ताकना काफ़ी कम कर दिया है। प्रवासी साहित्यकारों के आने से हिंदी भाषा और साहित्य में वसंत छा गया है। विदेश भ्रमण की कोयल कूकने लगी है तथा अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों तथा सम्मेलनों कें भँवरे गुनगुनाने लगे हैं। हिंदी की गूँज पूरे विश्व में सुनाई देने लगी है। यह दीगर बात है कि उस गूँज की प्रतिध्वनि भारत में अंग्रेज़ी के रूप में सुनाई देती है। प्रवासी साहित्यकार के भारत आगमन का समाचार मिलते ही उन्हें दुनिया की बुरी नज़रों से छुपाकर अपनी गोद में लिए-लिए फिरने को अनेक हिंदी प्रेमियों के मन मचलने लगते हैं। अभिनंदन की बहार आ जाती है तथा 'लोकार्पणों ' की थालियाँ सजने लगती हैं। राधेलाल जी इस तेज़ी से लपके जा रहे थें जैसे चुनाव की गाड़ी पकड़ने को देश का
प्रत्येक देशसेवक लपकता है। देशसेवा आजकल लपकने, झपटने और हथियाने की ही चीज़ है। आलोका जी पाँच बरस पहले भारत में कस्बाई ज़िंदगी जी रही थीं। बेचारी ने बहुत कविताएँ कहानियाँ लिखीं पर साहित्य के आलोचकों ने घास का तिनका न डाला। अनेक रचनाकारों को बरेली बुलाकर सम्मानित किया गोष्ठियाँ की पर गुटबाजी के इस कलियुग में किसी ने उनके साहित्य का सही मूल्यांकन न किया। साहित्य की सेवा करते-करते बुढ़ाने को हुईं। -- 2 -- इधर कुछ लोगों ने प्रवासी साहित्यकारों को बढ़ावा देने के लिए साहित्य का होल-सेल डिपो खोल लिया है। मीरा की तरह ये प्रवासी के दीवाने हैं और तुलसी की तरह इनका मस्तक तभी नवता है जब सामने साहित्यकार प्रवासी के रूप में खड़ा हो। जिसे प्रवासी मिल जाता है उसका जीवन धन्य हो जाता है तथा वो स्वर्गिक सुख का आनंद उठाता है और जिसे नहीं मिलता वह ईर्ष्या के नारकीय कड़ाहे में तले जाने का दुख उठाता है। राधेलाल ने मुझे बहुत लज्जित कर दिया था और उस लज्जा के परिणामस्वरूप मैं आलोका जी की गोष्ठी का महत्वपूर्ण हिस्सा बनने चल दिया। गोष्ठी के द्वार पर हिंदी साहित्य की अनेक ग़ैर
सरकारी संस्थाओं के पदाधिकारी (वैसे
जो आनंद इन्हें एन. जी. ओ.स कहने में वह ग़ैर सरकारी संस्था कहने में कहाँ!) अपने-अपने चारे के साथ बंसी डाले किसी बड़ी प्रवासी मछली की तलाश में लगी खड़े हुए थे।
अल्लाह के नाम पर कोई एक छपास का मारा प्रवासी ही फँस जाए तो संस्था की आर्थिक दशा
में सुधार आए। -- 3 -- मेरी वंदना सुन वो मंद-मंद मुस्काराए। उनकी मुस्कान कह रही थी कि भक्त हम तुम्हारी मंशा जानते हैं, क्यों हमें बेवकूफ़ बना रहा है जड़। कुछ दूर पर देखा तो कुछ महिला साहित्यकार बड़ा गंभीर विमर्ष कर रही थीं जिसे प्रबुद्ध साहित्यकार नारी विमर्ष के नाम से पुकारते हैं। "हाय, तेरा वाला तो प्रवासी साहित्यकार बहुत श्रेष्ठ है। सुना है वो हर बरस भारत से
साहित्य प्रेमियों को बुलाता है उन्हें लंदन की सैर कराता है।" दोनों महिला लेखिकाएँ एक दूसरे के काँधे पर सर रखकर सुबक-सुबक कर रही थीं और मैं हिंदी साहित्य गोष्ठी में चाय पी रहा था। हा हंत, हिंदी साहित्य में महिलाओं की दुर्दशा का अंत नहीं। प्रवासियों की भारत में एक लंबी परंपरा है। तुलसी बाबा ने कहा भी है, "प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।" जिसका अनर्थ है कि प्रवासी नगर के सब काज कर देता है। जिसने भी प्रवास किया वही अनेक रूपों में महान हो गया। इस महान परंपरा का शुभारंभ राम से हुआ था। अयोध्या से प्रवास करने के बाद ही उन्हें यश मिला। प्रवासी बनकर ही राम ने असत्य पर सत्य की विजय स्थापित की। 14 वर्ष प्रवास से लौटकर, प्रवासी बनकर जब राम आए तभी अयोध्यावसियों ने दीपावली मनाई। दीपावली मूलत: प्रवासियों के स्वागत का त्योहार है। राम सोने की लंका के राजा को जीत कर आए थे हमारे प्रवासी डॉलर या पौंड से लैस होकर आते हैं। मुझे लगता है कि इसलिए भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजन का महत्व है। हमारी सरकार को देखो उसने प्रवासियों के लिए मंत्रालय ही बना दिया है। माँ को भी उसी प्रवासी पुत्र की अधिक याद आती है जो वर्ष में एक आध बार आता है, माँ को अमीर कर जाता है। जो बेचारा इंडियन बेटा है वह बीमार माँ की सेवा करने के बावजूद उसकी जायदाद में निगाह रखने का दोष उठाता है। और जो ना रहा इंडियन अर्थात एन. आर. आई. है वही वी. आई. पी. है. . .पांडव भी जब प्रवास काट कर आए तो उन्होंने महाभारत रचा और असत्य पर सत्य की विजय स्थपित की। कृष्ण भी जब प्रवासी हुए तो गोपिकाओं का मोह छोड़ पाए और धर्म की ग्लानि को रोक पाए। अत: प्रवासी प्रभु से प्रेम परम आवश्यक है। |